लोकसभा चुनाव के नतीजों को निकले सात महीने भी नहीं हुए हैं कि नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अपने साथियों के सवालों से घिरते दिख रहे हैं। वे आई.एन.डी.आई. अलायंस यानी ‘इंडी’ गठबंधन का भरोसा खोते नजर आ रहे हैं। उनकी क्षमता और समझदारी पर सवाल उठ रहे हैं। वैसे तो ऐसे सवालों का सिलसिला हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के बाद ही शुरू हो गया था। पर, महाराष्ट्र और झारखंड के नतीजों के बाद उनकी एवं कांग्रेस की नीति, नीयत और नेतृत्व सार्वजनिक रूप से साथियों के निशाने पर है।
राहुल को लेकर गठबंधन के साथियों की बेचैनी का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने राहुल की क्षमता और समझ पर संकेतों में ही हमला बोला था, लेकिन गठबंधन की अन्य पार्टियां खुलकर निशाना साधने लगीं। ‘इंडी’ गठबंधन का आगे क्या होगा, इस पर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस को या तो नेतृत्व छोड़ना होगा अथवा वह विपक्ष में अलग-थलग दिखेगी।
गत 4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से उनके भी सुर बदल गए हैं जो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के अपने दम पर बहुमत हासिल न कर पाने का श्रेय राहुल को दे रहे थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक साक्षात्कार में राहुल का नाम लिए बगैर ज्यों ही यह कहा, ‘अगर कोई ‘इंडी’ गठबंधन का नेतृत्व ठीक से नहीं कर पा रहा है तो वे नेतृत्व के लिए तैयार हैं।’ ममता के समर्थन में एक के बाद एक सुर सार्वजनिक होने लगे। जिस परिस्थिति में और जिस समय ममता का यह बयान आया है, उससे यह समझा जा सकता है कि यह सब अचानक नहीं हुआ है। इसके पीछे ममता ही नहीं, गठबंधन के कुछ अन्य दलों के नेताओं की रणनीति है।
संयोग या सियासी योग
ममता ने इस तरह का बयान हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद संसद के सत्र के दौरान दिया। बयान तब दिया जब उनकी पार्टी के सांसद अडाणी मुद्दे पर संसद में चर्चा की मांग को लेकर अड़ी कांग्रेस के रवैये पर नाराजगी जता रहे थे। तृणमूल कांग्रेस सांसद कल्याण बनर्जी कांग्रेस पर निजी स्वार्थ में विपक्ष के अन्य दलों के राजनीतिक हितों की अनदेखी का आरोप लगा रहे थे और पश्चिम बंगाल, मणिपुर सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सदन में चर्चा न हो पाने को लेकर राहुल और कांग्रेस को दोषी ठहरा रहे थे।
तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य डेरक ओ ब्रायन कह रहे थे कि वे ‘इंडी’ गठबंधन की बैठक में जाकर क्या करें क्योंकि वहां सिर्फ अडाणी ही मुद्दा है। ऐसा लगता है कि ममता का उद्देश्य संसद सत्र के दौरान लोकसभा में बतौर नेता प्रतिपक्ष राहुल को गठबंधन के दूसरे दलों के हितों की अनदेखी के लिए कठघरे में खड़ा कर इस बात की थाह भी लेना था कि दूसरे दल इस बाबत क्या सोचते हैं।
समर्थन का संदेश
ऐसा ममता ने शायद इसलिए भी किया ताकि गठबंधन टूटे तो भी उसके दोष को उनके सिर न आकर कांग्रेस और राहुल गांधी पर ही मढ़ दिया जाए। तभी तो ममता ने जो कुछ संकेत में कहा था, उन्हीं की पार्टी के सांसद कीर्ति आजाद ने उसे खुलकर कहते हुए ‘इंडी’ गठबंधन के नेतृत्व पर अपनी नेता का दावा ठोक दिया जिसके समर्थन में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार से लेकर तमाम नेता उतर गए। उनकी पुत्री सुप्रिया सूले भी खुलकर ममता के समर्थन में आ गईं। समाजवादी पार्टी तो और आगे बढ़ गई। पार्टी के प्रमुख राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने कह दिया कि राहुल गांधी इंडी गठबंधन के नेता ही नहीं हैं।
राहुल की समझ बनी संकट
प्रश्न पैदा होता है कि ममता ने यह पहल क्यों की? तकनीकी रूप से तो ‘इंडी’ गठबंधन के अध्यक्ष कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। फिर निशाने पर राहुल क्यों? दूसरे प्रश्न का उत्तर पहले और पहले का उसके बाद। भले ही तकनीकी रूप से राहुल गठबंधन के अध्यक्ष न हों लेकिन सीटों के लिहाज से विपक्ष में सबसे बड़े दल के नेता के नाते वे नेता प्रतिपक्ष हैं। चूंकि ‘इंडी’ गठबंधन में कांग्रेस भी है इसलिए नेता प्रतिपक्ष के नाते यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे गठबंधन के साथियों को साथ लेकर चलें।
सत्तापक्ष के विरुद्ध विपक्ष के सभी दलों के प्रतिनिधियों के बीच समन्वय बनाते हुए एवं उनके मुद्दों को सदन में मजबूती से उठाने का पर्याप्त मौका दिलाना उनकी जिम्मेदारी है जिसमें वह सफल नहीं दिख रहे हैं। इसका बड़ा कारण राहुल की समझ और उनके करीबियों का रवैया है। उनके करीबियों के रवैये ने कांग्रेस के भीतर ही एक बड़ा असंतुष्ट धड़ा बना दिया, जिसमें से गुलाम नबी आजाद जैसे कई नेताओं को बाहर जाना पड़ा है। ऐसे में गैर कांग्रेसी दलों या ममता जैसे कांग्रेस छोड़कर अपना दल बनाने वाले नेताओं से राहुल के मधुर रिश्तों की कल्पना ही बेकार है। दूसरे राजनीति में उसी मुद्दे का महत्व होता है जिसे उठाने से कोई राजनीतिक लाभ मिले।
वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र भट्ट कहते हैं कि राहुल का उद्योगपति अडाणी पर निशाना साधना ‘इंडी’ गठबंधन के दलों में अब एक उकताहट पैदा करने लगा है। राहुल एक छोटी सी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि गठबंधन के दलों में कुछ किसी न किसी राज्य में सरकार में हैं। हर राज्य सरकार को अपने राज्य के लोगों की बेहतरी के लिए उद्योग-धंधे चाहिए जिससे रोजगार के वैकल्पिक साधन बनें और युवाओं की सरकार पर निर्भरता कम से कम रहे। शरद पवार जैसे नेता सरकार में भले नहीं हैं लेकिन उनकी राजनीति और पृष्ठभूमि उन्हें उद्योगों के विरोध की इजाजत नहीं देती। ऐसे में ये सभी दल अडाणी मुद्दे पर राहुल का एक सीमा से ज्यादा साथ दे ही नहीं सकते।
नहीं हुआ कोई सुधार
राहुल के नेतृत्व को लेकर अचानक और पहली बार सवाल नहीं उठे हैं। उनके नेतृत्व, क्षमता और समझ को लेकर सवाल काफी पहले से उठते रहे हैं। बाहर से ही नहीं बल्कि कांग्रेस के भीतर से भी। कई बार इसको लेकर कांग्रेस के भीतर से लिखी गई चिट्ठियां सार्वजनिक हो चुकी है। ऐसे नेताओं की लंबी सूची है जिन्हें राहुल की क्षमता पर सवाल उठाने के कारण कांग्रेस से बाहर होना पड़ा है।
जहां तक ‘इंडी’ गठबंधन की बात है तो इसके गठन के समय ही राहुल के नेतृत्व को स्वीकार करने पर असहमति दिखी थी। उन्होंने उस समय भी कोई सीख लेने की जरूरत नहीं समझी जब लोकसभा चुनाव के दौरान ही ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में, आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल में इस गठबंधन से बाहर रहकर चुनाव लड़ा। पर वे अपने फैसलों पर ही चलते रहे।
विधानसभा चुनाव ने दिया मौका
हरियाणा व जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों से शुरू हुई कांग्रेस की फजीहत जब महाराष्ट्र में उसकी दुर्दशा और झारखंड में भी कुछ चमत्कार न कर पाने के रूप में सामने आई तो गठबंधन के नेताओं को कांग्रेस और राहुल पर हमला करने का मौका मिल गया।
पहले हरियाणा में भाजपा की तीसरी और अब तक की सबसे बड़ी जीत की वजह सपा और आम आदमी पार्टी की सीटों की मांग पर कांग्रेस की अनदेखी बताई गई। साथ ही राहुल के भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को पूरी बागडोर सौंपने एवं पार्टी के दूसरे नेताओं की अनदेखी करने की आवाजें उठीं। राज्यों के चुनाव में संविधान की रक्षा और जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे उठाने की राहुल जिद को लेकर भी सवाल उठे। महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनाव में भी जब कांग्रेस अपना प्रदर्शन सुधारती नहीं दिखी तो ये मुद्दे मुखर हो गए।
महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों में महाविकास अघाड़ी के साथी दलों में सबसे ज्यादा 108 सीटों पर लड़ने के बाद वह सिर्फ 16 सीटें ही जीत पाई। भाजपा से सीधे मुकाबले वाली लगभग 70 सीटों में वह ज्यादातर पर बुरी तरह हारी। झारखंड में भी उसका प्रदर्शन बहुत प्रभावी नहीं रहा। इसने इंडी गठबंधन के दलों को शायद यह समझा दिया कि कांग्रेस की जमीनी स्थिति सुधरी नहीं है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली सीटें उनके हिस्से की थीं।
वोट बचाने की चिंता
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. ए.पी. तिवारी कहते भी हैं कि जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की हिंदू बहुल इलाकों में बुरी हार और जीतने वाले सभी छह उम्मीदवारों का मुसलमान होना यह संकेत देने के लिए पर्याप्त था कि कांग्रेस के पास हिंदू वोट नहीं बचा है। उसे मिलने वाला वोट मुस्लिम है, जो कांग्रेस को सिर्फ इसलिए मिला क्योंकि अलग-अलग राज्यों में वह भाजपा के विपक्षी क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर लड़ रही थी। वे समझ गए कि कांग्रेस को मिला वोट उनके ही हिस्से का है।
संभवत: इसीलिए उत्तर प्रदेश में विधानसभा की नौ सीटों के उपचुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस को अलीगढ़ की खैर तथा गाजियाबाद सीट के अलावा कोई अन्य सीट देने को तैयार नहीं हुए। हां, यह बात दीगर है कि वे सिर्फ दो सीटें ही जीत पाए। महाराष्ट्र और झारखंड में भी कांग्रेस को मिली सीटों में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका ने ‘इंडी’ गठबंधन के कई दलों को कांग्रेस से पीछा छुड़ाने का संदेश दे दिया।
ऊपर से संविधान और आरक्षण बचाओ को कोल्हापुर तथा नागपुर जैसे उन इलाकों में, जहां राहुल गांधी ने पूरी ताकत से चुनावी रैलियां की थीं, हार ने रही-सही पोल भी खोल दी। प्रो. तिवारी का तर्क ठीक दिखता है। जिस तरह से कांग्रेस और राहुल को घेरा जा रहा है उससे साफ है कि ‘इंडी’ गठबंधन के ज्यादातर घटक दलों को अपना वोट बैंक बचाने की चिंता ने इस तरह के सवाल उठाने की पृष्ठभूमि तैयार की है।
अस्तित्व की चिंता
ध्यान रखने वाली बात यह है कि ‘इंडी’ गठबंधन में शामिल ममता बनर्जी, शरद पवार जैसे नेता जहां कांग्रेस की रीतिनीति के विरोध में ही नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल उठाकर अलग हुए हैं, वहीं राजद, सपा, शिवसेना (उद्धव) और आआपा जैसे दलों का उदय कांग्रेस की राजनीति के विरुद्ध ही हुआ है। आगे कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। भाजपा से सीधे मुकाबले में कांग्रेस पिट ही रही है। वह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम वोटों में ही सेंधमारी करती नजर आ रही है, उसे देखते हुए इन सभी को लगता है कि कांग्रेस का साथ उनके लिए घाटे का सौदा न साबित हो।
कांग्रेस की तरफ से वक्फ कानून में संशोधन के विरोध एवं पूजास्थल कानून के बचाव को लेकर अभियान ने भी ‘इंडी’ गठबंधन के कई नेताओं को यह संदेश दे दिया है कि कांग्रेस की नजर मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने की है। इसलिए वे कांग्रेस को अपने-अपने इलाकों में विस्तार का मौका नहीं देना चाहते क्योंकि उनकी ताकत का प्रमुख आधार मुस्लिम वोट ही हैं। उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस के साथ रहने से उन्हें उन हिंदू मतों का भी संकट हो सकता है जो अभी जाति या अन्य किसी कारण उन्हें मिल जाते हैं।
कांग्रेस, खासतौर से राहुल एवं सोनिया गांधी के साथ जार्ज सोरोस जैसे व्यक्ति के रिश्तों पर भाजपा के खुलासे को दिख रहे समर्थन ने भी शायद गठबंधन के दलों को आगाह किया है। कारण, वे मुस्लिम वोट तो चाहते हैं लेकिन हिंदू विरोधी भी नहीं दिखना चाहते हैं। इसके अलावा कांग्रेस के साथ खड़े दिखकर वह देश विरोधी वामपंथी ताकतों से मिले होने के आरोप भी अपने ऊपर नहीं लेना चाहते हैं।
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