भारत में मुगल वंश की नींव रखने वाले बाबर के बेटे हुमायूँ को शेरशाह सूरी ने भगाया था। हुमायूँ को भारत से भगाने के कारण भारत के इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग शेरशाहसूरी को महान बताते नहीं थकता है। वह उसे महान सुधारक, आदि आदि कहता है। यहाँ तक कि जिस ग्रांड ट्रंक रोड का उल्लेख मेगस्थनीज़ ने चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के दौरान अपनी पुस्तक इंडिका में किया है, जिसे पाणिनी ने उत्तरपथ के रूप में बताया है, और जो इतना बड़ा था कि उसके चार-पाँच वर्ष के छोटे से शासनकाल में दस प्रतिशत भी नहीं बन सकता था, उसे शेरशाह सूरी द्वारा बनाया गया बता दिया है।
INTERCOURSE BETWEEN INDIA AND THE WESTERN WORLD, H. G. RAWLINSON, Cambridge University Press 1916) में इंडिका के माध्यम से मेगस्थनीज द्वारा उसी मार्ग का वर्णन है, जिसे शेरशाह सूरी द्वारा बनाया गया बताया जाता है। इस पुस्तक में लिखा है कि “मेगस्थनीज ने जैसे ही भारत में प्रवेश किया, वैसे ही जिसने उसे सबसे पहले प्रभावित किया, वह था शाही मार्ग, जो फ्रंटियर से पाटलिपुत्र तक जाता था। और फिर इस पुस्तक में लिखा है कि इस मार्ग का निर्माण आठ चरणों में हुआ था और वह पुष्कलावती (गांधार की राजधानी) अर्थात आधुनिक अफगानिस्तान से तक्षशिला तक था: तक्षशिला से सिन्धु नदी से लेकर झेलम तक था; उसके बाद व्यास नदी तक था, वहीं तक जहां तक सिकन्दर आया था, और फिर वहां से वह सतलुज तक गया है, और सतलुज से यमुना तक। और फिर यमुना से हस्तिनापुर होते हुए गंगा तक। इसके बाद गंगा से वह दभाई (Rhodopha) नामक कसबे तक गया है और उसके बाद वहां से वह कन्नौज तक गया है। कन्नौज से फिर वह गंगा एवं यमुना के संगम अर्थात प्रयागराज तक जाता है और फिर वह प्रयागराज से पाटलिपुत्र तक जाता है। राजधानी से वह गंगा की ओर चलता रहता है।”
ग्रांड ट्रंक रोड का भी मार्ग यही है और यह मार्ग उत्तरपथ के रूप में पाणिनी के ग्रंथों से लेकर मेगस्थनीज़ की इंडिका तक प्राप्त होता है। परंतु फिर भी जब भी इतिहास पढ़ाया जाता है, तब यही बताया जाता है कि ग्रांड ट्रंक रोड का निर्माण शेरशाह सूरी ने किया था। शेरशाह सूरी का शासनकाल 1540 से लेकर 1545 तक रहा था। और इस पूरे समय में वह तमाम युद्धों में लगा रहा था। मात्र चार वर्षों के शासनकाल में क्या इतना बड़ा पथ बन सकता था? इस बात का उत्तर देने के लिए वे इतिहासकार तैयार नहीं हैं, जो प्राचीन हिंदू पथ का श्रेय शेरशाहसूरी को सहर्ष दे देते हैं। इतिहास में इस पथ का उल्लेख तब भी प्राप्त होता है जब सम्राट अशोक के शासनकाल में धम्म प्रचार के लिए प्रचारक और भिक्षु इस पथ से होकर जाते थे। जबकि हर्षवर्धन, जो वर्धन वंश के शासक थे और जिनका शासनकाल 606 ईस्वी से 647 ईस्वी तक चला था, जिनकी राजधानी कन्नौज थी और जिनका साम्राज्य पंजाब से लेकर उत्तरी उड़ीसा और हिमालय से नर्मदा नदी के किनारे तक विस्तारित था उन्हें उत्तरपथ का राजा कहा जाता है।
उन्हें सकलोत्तरपथनाथ की उपाधि दक्कन के चालुक्य वंश के शासकों द्वारा दी गई थी। जिसका अर्थ है सम्पूर्ण उत्तरपथ के स्वामी। सकल- सम्पूर्ण, उतर पथ अर्थात उत्तर भारत, जहां-जहां तक वह उत्तरपथ रहा होगा, एवं नाथ अर्थात स्वामी! हर्षवर्धन ने “रत्नावली”, “प्रियदर्शिका” और “नागानंद” नामक तीन प्रसिद्ध संस्कृत नाटक लिखे हैं। इसके उपरांत बौद्ध धर्मावलम्बी राजा धर्मपाल, जिनका शासनकाल 770 से 810 ईस्वी तक था, उन्हें भी उत्तरापथ स्वामी के नाम से जाना जाता था। उत्तरपथ का मार्ग वही है, जिसके निर्माण का श्रेय कम्युनिस्ट और इस्लामिस्ट इतिहासकार शेरशाहसूरी को देते हैं।
तो जो पथ उत्तरापथ के नाम से न जाने कब से भारत में विद्यमान है, क्या हजारों किलोमीटर का वह मार्ग मात्र चार या पाँच वर्ष की अवधि में बनाया जा सकता है? उत्तर है नहीं! ऐसा अवश्य है कि शेरशाह सूरी ने शासन पर पकड़ बनाने के लिए जहां-जहां यह पथ गया होगा, वहाँ पर सरायों का निर्माण कराया था। जिसके कारण वह अपनी सेना को टिका सके या फिर अपने लोगों को बिना किसी बाधा के पहुँच सके। शेरशाह सूरी का महिमामंडन करते समय तमाम तथ्यों को किनारे कर दिया जाता है, यहाँ तक कि उत्तरपथ का वह समृद्ध इतिहास भी, जो सदियों से भारत में रहा था। यूनेस्को की विरासत वाली वेबसाइट पर भी इस सड़क को उत्तरापथ से आरंभ किया गया है और सूर वंश के शासनकाल को इस सड़क के पुनर्निर्माण का श्रेय दिया जाता है। इस पृष्ठ पर भी लिखा है कि इस राजसी राजमार्ग का उल्लेख कई प्राचीन ग्रंथों और शास्त्रों में प्राप्त होता है, जिसमें उत्तरापथ का पहला ज्ञात उल्लेख पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी (लगभग 500 ईसा पूर्व) में किया था। सातवें अशोक स्तंभ में शाही मार्ग का उल्लेख है, जो नियमित अंतराल पर विश्राम गृहों और कुओं की एक श्रृंखला से सुसज्जित है, जो मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) को तक्षशिला से जोड़ता है। प्रागैतिहासिक मिट्टी के बर्तनों और भौतिक संस्कृति की उपस्थिति भी उत्तरी भव्य मार्ग के विकास का संकेत देती है।
परंतु यह दुर्भाग्य है कि मार्ग पर मरम्मत कराने वाले को उस भव्य मार्ग का निर्माता भारत के वे लोग अभी तक बता रहे हैं, जिनके कंधों पर इतिहास बताने का उत्तरदायित्व है।
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