1941 में जमाते-इस्लामी बनाई गई थी। बब्दुल आला मौदूदी ने हैदराबाद में इसकी शुरुआत की थी। तब भी इसका मकसद भारत में इस्लामी कायदों पर चलने वाला राज कायम करना था। वक्त बीतने के साथ जमाते इस्लामी राजनीतिक में घुसपैठ कर गई। 1947 में बंटवारे के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में अपना गढ़ जमाना शुरू कर दिया। और जैसा पहले बताया, 1971 के मुक्ति संग्राम में इसी जमाते इस्लामी ने बांग्ला राष्ट्रभाव की जमकर खिलाफत की थी। एक मुस्लिम मुल्क बनाने की पैरवी की थी। इसका पूरा झुकाव पश्चिमी पाकिस्तान के मजहबी आकाओं की तरफ था।
भारत के पड़ोसी इस्लामी मुल्क बांग्लादेश में 5 अगस्त 2024 के बाद से, आज जिस तरह के हालात दिख रहे हैं उसमें बेशक, वहां की कट्टर मजहबी जमात जमामे-इस्लामी का एक बहुत बड़ा हाथ है। जमात का एकमात्र मकसद बांग्लादेश को एक बार फिर से शरियत तले लाकर पाषाण युग में पहुंचाना दिखता है। इसी जमात और पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की बीएनपी पार्टी ने किसी ‘तीसरी ताकत’ के साथ मिलकर आज उस देश को गर्त में पहुंचाने की ठानी हुई है। इसमें हिन्दुओं का कत्लेआम और उनका नस्लीय परिमार्जन ‘मजहब का फरमान’ मानकर अंजाम दिया जा रहा है।
यही जमाते इस्लामी 1971 के मुक्ति संग्राम में सबसे बड़ी खलनायक पाई गई थी। उस काल में भी इसने हिन्दुओं और राष्ट्रभक्त पूर्वी पाकिस्तानियों का कत्लेआम मचाया था। परोक्ष रूप से तब भी जमात पाकिस्तान के मुल्लाओं की सरकार के साथ खड़ी थी और बांग्लादेश निर्माण के प्रयासों का विरोध कर रही थी। अपने इसी एजेंडे पर चलते हुए इसी ने लाखों लोगों की जान ली थी।
लेकिन आज अगर इसका नेता कहे कि यदि 1971 में इस जमात के किए काम गलत साबित होते हैं तो संगठन सार्वजनिक रूप से माफी मांगेगा। अपनी बात के साथ उस नेता यानी शफीकुर्रहमान ने अपनी बात के साथ ‘यदि’ शब्द लगाकर अपनी मंशा साफ कर दी है कि उसे नहीं लगता उसके संगठन ने तब और अब भी कोई ‘गलत काम’ किया है। लेकिन बांग्लादेश के आज हालात में जमाते इस्लामी अपने लिए एक खास जगह देख रही है, वह कुलबुला रही है सत्ता की हिस्सेदारी करने के लिए, उस देश में तालिबानी तर्ज का राज कायम करने के लिए।
जमाते-इस्लामी का प्रमुख नेता शफीकुर्रहमान ने बीते दिन कहा कि यदि 1971 में हुए मुक्ति संग्राम में उनके संगठन की ओर से जो भी कार्रवाई की गई वह गलत ठहरती है तो संगठन माफी मांगने को तैयार है। शफीकुर्रहमान को शायद अपने देश के इतिहास और 1971 में वहां जो कुछ घटा, और उस सबमें अपने कट्टरपंथी संगठन की करतूतें भूल चुकी हैं।
5 अगस्त 2024 को जिस शेख हसीना को तख्तापलट करके प्रधानमंत्री की कुर्सी से हटने को मजबूर किया गया उनकी सरकार ने जमाते इस्लामी के कई नेताओं पर युद्ध अपराध के मुकदमे चलाए थे और कुख्यात मुल्लाओं को फांसी या उम्रकैद दी गई थी। अनेक गंभीर आरोपों में जेल में बंद किए गए थे। हालांकि यूनुस सरकार के आने के बाद सब के सब थोक के भाव छोड़ दिए गए। इनमें अनेक कुख्यात जिहादी तत्व भी हैं।
लेकिन राजनीति में घुसपैठ करने को बेताब जमाते-इस्लामी मासूमियत भरे अंदाज में ‘माफी मांगने’ की बात कर रही है तो इसके पीछे के गहरे मायने समझने जरूरी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया से सारे केस हटा लिए गए हैं, लंदन में बसे उनके पुत्र से सारे केस हटा लिए गए हैं। जनवरी 2024 के आम चुनावों का बहिष्कार करने वाले दोनों दलों, बीएनपी और जमात ने खुद को चुनाव से दूर रखा था, क्योंकि दोनों जानते थे कि बांग्लादेश की विकास को तरसती जनता उनकी काली करतूतें जानती है और उनके चुनाव में बुरी तरह पिटने के साफ आसार हैं।
1941 में जमाते-इस्लामी बनाई गई थी। अब्दुल आला मौदूदी ने हैदराबाद में इसकी शुरुआत की थी। तब भी इसका मकसद भारत में इस्लामी कायदों पर चलने वाला राज कायम करना था। वक्त बीतने के साथ जमाते इस्लामी राजनीतिक में घुसपैठ कर गई। 1947 में बंटवारे के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में अपना गढ़ जमाना शुरू कर दिया। और जैसा पहले बताया, 1971 के मुक्ति संग्राम में इसी जमाते इस्लामी ने बांग्ला राष्ट्रभाव की जमकर खिलाफत की थी। एक मुस्लिम मुल्क बनाने की पैरवी की थी। इसका पूरा झुकाव पश्चिमी पाकिस्तान के मजहबी आकाओं की तरफ था।
इसी जमात ने तब पश्चिमी पाकिस्तान के आकाओं के हुक्म पर मुक्ति बाहिनी के हजारों लड़ाकों को मारा, हिन्दुओं के लाखों परिवार उजाड़े, महिलाओं का बलात्कार कर काट डाला। पाकिस्तानी सेना के इशारे पर वहां रहकर मुक्ति संग्राम को कुचलने की कोशिश की। इसी जमात ने तब ‘रजाकार’ अर्धसैनिक टुकड़ी बनाई, जिसने कत्लों की झड़ी लगा दी। पूर्वी बंगाल के राष्ट्रभक्तों को चुन—चुनकर काट डाला।
एक आकलन के अनुसार इस पशुता के चलते 30 लाख से अधिक लोगों का कत्ल किया गया। जमाते इस्लामी के इन काले कारनामों को कौन नहीं जानता! तिस पर शफीकुर्रहमान की हिमाकत यह कि कहे ‘यदि काम गलत साबित हुए’ तो माफी मांगेंगे। जमात की छात्र इकाई ही थी जिसने रजाकार-अल-शम्स तथा अल-बद्र के साथी गुटों की बुनियाद रखी थी। जमाते इस्लामी के पाप इतने हैं कि गिनाए नहीं जा सकते। इसलिए शफीर्रहमान बड़ी धूर्तता के साथ आज अपना जो चेहरा दिखा रहा है, उस पर 1971 की इतनी गहरी कालिख लगी है कि जो किसी माफी से नहीं धुल पाएगी।
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