भारत, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में अपनी सांस्कृतिक विविधता, युवा आबादी और संसाधनों के प्रबंधन में अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में घटती प्रजनन दर और घुसपैठियों की बढ़ती संख्या ने भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने के सामने नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। इसमें दो राय नहीं कि इन मुद्दों का असर न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना पर पड़ेगा, बल्कि ये लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों और स्थिरता को भी प्रभावित करेंगे।
इस मुद्दे को बहुधा संघ, भाजपा और कथित संकीर्ण सोच से जोड़ा जाता है किंतु वास्तविकता यह है कि यह विषय देश की पहचान और रणनीतिक भविष्य से जुड़ा है। केवल ‘कुर्सी’ तक देख सकने के निकट दृष्टि-दोष से ग्रस्त राजनीतिक दल जनसंख्या असंतुलन पर चर्चा से भागते हैं और कानूनी पहलों का विरोध करते हैं।
यह लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है कि हर नागरिक को अपनी आवाज उठाने का समान अधिकार मिले। लेकिन जब किसी देश की मूल जनसंख्या घटती है और घुसपैठियों की संख्या बढ़ती है तो इससे चुनावी संरचना और प्रतिनिधित्व असंतुलित हो सकता है। देश के विभिन्न राज्यों में अब ऐसी स्थितियां उभरने लगी हैं। भारत के सीमावर्ती राज्यों, जैसे असम और पश्चिम बंगाल में यह समस्या बहुत समय से दिख रही है। घुसपैठियों की बढ़ती संख्या ने मतदाता सूची में बदलाव किए हैं, जिससे स्थानीय समुदायों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व घट गया है। इससे न केवल उनके अधिकारों का ह्रास हुआ है, बल्कि इससे लोकतंत्र में भरोसा भी घटता है।
2001 में शोधकर्ता आर्विंग होरोविट्ज ने जनसांख्यिक परिवर्तनों और उनके राजनीतिक परिणामों पर अध्ययन में पाया कि एक समुदाय की आबादी कम होने और दूसरे की बढ़ने से राजनीतिक ध्रुवीकरण और बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक संघर्ष बढ़ते हैं। स्मरण रहे, लोकतंत्र केवल चुनाव और सरकार तक सीमित नहीं होता; यह एक साझा सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान पर भी आधारित होता है। घुसपैठियों की बढ़ती संख्या मूल नागरिकों की सांस्कृतिक पहचान, परंपराओं और सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर सकती है।
‘सभ्यताओं के संघर्ष’ का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले सैमुअल हंटिंग्टन (2004) ने अपनी पुस्तक ‘हू आर वी?’ में लिखा है कि किसी देश में सांस्कृतिक विविधता का संतुलन बिगड़ने पर सामाजिक-राजनीतिक अस्थिरता पैदा होती है।
पूर्वोत्तर भारत और सीमावर्ती राज्यों में घुसपैठियों के कारण सांस्कृतिक पहचान पर दबाव बढ़ रहा है। स्थानीय भाषाओं, परंपराओं, और सामाजिक संरचनाओं को कमजोर होते हुए देखा गया है। इससे न केवल सामाजिक तनाव पैदा होता है, बल्कि सांप्रदायिक संघर्ष भी बढ़ाते है।, जिससे लोकतंत्र की स्थिरता पर नकारात्मक असर पड़ता है।
घुसपैठियों की संख्या बढ़ने से संसाधनों के समान वितरण की समस्या भी उत्पन्न होती है, इससे महंगाई, कालाबाजारी और समाज के एक वर्ग में नकारात्मक भाव बढ़ता है। सीमित संसाधनों, जैसे-स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर दबाव बढ़ता है। इसके साथ दोहरा खतरा यह है कि अपनी जड़ों और सांस्कृतिक पहचान से जुड़े मूल निवासियों की घटती प्रजनन दर के कारण भविष्य में कार्यबल और उत्पादकता में कमी आ सकती है, जिससे इन संघर्षों की तीव्रता बढ़ सकती है। इस सन्दर्भ में रॉबर्ट पुटनैम (2007) का शोध Diversity and Community Trust देखने योग्य है। इसने दिखाया कि जनसांख्यिक असंतुलन सामाजिक विश्वास और संसाधनों के समान वितरण पर गहरा असर डालता है।
भारत के सीमावर्ती राज्यों पर दृष्टि डालें तो वहां बढ़ती जनसंख्या ने शिक्षा और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचों पर दबाव डाला हुआ है। कई क्षेत्रों में मूल नागरिकों को इनसे वंचित रहना पड़ा है, क्योंकि संसाधनों का अधिक हिस्सा घुसपैठियों को आवंटित हो रहा है। इससे न केवल सामाजिक असंतोष बढ़ता है, बल्कि लोकतांत्रिक नीतियों में असंतुलन भी आता है।
कहना होगा कि बहुसंख्यक समुदाय की घटती प्रजनन दर और घुसपैठियों की बढ़ती संख्या से भारत का लोकतंत्र एक कठिन मोड़ पर खड़ा है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। इसके लिए
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जनसांख्यिक डेटा का प्रभावी उपयोग करते हुए वैज्ञानिक और पारदर्शी डेटा के आधार पर जनसंख्या और संसाधन प्रबंधन की रणनीतियां बनानी चाहिए।
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सांस्कृतिक विविधता का संरक्षण करते हुए स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान को संरक्षित रखने के लिए कन्वर्जन और घुसपैठरोधी विशेष नीतियां लागू की जानी चाहिए।
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सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए सुरक्षा उपायों को और मजबूत किया जाना चाहिए।
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स्थानीय समुदायों के सशक्तिकरण, भारत के मूल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में निवेश को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था उसकी विविधता और सांस्कृतिक समृद्धि पर आधारित है। लेकिन घटती प्रजनन दर और बढ़ते घुसपैठियों के कारण यह व्यवस्था कठिन दौर से गुजर रही है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक समग्र और संतुलित दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के ताजा कथन में यही दूरदर्शिता और संवेदनशीलता निहित है। इस विषय को इसी संदर्भ और समग्रता के साथ देखने पर राष्ट्र के रूप में हमारी चिंताएं और उनका निदान स्पष्ट हो सकेगा।
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