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लाओस का ‘कुरुक्षेत्र’

जिस कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध हुआ, वह मैदान हजारों वर्ष पूर्व से वहां रहा है। महाभारत और गीता उपदेश के बाद यह विश्व प्रसिद्ध हुआ। ऐसा ही एक महातीर्थ लाओस में भी है, जिसकी स्थापना राजा देवनीक ने की थी

by आचार्य मनमोहन शर्मा
Jan 2, 2025, 10:14 am IST
in विश्लेषण, धर्म-संस्कृति, हरियाणा
लाओस के वात-फू लिंग में स्थित कुरुक्षेत्र मठ

लाओस के वात-फू लिंग में स्थित कुरुक्षेत्र मठ

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कुरुक्षेत्र भारत के हरियाणा राज्य में स्थित दुनिया के सबसे प्राचीन तीर्थों में से एक है। यह महाभारत का केंद्र स्थल है। कुरुक्षेत्र की इस पवित्र भूमि पर 15 दिसंबर को अंतरराष्ट्रीय गीता महोत्सव का समापन हुआ। यह वही पवित्र भूमि है, जहां भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिए गए भारतीय संस्कृति की ज्ञान गंगा का सार उपदेश के रूप में धरती पर अवतरित हुआ। कुरुक्षेत्र की ज्ञान एवं संस्कारी संस्कृति भारत तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि वह असीम, सार्वभौम एवं सर्वजनीन है।

आज से लगभग 1570 वर्ष पूर्व, दक्षिण-पूर्व एशिया में भारतीय संस्कृति का एक केंद्र स्थापित हुआ, जिसका नाम कुरुक्षेत्र रखा गया था। इसका अध्ययन हमें गौरव प्रदान करता है। यह ‘कुरुक्षेत्र’ प्राचीन विश्व में तो बहुत प्रसिद्ध था, लेकिन आज अज्ञात है। हम उस भूमि के राजाओं के आभारी हैं जिन्होंने पत्थरों पर अपना इतिहास उत्कीर्ण किया, जिसने आधुनिक दुनिया के बुद्धिजीवियों को आकर्षित किया और हमें यह जानकारी उपलब्ध हुई। यह कुरुक्षेत्र आधुनिक लाओस में स्थापित किया गया था। राजा देवनीक द्वारा 5वीं शताब्दी में इसकी स्थापना की गई थी।

आचार्य मनमोहन शर्मा
भारतीय इतिहास संकलन समिति (हरियाणा)
से संबद्ध)

दुनिया के सभी शहरों और तीर्थ स्थलों की स्थापना का इतिहास और समय है, लेकिन भारत के तीर्थ अलौकिक हैं। अमेरिकी लेखक आर.जी. सोलोमन ने टिप्पणी की थी, ‘भारत के तीर्थों की स्थापना एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि तीर्थ स्थान की कुछ जन्मजात गुणवत्ता के कारण है, जिसका अर्थ है कि यह हमेशा से एक तीर्थ था।’ कुरुक्षेत्र कोई अपवाद नहीं है। यदि हम संस्कृत साहित्य के सागर में डुबकी लगाएं, तो कुरुक्षेत्र का सबसे पहले उल्लेख शतपथब्राह्मण (4.1.5.13) में पाया जाता है। वहां देवताओं ने यज्ञ किया था, लेकिन दोनों अश्विनी कुमारों को यज्ञ कुरु नाम के भाग से वंचित कर दिया गया था।

इसका उल्लेख ऋग्वेद (10.33.4) में भी मिलता है कि ‘कुरु की भूमि में सुना गया’, लेकिन यहां कुरू का अर्थ कुरुक्षेत्र शब्द नहीं, बल्कि कुरुश्रवण से है। मैत्रायणि संहिता (2.1.4) और तैत्तरीय ब्राह्मण में है कि इस भूमि पर ऋषियों ने विस्तृत यज्ञ किए थे। इसका अर्थ है कि ब्राह्मण ग्रन्थों के रचना काल में ‘कुरुक्षेत्र’ आध्यात्मिक गतिविधियों का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र था। हम तैत्तरीय ब्राह्मण (1.8.4.1) में भी पाते हैं कि यहां असहनीय सर्दी पड़ती थी और कुरु-पंचाल पूर्व की ओर चले गए थे।

इस क्षेत्र में उमस भरी सर्दियों के मौसम का संकेत छांदोग्य उपनिषद् में भी दिया गया है, क्योंकि चक्रयान को इस मौसम में अपनी पत्नी के साथ यहां से स्थानांतरित होना पड़ा था। महाभारत और वामन पुराण इस पवित्र भूमि के संदर्भों से भरे हुए हैं। इस भूमि से ही हल का प्रयोग आरम्भ हुआ था और यहां राजा कुरु ने प्रथम बार भूमि की जुताई थी। इसका अर्थ है कि कृषि की उत्पत्ति इसी भूमि से हुई है।

प्रारंभिक सभ्यता का केंद्र

इसका नाम परशुराम के नाम पर सामंतपञ्चक रखा गया था और यह ब्रह्मा द्वारा रचित पांच वेदियों में से एक था। (महा. 9.53.13-14) इसी क्षेत्र में महाभारत का युद्ध हुआ तथा श्रीकृष्ण ने मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, जिसके कारण यह विश्व में प्रसिद्ध है। डॉ. राजबलि पांडे के अनुसार यह प्रारंभिक सभ्यता का केंद्र था और समय बीतने के साथ यमुना और गंगा के बीच की भूमि, मध्य देश में दक्षिण-पूर्व में स्थानांतरित हो गया। इस स्थान पर मध्य काल में आक्रमणकारियों द्वारा हमला किया गया था जो अब यह हरियाणा राज्य का जिला मुख्यालय और प्रसिद्ध धार्मिक-सांस्कृतिक एवं शिक्षा केन्द्र है।

वात-फू शिलालेख

लाओस का ‘कुरुक्षेत्र’

‘कुरुक्षेत्र’ लाओस में स्थापना करने वाले राजा देवनीक दक्षिण लाओस के चंपासक राज्य में स्थित काम्भुज साम्राज्य में तीर्थ वात-फू के संस्थापक थे। अब यह स्थल नष्ट हो गया है, लेकिन सौभाग्य से यूनेस्को ने 2001 में वात-फू को विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित कर किया है। डब्ल्यू.जी.वी.बोगार्ट का मानना है कि यह कुरुक्षेत्र खमेर सभ्यता का उद्गम स्थल था और कई राजाओं ने कुरुक्षेत्र की इस पवित्र भूमि को उपहार देकर अपनी श्रद्धा अर्पित की थी। यह प्राचीन स्थल वात-फू से 6.5 किमी पूर्व में है, जो 2.4 किमी गुणा 1.8 किमी क्षेत्र वात-फू फैला है। यह मिट्टी की दीवार से घिरा है जो 14 मीटर चौड़ी और 6 मीटर ऊंची है, जिसमें छोटे जलाशय हैं।

इस कुरुक्षेत्र की कहानी का खुलासा सबसे पहले एक फ्रांसीसी पुरालेखकार जॉर्जेस कोएड ने किया था उसने 1954 में मेकोंग नदी के पश्चिमी तट पर वात-फू में पाए गए एक शिलालेख का अनुवाद किया था। इस पर आगे की गई टिप्पणी और व्याख्या में आर.सी. मजूमदार 1959, जैक्स 1962 और स्वर्गीय डॉ. सीलक राम फोगाट 1978 द्वारा सुधार किया गया। नोम पेन्ह विश्वविद्यालय के छोम कुंथिया और इस लेख के लेखक द्वारा इस शिलालेख का एक नव अध्ययन किया गया है।

राजा देवनीक द्वारा उत्कीर्ण पत्थर की तारीख 450 ई. मानी जाती है। यह एक बहुत महत्वपूर्ण शिलालेख है। इस शिलालेख में उनकी उपलब्धियों को अन्य हिंदू राजाओं की तरह सूचीबद्ध किया गया है। इस पहाड़ के निकट राजा देवनीक ने एक यज्ञ किया और एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया उन्होंने देवताओं से अनुरोध किया कि वे उन्हें इस तीर्थ का नाम सुझाएं। तब उनके मस्तिष्क में कुरुक्षेत्र नाम आया और उसने इस स्थान का नाम कुरुक्षेत्र रखा। घनाकार शिलाखण्ड के चारों ओर शिलालेख हैं और प्रत्येक तरफ 16 पंक्तियां उत्कीर्णित हैं। यह संस्कृत भाषा और स्थानीय ब्राह्मी लिपि में है। इसके अनुसार यह तीर्थ स्थल तथा शिव मन्दिर आधुनिक चंपासक नगर के निकट पवित्र पर्वत के पास बनाया गया था।

14 मेकोंग (‘मां गंगा’ से परिवर्तित शब्द) नदी के पश्चिमी तट पर एक मंदिर और मठ भी है। पहाड़ से एक झरना निकलता है और इसके जल को मुख्य मंदिर में स्थापित शिवलिंग के अभिषेक के लिए प्रवाहित किया जाता था। यहां अब कोई शिवलिंग नहीं है, परन्तु चिह्न अभी भी हैं। वात-फू का मंदिर एक चट्टान के आधार पर बनाया गया है जो पहाड़ी से 100 मीटर ऊपर है। मंदिर से दक्षिण की ओर एक सड़क अन्य मंदिरों और फिर कंबोडिया के अंगकोरवाट तक जाती थी। इस स्तंभ पर लिखा हुआ है कि राजा ने पितामह, विष्णु और शिवि की कृपा से एक यज्ञ पूर्ण किया। इस अभिलेख पर धनंजय, अर्जुन, इंद्रद्युम्न, शिवि, महापुरुष, कनकपंडित, मेरु पर्वत, श्री लिंग पर्वत आदि के नाम हैं। इसके बी भाग पर कुछ शब्द दिखाई देते हैं जैसे महातीर्थ, गाय, रत्न, द्विज, अग्निहोत्र आदि।

वात-­फू संग्रहालय में प्राचीन शिवलिंग

राजा देवनीक ने देवताओं से प्रार्थना की कि कुरुक्षेत्र का नव स्थापित महातीर्थ मूल कुरुक्षेत्र की तरह प्रसिद्ध हो जाए, जिसे राजर्षि कुरु ने लोगों की भलाई के लिए भूमि की जुताई कर स्थापित किया था। उन्होंने प्रार्थना की कि मैंने जो भी फल प्राप्त किया है और जो भी देवताओं ने दिया है वही लाभ मेरी प्रजा को तीर्थ में बार-बार आने से प्राप्त हो। इस शिलालेख के कुछ छंदों में कुरुक्षेत्र के महत्व को भी समझाया गया है, जो वास्तव में भारतीय कुरुक्षेत्र के महत्व को दर्शाता है।

  •  कुरुक्षेत्र से हवा द्वारा उड़ाए गए धूल के कणों के स्पर्श से ही एक महान पापी को भी मोक्ष तक ले जाया जाता है।
  •  जो कहता है, ‘मैं कुरुक्षेत्र जाऊंगा और वहां रहूंगा’, वह पापों से मुक्त हो जाता है।
  • जो लोग कुरुक्षेत्र में रहते हैं, वे स्वर्ग में रहते हैं।
  • एक हजार अश्वमेध और एक लाख वाजपेय यज्ञ और एक लाख गायों के दान से प्राप्त धार्मिक लाभ कुरुक्षेत्र में पूजा करने वालों को प्राप्त होता है।
  •  नैमिषारण्य (सीतापुर उ.प्र.) पृथ्वी पर शुभ है और अंतरिक्ष में पुष्कर (राजस्थान में अजमेर के पास) श्रेष्ठ है; लेकिन कुरुक्षेत्र सभी तीनों लोकों में सर्वोच्च है। (पृथ्वी,अन्तरिक्ष,द्यौ)
  •  व्यक्ति की सात पीढ़ियों को कुरुक्षेत्र के नाम से शुद्ध किया जाता है।

महाभारत के अनुसार भारत का कुरुक्षेत्र सरस्वती और दृषद्वति नदी के बीच स्थित था। पारंपरिक रूप से इसमें 48 कोस का एक वृत्त शामिल है। यह ध्यान योग्य है कि इस शिलालेख में अर्जुन और युधिष्ठिर का भी उल्लेख किया गया है और राजा देवनीक ने स्वयं की तुलना युधिष्ठिर से की थी। उनकी यह भी इच्छा थी कि उनके द्वारा स्थापित तीर्थ मेरु पर्वत की तरह स्थायी हो।

शिलालेख का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि यह 5वीं शताब्दी के चंपा में महाभारत और हरियाणा के तीर्थ कुरुक्षेत्र की लोकप्रियता को दर्शाता है। इस शिलालेख के अध्ययन में मैंने पाया कि श्लोक 11 से 13 सीधे महाभारत से लिए गए हैं। यदि हम वामनपुराण का अध्ययन करें तो 11वें श्लोक को वहां भी दोहराया गया है। जहां तक पूर्वजों को यहां आने से मिलने वाले लाभ का संबंध है, यह इस शिलालेख में पूर्व की सात पीढ़ियों तक है, लेकिन वामनपुराण में 21 पीढ़ियों तक लाभ मिलने की बात मिलती है। इस शिलालेख की विषय वस्तु के आधार पर इस लेखक का विचार है कि देवनीक हरियाणा का रहने वाला था, उसके बाद वहां पर उसके जिन वंशजों ने शासन किया, वे थे कम्मथा, श्रेष्ठवर्मन, रुद्रवर्मन और जयवर्मन। उन्होंने 657 ई. तक शासन किया। राजा कम्मथा ने भी पहाड़ी की चोटी पर एक सोने का शिवलिंग स्थापित किया था। कई राजाओं ने यहां भगवान शिव की उपासना की।

वात-फू लिंग पर्वत

कुरुक्षेत्र के प्राचीन तीर्थ की उत्पत्ति महाभारत युद्ध से हजारों साल पहले हुई थी। गीता के उपदेश के कारण यह विश्व प्रसिद्ध हो गया। महाभारत और कुरुक्षेत्र न केवल लाओस के नागरिकों में अच्छी तरह से जाने जाते थे, बल्कि पांचवीं शताब्दी में इनके प्रति धार्मिक विश्वास की गहरी भावना थी। भारत के अन्य तीर्थ जैसे नैमिषारण्य, पुष्कर, प्रभास, सन्निहित और मेरु पर्वत भी उन लोगों के लिए अनजान नहीं थे। अश्वमेध, वाजपेय यज्ञ और गायों का उपहार देने जैसी भारतीय परंपराएं वहां प्रचलित थीं। शक संवत् प्राचीन लाओस और कंबोडिया में लोकप्रिय था। भारत के कई तीर्थ स्थलों की तरह वात फू का स्थल भी बहुत प्राकृतिक है। संक्षेप में कह सकते हैं कि कुरुक्षेत्र की यह भूमि राजनीतिक राष्ट्रों की सीमाओं को तोड़ते हुए सदियों से पूजनीय है और इसने दक्षिण-पूर्व एशिया में सांस्कृतिक एकता को स्थिर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज पुन: दक्षिण-पूर्व एशिया से सांस्कृतिक सम्बन्धों को और प्रगाढ़ करने की आवश्यकता है।

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