भारत में ऐसे कई महान् गणितज्ञ हुए हैं, जिन्होंने न केवल भारतीय गणित के चेहरे को बदलने में अपना अनमोल योगदान दिया बल्कि विश्वभर में अत्यधिक लोकप्रियता भी हासिल की। ऐसे ही भारतीय गणितज्ञों में शुमार श्रीनिवास अयंगर रामानुजन जैसे विश्वविख्यात गणितज्ञ को भला आज कौन नहीं जानता होगा, जिन्होंने भारत में गणित के विभिन्न सूत्रों, प्रमेयों और सिद्धांतों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
रामानुजन ने गणितीय विश्लेषण, अनंत श्रृंखला, संख्या सिद्धांत तथा निरंतर भिन्न अंशों के लिए आश्चर्यजनक योगदान दिया और अनेक समीकरण व सूत्र भी पेश किए। वे ऐसे विश्वविख्यात गणितज्ञ थे, जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों और विषय गणित की शाखाओं में अविस्मरणीय योगदान दिया और जिनके प्रयासों तथा योगदान ने गणित को एक नया अर्थ दिया। उनके द्वारा की गई खोज ‘रामानुजन थीटा’ तथा ‘रामानुजन प्राइम’ ने इस विषय पर आगे के शोध और विकास के लिए दुनियाभर के शोधकर्ताओं को प्रेरित किया।
तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने चेन्नई में 26 दिसम्बर 2011 को आयोजित श्रीनिवास रामानुजन की 125वीं जयंती समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर देश में योग्य गणितज्ञों की संख्या कम होने पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा था कि श्रीनिवास रामानुजन की असाधारण प्रतिभा ने पिछली सदी के दूसरे दशक में गणित की दुनिया को एक नया आयाम दिया। ऐसे प्रतिभावान तथा गूढ़ ज्ञान वाले पुरूषों और महिलाओं का जन्म कभी-कभार ही होता है। गणित में रामानुजन के अविस्मरणीय योगदान को याद रखने और सम्मान देने के लिए उनके जन्मदिन को प्रतिवर्ष ‘राष्ट्रीय गणित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से करीब चार सौ किलोमीटर दूर तमिलनाडु के ईरोड शहर में जन्मे श्रीनिवास अयंगर रामानुजन का बचपन कठिनाइयों और निर्धनता के दौर में बीता था। तीन वर्ष की आयु तक वह बोलना भी नहीं सीख पाए थे और तब परिवार के लोगों को चिंता होने लगी थी कि कहीं वह गूंगे न हों लेकिन कौन जानता था कि यही बालक गणित के क्षेत्र में इतना महान् कार्य करेगा कि सदियों तक दुनिया उन्हें आदर-सम्मान के साथ याद रखेगी।
उनका बचपन इतने अभावों में बीता कि वे स्कूल में किताबें अक्सर अपने मित्रों से मांगकर पढ़ा करते थे। उन्हें गणित में इतनी दिलचस्पी थी कि उन्हें इसमें प्रायः सौ फीसदी अंक ही मिलते थे लेकिन बाकी विषयों में बामुश्किल ही परीक्षा उत्तीर्ण कर पाते थे क्योंकि गणित के अलावा उनका मन दूसरे विषयों में लगता ही नहीं था। स्कूल में वे अध्यापकों से अक्सर काफी अटपटे से सवाल पूछा करते थे। जैसे, धरती और बादलों के बीच की दूरी कितनी है? विश्व में पहला पुरूष कौन था? 10 वर्ष की आयु में प्राथमिक परीक्षा में उन्होंने पूरे जिले में गणित में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर साबित कर दिया था कि गणित उनकी रग-रग में किस कदर रचा-बसा है।
रामानुजन को गणित का इतना शौक था कि 12 वर्ष की आयु में ही उन्होंने लोनी द्वारा लिखित ‘त्रिकोणमिति’ की प्रसिद्ध पुस्तक बगैर किसी भी मदद के हल कर त्रिकोणमिति में महारत हासिल कर ली थी और उसके बाद किसी की मदद के बिना अपने ही दिमाग से कई प्रमेय भी विकसित किए। उन्होंने कभी गणित में किसी तरह का प्रशिक्षण नहीं लिया था। स्कूली दिनों में उन्हें उनकी प्रतिभा के लिए अनेक योग्यता प्रमाणपत्र तथा अकादमिक पुरस्कार प्राप्त हुए। गणित में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1904 में के. रंगनाथ राव पुरस्कार भी दिया गया था।
कुंभकोणम के गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज में अध्ययन करने के लिए उन्हें छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया था किन्तु उनका गणित प्रेम इतना बढ़ गया था कि उन्होंने दूसरे विषयों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया था। दूसरे विषयों की कक्षाओं में भी वे गणित के ही प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि 11वीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों में अनुत्तीर्ण हो गए और इस कारण उन्हें मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद हो गई। उसके बाद निराश होकर वर्ष 1905 में वे घर छोड़कर भाग गए।
परिवार के सदस्य उन्हें जगह-जगह खोजकर जब बेहद परेशान हो गए तो उन्होंने चेन्नई के एक अंग्रेजी समाचारपत्र में सितम्बर 1905 में रामानुजन की गुमशुदगी के संबंध में सम्पादक के नाम एक पत्र लिखा, जिसे अखबार में छाप दिया गया। आखिरकार रामानुजन किसी तरह घर वापस लौट आए। करीब चार वर्ष बाद उन्हें चेन्नई के एक कॉलेज में दाखिला तो मिल गया लेकिन यहां भी वे गणित को छोड़कर बाकी सभी विषयों में अनुत्तीर्ण हो गए। अंततः उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी।
22 वर्ष की आयु में उनका विवाह वर्ष 1909 में मात्र 10 वर्षीया जानकी से हुआ। परिवार की आर्थिक हालत पहले से ही ठीक नहीं थी। इसलिए विवाहोपरांत परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके लिए नौकरी करना आवश्यक हो गया। इंडियन मैथेमेटिकल सोसायटी के उपाध्यक्ष गणितज्ञ रामास्वामी अय्यर की सिफारिश पर वे नैलोर के कलेक्टर आर रामचंद्र राव से मिले। कलेक्टर राव उनके लिए नौकरी की तो कोई व्यवस्था नहीं कर सके लेकिन उनको कुछ आर्थिक मदद अवश्य करने लगे।
स्वाभिमानी रामानुजन को यह स्वीकार नहीं था बल्कि वे सम्मान से जीवन यापन करने के लिए एक स्थायी नौकरी चाहते थे। इसलिए उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में गणित के प्रोफेसर ई डब्ल्यू मिडलमास्ट के एक सिफारिशी पत्र के साथ मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी के लिए आवेदन किया। आखिरकार उन्हें 30 रुपये मासिक वेतन पर वहां नौकरी मिल ही गई। नौकरी के दौरान भी वे समय मिलते ही खाली पन्नों पर गणित के प्रश्नों को हल करने लग जाया करते थे। गणित के क्षेत्र में सफलता उन्हें वास्तव में उसी दौर में मिली।
वर्ष 1913 में रामानुजन ने गणित के प्रति अपने ज्ञान एवं रूचि को आगे बढ़ाने के लिए यूरोपीय गणितज्ञों से सम्पर्क साधा। एक दिन एक ब्रिटिश की नजर उनके द्वारा हल किए गए गणित के प्रश्नों पर पड़ी तो वह उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुआ। उसी अंग्रेज के माध्यम से रामानुजन का सम्पर्क जाने-माने ब्रिटिश गणितज्ञ और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जी.एच. हार्डी से हुआ। उसी के बाद उनका हार्डी के साथ पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हुआ। हार्डी ने उनकी विलक्षण प्रतिभा को भांपकर 1914 में उन्हें अपनी प्रतिभा को साकार करने के लिए लंदन बुला लिया।
समुद्री जहाज से करीब एक माह लंबी यात्रा करके रामानुजन आखिरकार अप्रैल 1914 में इंग्लैंड पहुंच गए। वहां उनके लिए कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की गई, जिसके बाद देखते ही देखते उनकी ख्याति दुनियाभर में फैल गई। जी.एच. हार्डी ने रामानुजन को यूलर, गोस, आर्किमिडीज, आईजैक न्यूटन जैसे दिग्गजों के समकक्ष श्रेणी में रखा था। 1917 में उन्हें ‘लंदन मैथेमेटिकल सोसायटी’ का सदस्य चुना गया और अगले ही वर्ष 1918 में इंग्लैंड की प्रतिष्ठित संस्था ‘रॉयल सोसायटी’ ने उन्हें अपना फैलो बनाकर सम्मान दिया। वह उपलब्धि हासिल करने वाले रामानुजन सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे।
रामानुजन ने करीब पांच साल कैम्ब्रिज में बिताए और उस दौरान गणित से संबंधित कई शोधपत्र लिखे। इंग्लैंड में उन पांच वर्षों के दौरान उन्होंने मुख्यतः संख्या सिद्धांत के क्षेत्र में कार्य किया। प्रोफेसर जी एच हार्डी के साथ मिलकर रामानुजन ने कई शोधपत्र प्रकाशित किए और उन्हीं में से एक विशेष शोध के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने रामानुजन को बी.एस.सी. की उपाधि भी प्रदान की। महान् गणितज्ञ रामानुजन की गणना आधुनिक भारत के उन व्यक्तित्वों में की जाती है, जिन्होंने विश्व में नए ज्ञान को पाने और खोजने की पहल की।
रामानुजन को ‘गणितज्ञों का गणितज्ञ’ और संख्या सिद्धांत पर अद्भुत कार्य के लिए ‘संख्याओं का जादूगर’ भी कहा जाता है, जिन्होंने खुद से गणित सीखा और जीवनभर में गणित के 3884 प्रमेयों (थ्योरम्स) का संकलन किया, जिनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किए जा चुके हैं। उनके कई प्रमेय और सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें आज तक कोई हल नहीं कर सका है। गणित पर उनके लिखे लेख उस समय की सर्वोत्तम विज्ञान पत्रिका में प्रकाशित हुआ करते थे। गणित में की गई उनकी अद्भुत खोजें आज के आधुनिक गणित तथा विज्ञान की आधारशिला बनी।
लंदन की जलवायु और रहन-सहन की शैली रामानुजन के अनुकूल नहीं थी, जिससे धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य प्रभावित होने लगा। खराब खाने की आदतों के साथ वे अथक परिश्रम भी कर रहे थे, जिसके चलते उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और जांच के दौरान पता चला कि उन्हें टी.बी. की बीमारी हो गई है। उसके बाद वहां के डॉक्टरों की सलाह पर वे 13 मार्च 1919 को भारत लौट आए लेकिन यहां आने पर भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ बल्कि उनकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई। अंततः 26 अप्रैल 1920 को महज 32 वर्ष की अल्पायु में ही इस विलक्षण प्रतिभा ने कुंभकोणम में अंतिम सांस लेते हुए दुनिया को अलविदा कह दिया। रामानुजन की पत्नी जानकी का निधन 94 वर्ष की आयु में 13 अप्रैल 1994 को हुआ था।
भारत सहित विदेशों में भी रामानुजन के जीवन और व्यक्तित्व पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 1991 में रॉबर्ट काइनिजेल ने ‘द मैन हू न्यू इनफिनिटी’ नामक उनकी जीवनी लिखी और ब्रिटेन में वर्ष 2016 में इसी जीवनी पर आधारित एक फिल्म भी इसी नाम से बनाई गई। वर्ष 2007 में रामानुजन के महान् व्यक्तित्व पर एक उपन्यास ‘द इंडियन क्लर्क’ भी अमेरिका में प्रकाशित हुआ। वर्ष 2017 में भारतीय मूल के प्रोफेसर वी एस वरदराजन तथा उनकी पत्नी ने लॉस एंजिल्स की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी को दस लाख डॉलर दान देकर रामानुजन के सम्मान में ‘रामानुजन विजिटिंग प्रोफेसरशिप’ की स्थापना की। रामानुजन के निधन के पश्चात् उनकी 5000 से अधिक प्रमेयों को छपवाया गया, जिनमें से अधिकांश को कई दशकों बाद तक भी सुलझाया नहीं जा सका था। मद्रास विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उनकी हस्तलिखित पाण्डुलिपि आज भी तीन खण्डों में सुरक्षित रखी है।
(लेखक साढ़े तीन दशक से पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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