विश्लेषण

‘बलबन’ दिल्ली सल्तनत का खूनी चेहरा : एक क्रूर सुल्तान जिसकी क्रूरता ने हिंदू समाज को झकझोर डाला

दिल्ली सल्तनत के गुलाम वंश के सुल्तान बलबन को एक कुशल प्रशासक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन उसके शासनकाल में हिंदू समाज पर किए गए अत्याचार और क्रूर नीतियों की अनसुनी कहानियाँ इतिहास के पन्नों में छिपी हैं। बलबन की क्रूरता और हिंदू समाज के प्रतिरोध पर एक विस्तृत विश्लेषण।

Published by
सोनाली मिश्रा

गुलाम वंश के क्रूर सुल्तान इलतुतमिश की बेटी रज़िया को गद्दी से उतारने में सक्रिय भूमिका निभाने वाले बलबन की क्रूरता की कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दफन हैं। वे तथ्यों में हैं, मगर विमर्श में नहीं हैं। बलबन को हमेशा ही एक न्यायप्रिय सुल्तान के रूप में पढ़ाया जाता है और यदि उसकी क्रूरता की कहानी बताई भी जाती है तो यह कहा जाता है कि उसने न्याय के लिए खून और दंड की राजनीति की।

दिल्ली सल्तनत के क्रूर और बर्बर सुल्तान इलतुतमिश की तरह बलबन भी एक गुलाम ही था। मगर इसके साथ वह बहुत ही महत्वाकांक्षी भी था। वह बहुत क्रूर भी था। उसकी क्रूरता के किस्से कथित सुधारों के नाम पर महिमामंडित किये गए हैं। रज़िया के बाद उसके भाई बहराम शाह को गद्दी पर बैठाकर षड्यन्त्र से उतारा गया। उसके बाद इलतुतमिश के पोते अलाउद्दीन मसूद को गद्दी पर बैठाया गया। मगर चार वर्ष तक उसके शासन के बाद उसे भी गद्दी से उतारकर उसे रास्ते से हटा दिया गया। उसके बाद भी बलबन की दाल नहीं गली और तुर्कों के सरदारों के समूह ने इलतुतमिश के बेटे नासिरुद्दीन को गद्दी पर बैठाया।

वह बहुत ही दुष्ट शासक था और उसका सेनापति बलबन उससे भी अधिक दुष्ट था। नासिरुद्दीन का शासन 20 वर्ष तक रहा। ये बीस वर्ष उसके और उसके सेनापति बलबन द्वारा किये गए अत्याचारों के कारण हिंदुओं के लिए बहुत भयावह रहे। इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक अपनी पुस्तक भारत में मुस्लिम सुल्तान भाग 1 में नासिरुद्दीन के विषय में लिखते हैं कि

“नासिरुद्दीन ने 20 वर्ष तक आतंक फैलाया। उलुध खान (बाल बन) उसका सेनापति था। 20 वर्ष तक नासिरुद्दीन की सेना के सेनापति की हैसियत से और उसके बाद अपनी सुलतानी हैसियत से बलबन (उलुध खान) ने हिंदू भारत को कयामत की विशाल कढाही में उबाल डाला। फलते-फूलते हिंदू नगर और ग्राम घायल और मृत हिंदू शरीरों को गोद में लेकर जलते हुए खंडहरों में बदल गए।“

नासिरुद्दीन की मौत 1265-66 के बीच हुई थी और चूंकि उसकी कोई औलाद नहीं थी, तो उसके बाद बलबन ही सुल्तान बना। यह भी कहा जाता है कि उसने ही नासिरुद्दीन को जहर देकर मारा था।

वे आगे लिखते हैं कि “दिल्ली के मुस्लिम सुल्तान शायद ही काभी अपने कर्मचारियों को वेतन देते थे। मुस्लिम सुल्तान और उनके इस्लामी कर्मचारी हिंदुओं की लूट से ही अपना पेट पालते थे।“

मगर यह भी बात सत्य है कि जितना भी वे लूटपाट करते थे, हिंदुओं का विरोध और प्रतिरोध उतना ही तीव्र रहता था। बलबन के शासनकाल की प्रशंसा करने वाले डॉ. आशीर्वादलाल श्रीवास्तव लिखते हैं कि बलबन निस्संदेह एक योग्य और कठोर प्रशासक और एक सफल शासक था।

उसने अपने उद्देश्य को बहुत ही निर्दयता से और सभी के दिलों में डर भर कर हासिल किया था। उसकी सजाएं अनावश्यक रूप से बहुत ही कठोर, क्रूर और बर्बर हुआ करती थीं। बलबन एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। यह कहा जाता है कि वह मौलाना और मौलवियों की संगत पसंद करता था। और वह उनके साथ खाना खाता था और उनके साथ इस्लाम के कानूनों पर बातचीत करता था। वह अपनी प्रजा के धर्म के प्रति बहुत ही असहिष्णु था। इसे लेकर उसके दिल में उम्र, ओहदे या लिंग का कोई भी आदर नहीं था।“

वह मानता था कि तुर्क के लोग नस्ली रूप से श्रेष्ठ होते हैं। और वह अपने प्रशासन में गैर-तुर्कों के साथ बातचीत नहीं करता था इसके साथ ही वह भारतीय मुसलमानों को प्रशासन में नौकरी देने के खिलाफ था।

जिन्हें वह नीची नस्ल का मानता था, उनके साथ वह बात करना पसंद नहीं करता था।

पुरुषोत्तम नागेश ओक लिखते हैं कि बलबन के शासनकाल में ही दिल्ली बंजर हुई। और इसका कारण वह लिखते हैं कि “राजपूतों के आक्रमण से भयभीत होकर बलबन ने दिल्ली के चारों ओर वृक्षों और झाड़ियों को निर्दयतापूर्वक कटवाकर साफ करा दिया। इसी कारण दिल्ली आज रेत से भरी बंजर जमीन हो गई है।“

वे आगे लिखते हैं कि “एक वर्ष तक दिल्ली को बर्बाद करने के बाद अपने शासन के दूसरे वर्ष में बलबन ने दोआब और अवध की ओर अपनी कुल्हाड़ी घुमाई। सारे क्षेत्र को कई भागों में विभक्त करके उसने प्रत्येक भाग के लिए एक-एक सैन्य टुकड़ी नियुक्त कर दि। उसने झाड़ियों, हिंदुओं सरदारों और नागरिकों को काट फेंकने का आदेश दे दिया। धर्मांध मुसलमानों को चुनचुन कर इन सैन्य टुकड़ियों में भरा गया गया। इन लोगों को बार-बार तोते की तरह रटा-रटा कर विश्वास दिलाया गया था कि हिंदुओं को हलाल करना सबसे पहला धार्मिक कार्य है और इस्लामी जन्नत को प्राप्त करने के लिए हिंदुओं की स्त्रियों से बलात्कार कर उनके बच्चों का अपहरण करना एकदम जरूरी है।“

जिस बलबन को एक कुशल प्रशासक और शासन को स्थिरता देने वाला बताया जाता है, उनसे यह प्रश्न पूछना चाहिए कि कौन से शासन की स्थिरता और किसकी कीमत पर?

मगर इतिहास के पन्नों में जो भी लिखा है, उसे छिपाकर न जाने क्या-क्या लिखने वाले यह नहीं बताते कि आखिर तुर्कों का स्थिर शासन किस कीमत पर स्थापित किया?

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