भारत की समृद्ध संस्कृति, परंपरा को एकता के सूत्र में बांधने का यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है। प्रज्ञा प्रवाह के इस आयोजन में सहयोग करने वाले सभी संगठनों की मैं प्रशंसा करती हूं। भारत की सांस्कृतिक, बौद्धिक विरासत को गहराई से समझना और लोकपरम्पराओं को निरंतर मजबूत बनाना सभी देशवासियों का कर्तव्य है। मुझे बहुत खुशी है कि आप सभी इस आयोजन के माध्यम से सांस्कृतिक भावना को प्रबल करने का प्रयास कर रहे हैं। यह संगोष्ठी राष्ट्र को सर्वप्रथम मानती है और ऐसा मानने वाले निष्ठावान लोगों को एक प्रभावी मंच प्रदान करती है।
जब हम भारत की संस्कृति की विविधता में एकता की बात करते हैं तो एकता का भाव ही मुख्य भाव होता है। विविधता हमारी मूलभूत एकता को इन्द्रधनुषीय सौन्दर्य प्रदान करती है। हम चाहे वनवासी हों, ग्रामवासी हों या नगरवासी हों, सबसे पहले हम भारतवासी हैं। इस राष्ट्रीय एकता की भावना ने हम सभी को विविध चुनौतियों के बावजूद भी एकसूत्र में जोड़कर रखा है। सदियों से हमारे समाज को हर प्रकार से बांटने व कब्जा करने का प्रयास किया गया है। हमारी सहज एकता को खंडित करने के लिए कृत्रिम भेदभाव पैदा किया गया लेकिन भारतीयता की भावना से ओत-प्रोत देशवासियों ने राष्ट्रीय एकता की मशाल आज तक जलाए रखी है।
प्राचीनकाल से ही भारत की विचारधारा का प्रभाव दूर-दूर तक फैला हुआ है। यह प्रभाव आज भी उन देशों की सांस्कृतिक व धार्मिक परम्परा में देखा जा सकता है। भारत की संस्कृति के इस विशाल प्रभाव क्षेत्र को कुछ लोग इंडोस्फियर का नाम देते हैं। इंडोस्पेयर यानी विश्व का ऐसा क्षेत्र जहां भारत के जीवनमूल्यों तथा संस्कृति का प्रभुत्व था और आज भी दिखाई देता है। भारत की धार्मिक मान्यताओं, कला, संगीत, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा पद्धत्ति, भाषा व साहित्य को दुनिया भर में सराहा जाता है। सबसे पहले भारतीय दर्शन पद्धत्तियों ने ही आदर्श जीवन मूल्यों का उपहार विश्व समुदाय को दिया था।
अपने पूर्वजों की इस गौरवशाली परंपरा को और मजबूत बनाना हमारा दायित्व है। यह भी प्रसन्नता का विषय है कि कई राज्यों के शिल्पकार इस आयोजन के दौरान अपनी कला का प्रदर्शन करेंगे। इसी वर्ष में मुझे भारतीय कला महोत्सव में भाग लेने का अवसर मिला था। भारतीय कलाकार राष्ट्रीय विरासत को सुंदर स्वरूप प्रदान करते हैं।
सदियों तक विदेशी ताकतों ने भारत पर शासन किया। उन साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी शक्तियों ने भारत का आर्थिक दोहन तो किया ही है, हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया है। हमारी समस्त बौद्धिक परंपरा के प्रति हेय दृष्टि रखने वाले शासकों ने हमारे देशवासियों में संस्कृति के प्रति हीनभावना का संचार किया। हम पर ऐसी परंपरा को थोपा गया जो हमारी एकता के लिए उचित नहीं थी। सदियों की पराधीनता के कारण हमारे देशवासी गुलामी की मानसिकता का शिकार हो गए हैं।
भारत को पुन: श्रेष्ठतम राष्ट्र बनाने के लिए देशवासियों की मानसिकता को एकता व श्रेष्ठता के सूत्र में पिरोने का कार्य करना हम लोगों का कर्तव्य है। मेरे विचार से एक विकसित राष्ट्र के निर्माण के लिए सभी देशवासियों में राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की भावना का संचार करना अनिवार्य है। लोकमंथन द्वारा इस भावना का संचार किया जा रहा है, यह विकसित भारत के निर्माण की दिशा में अत्यंत सराहनीय कदम है।
19वीं सदी के कानूनों को हटा कर भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय न्याय संहिता तथा भारतीय साक्ष्य अधिनियम लागू किया गया है। दिल्ली में राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्यपथ और राष्ट्रपति भवन में दरबार हॉल का नाम बदल कर गणतंत्र मण्डपम् रखा गया है। ये सभी नामकरण हमारे देश में प्राचीन परंपरा के अनुरूप हैं। हाल ही में उच्चतम न्यायालय में न्याय की देवी की नई प्रतिमा का अनावरण किया गया, जिसकी आंखों पर पट्टी नहीं है। ऐसे सभी परिवर्तन औपनिवेशिक मानसिकता के उन्मूलन के सराहनीय उदाहरण हैं। समरसता हमेशा हमारी सभ्यता का आधार रही है। समरसता और एकता की शक्ति ही हमारी राष्ट्रीय प्रगति को ऊर्जा प्रदान करेगी।
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