सामाजिक जीवन के प्रारंभ से लेकर अब तक यानी मंच तक आने तक काफी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। अब स्थिति ऐसी है कि खुद जागते रहना है और जगाते भी रहना है। भारत का इतिहास उठाकर देखें तो हजारों वर्षों से भारत की बौद्धिक क्षमता, ऐश्वर्य, विकास, ज्ञान, विज्ञान भारत के सांस्कृतिक उत्कर्ष, भारत की चिकित्सा पद्धतियों के उन्नयन के चलते भारत हजारों हजार साल से आकर्षण का केन्द्र रहा है।
इस कालखंड में भारत को जानने, पहचानने, उत्कर्ष को देखने के लिए आने वाले लोगों के पदचिन्ह इतिहास की पुस्तकों में हमें दिखाई देते हैं। इस उत्कर्ष की कीमत भी हमें चुकानी पड़ी। एक स्वभाविक डाह के कारण हमारे ज्ञान और विज्ञान को नष्ट कर अपनी मान्यताओं को थोपने के दृष्टिकोण से अनगिनत बार हम पर हमले किए गए। इसके बाद भी भारत की महान सनातन संस्कृति बची रही। इसका एकमात्र कारण वे लोग हैं जिन्होंने भारत के लोकमानस को निरंतर धर्म से जोड़े रखा।
हमारे धर्म को सिंचित कर भगवा वेश धारण करके जिन लोगों ने अपना जीवन समर्पित किया वे आज भी संत समाज के तौर पर हमारे बीच मौजूद हैं। सैकड़ों साल की गुलामी के बाद जब आजादी मिली तो उसके बाद हमारे पास बदलाव के लिए स्वर्णिम अवसर था लेकिन दुर्भाग्य से अंग्रेजियत की मानसिकता से भरे हुए नेतृत्व के कारण ऐसा होने में काफी विलंभ हुआ। इस देश में सनातन संस्कृति को बचाए रखने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का बहुत बड़ा योगदान है।
चुनौती कितनी भी बड़ी क्यों न हो, उस चुनौती को हराने का संकल्प यदि समाज अपने कंधों पर ले ले तो वह चुनौती बहुत सहजता के साथ पराजित की जा सकती है। मैं इस अनुष्ठान में, इस यज्ञ निर्माण में लगे सभी लोगों का अभिनंदन करता हूं। यह सहज संयोग नहीं ये ईश्वर प्रदत्त शायद कोई रचना है।
जब 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई तब परम पूजनीय डॉ. हेडगेवार जी ने कहा था कि जातीयता, सांप्रदायिकता और बाहरी संस्कृति के आशय से बनाए गए प्रभावों ने भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने बाने को जिस तरह से तोड़ा है इसका समाधान केवल संगठित और अनुशासित समाज की ताकत से ही किया जा सकता है।
संघ की इस 100 वर्ष की यात्रा के प्रतिफल की गूंज आज विश्व में सुनाई दे रही है। इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से इस लोकमंथन की परिकल्पना बहुत बड़ी भूमिका निर्वहन करने वाली होगी। प्रज्ञा प्रवाह ने जिस तरह से भारतीय चेतना की प्रगति को भारतीय समाज की जड़ चेतना को जोड़ने का काम किया है वह अद्भुत है।
हमारी आपसी कमजोरी के कारण कुछ कालखंड में जो क्षरण हुआ उसको वापस करने का संकल्प प्रज्ञा प्रवाह ने लिया है। वह निश्चित रूप से अभिनंदन के योग्य हैं। हमारे यहां जो ऋषि गण देते हैं उन्हें देवतास्वरूप पूजने का विधान है। माता-पिता, पृथ्वी, जल, वृक्षों, पहाड़ों, गोमाता जहां भी हम कल्पना कर सकते हैं वहां सब को पूजन का विधान है।
जहां सूत्र का बंधन नहीं किया जा सकता वहां परिक्रमाओं का विधान क्या है? कालांतर में जिस तरह से हम धार्मिक मान्यताओं से परे होते गए, उसके चलते व्यवस्थाएं क्षीण हुईं। पहले जैसे पीढ़ी दर पीढ़ी हमारी संस्कृति, हमारे विचारों का हस्तांतरण होता था उसमें कमी आई। इस क्षरण की पूर्ति के लिए इस तरह के लोकमंथन जैसे कार्यक्रमों का होना नितांत आवश्यक है।
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