'सुशासन का धर्म': सागर मंथन 3.0 में चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने गिनाई सुशासन की परंपराएं, बताया क्यों पिछड़ रहा हिंदी सिनेमा
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‘सुशासन का धर्म’: सागर मंथन 3.0 में चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने गिनाई सुशासन की परंपराएं, बताया क्यों पिछड़ रहा हिंदी सिनेमा

चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने सागर मंथन 2024 में सुशासन के धर्म, भारतीय परंपराओं, और सिनेमा की भूमिका पर अपने विचार साझा किए। जानिए उनकी गहन व्याख्या और दृष्टिकोण।

by SHIVAM DIXIT
Dec 24, 2024, 07:18 pm IST
in भारत, गोवा, मनोरंजन
सागर मंथन 2024 के मंच पर "सुशासन के धर्म" को लेकर अपने विचार रखते हुए चंद्रप्रकाश द्वेदी

सागर मंथन 2024 के मंच पर "सुशासन के धर्म" को लेकर अपने विचार रखते हुए चंद्रप्रकाश द्वेदी

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विगत दो वर्षों की भांति इस वर्ष भी पाञ्चजन्य ने अपने प्रथम संपादक और भारत रत्न, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर गोवा के नोवाटेल होटल में सागर मंथन के तीसरे संस्करण का आयोजन किया। इस आयोजन का उद्देश्य सुशासन और सतत विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करना था। “सुशासन का धर्म” नामक सत्र में प्रसिद्ध लेखक, फिल्मकार और अभिनेता चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने अपने गहन और प्रेरणादायक विचार साझा किए।

इस सत्र में सुशासन, धर्म, कूटनीति, फिल्मों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सिनेमा के सामाजिक प्रभाव जैसे विभिन्न विषयों पर चर्चा की गई। द्विवेदी जी ने अपने विचारों को गहन ऐतिहासिक संदर्भों और भारतीय परंपराओं के उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया।

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने महाभारत के शांति पर्व का उदाहरण देते हुए कहा कि प्राचीन काल में राजा का कोई अस्तित्व नहीं था। लोग अपने-अपने धर्म का पालन करते थे और समाज स्वाभाविक रूप से संतुलित रहता था। लेकिन जब लोभ, ईर्ष्या, और असंतोष जैसे भाव बढ़ने लगे, तो समाज में अनुशासन और न्याय बनाए रखने के लिए राजा की आवश्यकता महसूस हुई।

उन्होंने कहा- “राजा का उद्देश्य केवल शासन करना नहीं, बल्कि प्रजा की रक्षा करना था। यह सुनिश्चित करना था कि बड़ी मछली छोटी मछली को न खा सके और ताकतवर, निर्बल को हानि न पहुंचाए।” राजा को प्रजा से कर (टैक्स) के रूप में योगदान मिलता था, लेकिन यह कर तभी न्यायोचित था, जब राजा अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाए।

उन्होंने धर्म का गहन विश्लेषण करते हुए बताया कि धर्म का वास्तविक अर्थ है, “जो सबको धारण करे।” यह केवल धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक ऐसा अनुशासन है, जो समाज को संतुलन में बनाए रखता है।

गीता और उपनिषद से प्रेरणा

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने भागवत गीता का संदर्भ देते हुए कहा, “जो कार्य केवल अपने लिए किया जाए, वह अधर्म है।” उन्होंने ईशावास्य उपनिषद के मंत्र का उल्लेख करते हुए बताया कि यह मंत्र भारतीय विचारधारा का सार है:

ॐ ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।

इसका अर्थ है कि यह समस्त संसार ईश्वर की रचना है। जब हम इसे समझते हैं, तो “मैं” और “तुम” का भेद मिट जाता है। हमें केवल उतना ही ग्रहण करना चाहिए, जितना हमारी आवश्यकता है, और किसी और के धन पर लालच नहीं करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि धर्म वह शक्ति है, जो प्रकृति, व्यक्ति, और समाज को एक साथ जोड़ती है। यह केवल नियमों का पालन नहीं है, बल्कि यह सुनिश्चित करना है कि समाज में हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे।

सुशासन में कूटनीति की आवश्यकता

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने सुशासन के संदर्भ में संगोल का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि प्राचीन काल में इसे धर्मदंड कहा जाता था, जो राजा के कर्तव्यों और न्याय का प्रतीक था। उन्होंने बताया कि प्राचीन भारत में ग्राम, सभा, और समिति की व्यवस्थाएं सुशासन की आधारशिला थीं। उदाहरण के लिए, यदि किसी गांव में किसी व्यापारी का सामान चोरी हो जाता, तो उसे खोजने की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की होती थी। अगर चोरी का सामान नहीं मिलता, तो राज्य उस नुकसान की भरपाई करता।

उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में न्याय और प्रशासन की ऐसी व्यवस्था थी, जो आज के समय में भी अद्वितीय है। उन्होंने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का उदाहरण देते हुए बताया कि अतिथि का पंजीकरण, चोरी की रिपोर्टिंग, और अपराधियों की निगरानी जैसे प्रावधान सुशासन की जड़ें मजबूत करते थे।

फिल्मों का धर्म : मनोरंजन के साथ ज्ञान

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने नाट्यशास्त्र का उल्लेख करते हुए बताया कि भारतीय परंपरा में नाटक और कला का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को शिक्षित और जागरूक करना भी था। उन्होंने कहा कि प्रजापति ब्रह्मा ने नाट्यशास्त्र की रचना इसलिए की, ताकि समाज में मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान का प्रसार हो। उन्होंने भरत मुनि के 100 शिष्यों द्वारा किए गए नाट्य प्रदर्शन का उल्लेख किया और बताया कि कैसे स्त्री पात्रों को शामिल करके नाटकों में रस की उत्पत्ति की गई।

उन्होंने कहा कि आज फिल्मों का धर्म केवल मनोरंजन तक सीमित हो गया है। उन्होंने इसे पुनः समाज को शिक्षित करने और सकारात्मक संदेश देने की ओर उन्मुख करने का आह्वान किया।

फिल्मों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने कहा कि आज का समाज अत्यधिक संवेदनशील हो गया है। हर किसी को अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन मतभेद और विरोध के लिए भी जगह होनी चाहिए। उन्होंने चार्वाक दर्शन का उल्लेख करते हुए बताया कि हमारे ऋषियों ने वेदों की आलोचना को भी सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि मतभेद और संवाद भारतीय परंपरा की नींव हैं।

उन्होंने कहा, “हमें अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम दूसरों की आवाज को दबाएं। मतभेद को स्वीकार करना और संवाद करना ही समाज को मजबूत बनाता है।”

साउथ सिनेमा बनाम हिंदी सिनेमा (बॉलीवुड) : एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण

चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी ने साउथ सिनेमा की सफलता और बॉलीवुड के संघर्ष पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि साउथ सिनेमा की सबसे बड़ी ताकत है उनकी संस्कृति से जुड़ाव। उनकी फिल्में उनके समाज और परंपराओं को दर्शाती हैं।

उन्होंने बाहुबली और RRR का उदाहरण देते हुए बताया कि कैसे इन फिल्मों ने भारतीय संस्कृति और परंपराओं को प्रमुखता दी। उन्होंने कहा, “बाहुबली में नायक का शिवलिंग को कंधे पर उठाकर ले जाना दर्शकों को भावनात्मक रूप से जोड़ता है। यह सीन हमारी परंपराओं और भावनाओं का सम्मान करता है।”

उन्होंने यह भी कहा कि साउथ के अभिनेता अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं, जबकि बॉलीवुड में यह जुड़ाव कम देखने को मिलता है।

सुशासन और वर्तमान समाज

द्विवेदी जी ने प्राचीन भारत के शासन की उत्कृष्ट व्यवस्था का वर्णन करते हुए कहा कि वर्तमान समाज को उससे प्रेरणा लेनी चाहिए। उन्होंने रामराज्य का उदाहरण देते हुए बताया कि सुशासन का मतलब केवल कानून लागू करना नहीं, बल्कि समाज में सामंजस्य और न्याय स्थापित करना है। उन्होंने कहा कि रामचरितमानस और महाभारत जैसे ग्रंथ सुशासन के आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। रामराज्य में हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करता था और समाज संतुलित था।

चंद्रप्रकाश द्विवेदी इतिहास और परंपरा तक अपनी चर्चा को सीमित नहीं रखा बल्कि उन्होंने वर्तमान समाज को उनके महत्व और उपयोगिता को समझने का भी आह्वान किया। उन्होंने कहा कि सुशासन केवल नियमों और कानूनों का पालन नहीं है, बल्कि यह समाज के हर व्यक्ति को जिम्मेदारी से जीने की प्रेरणा देता है। सुशासन तभी संभव है, जब हम अपने धर्म, कर्तव्य, और परंपराओं को समझें और उनका पालन करें।

उन्होंने अपने सत्र में अपने विचारों से यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय परंपराएं केवल अतीत की धरोहर नहीं हैं, बल्कि वे आज भी हमारे जीवन और समाज को दिशा देने में सक्षम हैं।

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