श्रद्धांजलि

अविश्रांत पथिक

Published by
रत्न चंद सरदाना

महान शिक्षाविद् श्री दीनानाथ बत्रा का व्यक्तित्व असाधारण था। वे शब्दों से कम किंतु आचरण से ज्यादा सिखाते थे। सबके सुख में आनंदित और दूसरे के दुख में पीड़ित हो उठते थे। वे एक मौन साधक व अविश्रांत पथिक थे। वे कार्यकर्ताओं के समूह को देव-दुर्लभ टोली की संज्ञा देते थे और अपने स्नेहमयी व्यवहार से संपर्क में आने वाले लोगों का मन जीत लेते थे।

रत्न चंद सरदाना
पूर्व प्रधानाचार्य, श्रीमद्भगवद् गीता व. मा. विद्यालय, कुरुक्षेत्र

बत्रा जी का जन्म तत्कालीन पश्चिमी पंजाब के डेरा गाजीखान में 5 मार्च, 1930 को माता श्रीमती लक्ष्मी देवी व पिता श्री टाकन दास के घर हुआ। देश के विभाजन के समय ये लाखों हिंदू परिवारों के साथ पूर्वी पंजाब में आ गए। 1955 में डेरा बस्सी में डीएवी हाई स्कूल में अध्यापन कार्य आरंभ किया। संघ कार्य में सक्रिय रहे।

संकल्प लिया और जुट गए

1946 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से कुरुक्षेत्र में श्रीमद्भवद्गीता उच्च विद्यालय की स्थापना हुई। इसके भवन का शिलान्यास तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने किया था। स्वयंसेवकों द्वारा संचालित देश में यह दूसरा विद्यालय था। विद्यालय की स्थापना के कुछ समय बाद ही अगस्त, 1947 में देश का विभाजन हो गया और 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा। इस कारण फरवरी, 1948 में विद्यालय बंद हो गया। प्रतिबंध हटने के पश्चात् पुन: कार्य आरंभ हुआ, लेकिन विद्यालय पर सरकार की कोप दृष्टि बनी रही। फलस्वरूप 1963 में प्रबंध समिति ने विद्यालय बंद करने का विचार किया।

इस स्थिति में युवा, दृढ़ निश्चयी दीनानाथ जी ने स्वयं आगे बढ़कर तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री माधव राव मूल्ये के सम्मुख विद्यालय चलाने का प्रस्ताव रखा। बत्रा जी के परिवार तथा मित्रों ने उन पर दबाव बनाया कि वे जोखिम न लें, लेकिन वे माने नहीं। उन्होंने व्यक्तिगत आकांक्षाओं को छोड़कर समर्पित भाव से कार्य करना शुरू किया और विद्यालय को आगे बढ़ाया। 1965 की दीपावली आई। आचार्यों को कई महीने से वेतन नहीं मिल पाया था। प्रधानाचार्य यानी बत्रा जी चिंता में थे। पत्नी के आभूषण गिरवी रख कर रुपए लाए और आचार्यों को वेतन मिला।

एक दिन टेलीग्राम द्वारा उन्हें अपने पिताजी के निधन का समाचार प्राप्त हुआ। धर्मपत्नी और बच्चों को तैयार होकर बाहर आने का निर्देश देकर स्वयं कहीं चले गए। इस बीच बत्रा जी के एक मित्र कंवर बलजीत सिंह आए और उन्होंने बच्चों से कहा, ‘‘गाड़ी का समय हो रहा है। चलो तांगे में बैठो। मुझे पता है वह कहां गया है।’’ तभी बत्रा जी आए और बोले, हम लोग कल जाएंगे। बाद में उस मित्र के आग्रह व आर्थिक सहयोग से वे लोग गए। 1967 में उन्होंने हरियाणा प्रांत मान्यता प्राप्त विद्यालय का गठन किया। बत्रा जी इसके अध्यक्ष एवं महामंत्री भी रहे। इस संगठन के प्रयत्नों से 1971 में सरकार ने सेवा सुरक्षा अधिनियम पारित किया, वेतनमान निर्धारित हो गए।

उन्होंने गायत्री परिवार व आर्य समाज में भी सक्रिय रूप से कार्य किया। कुरुक्षेत्र नगर में 7 स्वतंत्र विद्यालय स्थापित करवा दिए। समाज ने भरपूर सहयोग दिया। 1978 में श्रीगुरुजी पुन: कुरुक्षेत्र पधारे व गीता निकेतन आवासीय विद्यालय की स्थापना व भवन निर्माण कार्य आरंभ हुआ। गुणवत्तापूर्ण एवं चरित्र निर्माणशाला के रूप में विद्यालय की ख्याति दूर-दूर तक फैली। आपातकाल में पुन: संकट के घनघोर बादल छाए। विद्यालय को सरकार ने अपने अधिकार में ले लिया। बत्रा जी सहित अधिकांश आचार्यों को कारागार में डाल दिया गया।

आश्चर्यजनक घटना

उस घनघोर अंधकार और भय की अवस्था में एक चमत्कार हुआ। बत्रा जी पर लगे आरोपों को लेकर न्यायाधीश ने सरकारी गवाह बने पुलिसकर्मी से साक्ष्य मांगा तो वह नहीं दे पाया। इसके बाद बत्रा जी को छोड़ दिया गया। लेकिन वे वह कोर्ट रूम से
ही भूमिगत हो गए व सक्रिय रहकर एक पत्रिका का संपादन करने लगे।

परिवार से दुर्व्यवहार

बत्रा जी की गिरफ्तारी के साथ ही उनके परिवार पर भी वज्रपात हुआ। विद्यालय परिसर में स्थित आवास से सामान निकाल कर सड़क किनारे फेंक दिया गया। मां और बच्चों का सहारा कौन बने? आतंक का सामा्रज्य। तभी एक व्यक्ति ने उनका सामान एक निर्माणाधीन भवन में रखवा दिया। इसके बाद उस भवन के स्वामी को पुलिस ने प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया। पुलिस के आचरण को लेकर आम लोगों में रोष फैल गया। लोग पुलिस के विरोध में उतर गए। इससे परिवार को राहत मिली।

कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि मानो बत्रा जी स्वयं संकटों को आमंत्रित करते थे। देवीलाल सरकार के समय की घटना है। अध्यापक संघ की मांगों को लेकर चंडीगढ़ कूच किया। कुछ लोगों को संकेत कर दिया गया था कि गिरफ्तारी देनी होगी। पुलिस ने लाठी का प्रयोग किया। गिरफ्तारियां हुईं। विधानसभा का सत्र चल रहा था। सदन में हंगामा हुआ। सरकार को झुकना पड़ा। समय के साथ बत्रा जी के कार्य क्षेत्र का भी विस्तार हुआ। अखिल भारतीय विद्या भारती शिक्षा संस्थान केवल शिशु मंदिर योजना तक सीमित न रहकर विद्यालय स्तरीय शिक्षा के वैकल्पिक स्वरूप विकसित करने का लक्ष्य लेकर क्रियाशील हो गया। इस संस्थान के वैचारिक आधार निर्धारण के लिए बनी टोली के सदस्य बत्रा जी भी बने।

संगठन की योजना से ही उन्होंने ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ का सूत्रपात किया। विद्यालय तथा विश्वविद्यालयों के कुछ विषयों की पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन कर उनमें पाई गई विसंगतियों व तथ्यात्मक त्रुटियों अथवा भारतीय जीवन-मूल्यों के विपरीत छापी गई सामग्री को खोज निकाला। दूसरे चरण में अपने मत के पक्ष में प्रमाण जुटाए गए। तीसरे चरण में बुद्धिजीवी लोगों से चर्चा, सरकार, एनसीईआरटी आदि संबंधित संस्थाओं से पत्राचार, ज्ञापन, समाचार माध्यमों का उपयोग व न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर आपत्तिजनक सामग्री को पुस्तकों से हटाने के आदेश प्राप्त किए। बत्रा जी राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार के साथ अनेक पुरस्कारों से सम्मानित व अलंकृत थे। ऐसे साधक के जाने से अनगिनत कार्यकर्ता दुखी हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि जो आया है, वह जाएगा ही। ऊं शांति: 

Share
Leave a Comment