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एक मूल से हम सब उपजे

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डॉ. राजकिशोर हांसदा

हर वर्ष 9 अगस्त के आसपास सेकुलर भारत विरोधी तत्व ‘मूल निवासी दिवस’ को लेकर बड़ा शोर मचाते हैं। ऐसे लोगों को यह बताना होगा कि भारत के संदर्भ में इस दिवस का कोई अर्थ नहीं है। बता दें कि 9 अगस्त, 1982 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा मूल निवासियों की स्थिति पर अध्ययन करने के लिए एक समिति गठित की गई थी। इसकी अनुशंसा पर संयुक्त राष्ट्र ने 9 अगस्त, 1994 से विश्वभर में मूल निवासी दिवस मनाने की घोषणा की। लेकिन इसके साथ यह भी जानना जरूरी है कि 9 अगस्त अमेरिका के मूल निवासियों के इतिहास में अत्यंत हृदयविदारक दिन है।

डॉ. राजकिशोर हांसदा
राष्ट्रीय सह संयोजक, जनजाति सुरक्षा मंच

1610 में इसी दिन ब्रिटिश सेना ने वर्जीनिया के निकट स्थित पौहटन कबीले के 75 मूल निवासियों की निर्मम हत्या कर दी थी। पश्चिम में पौहटन जैसी अनेक घटनाएं हुई हैं। सैकड़ों वर्ष तक अमेरिका और यूरोप के देशों में मूल निवासियों को निर्मम व्यवहार झेलना पड़ा था। ऐसे में यदि कोई यह तर्क देता है कि इन घावों पर मरहम-पट्टी बांधने के लिए ही शायद इस दिवस को ‘मूल निवासी दिवस’ के रूप में घोषित किया गया है, तो उसे गलत नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन भारत में तो सभी लोगों का मूल एक ही है। इसलिए यहां इस दिवस को मनाने का कोई मतलब नहीं है।

2007 में संयुक्त राष्ट्र ने मूल निवासियों के अधिकारों की दृष्टि से एक घोषणापत्र जारी किया था। यह घोषणापत्र मूल निवासी शब्द को सही ढंग से परिभाषित करने में पूर्णतया विफल रहा है। इसमें मोटे तौर पर इतना कहा गया है कि मूल निवासियों की पहचान ऐतिहासिक बातों को ध्यान में रख कर की जाएगी। पर भौगोलिक दृष्टि से ऐतिहासिक अनुभूतियां भिन्न होने के कारण एक मापदंड के आधार पर ऐसे जनसमूहों की पहचान करना शायद संभव नहीं होगा। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपने 169वें कन्वेंशन में अंतरराष्ट्रीय संधि-1989 प्रस्ताव पारित किया था। इसके अनुसार अधिकार का विचार करते समय मूल निवासियों की संस्कृति और जीवन शैली को महत्व देने पर बल दिया गया था। यह संधि उन्हें अपनी भूमि, प्राकृतिक संपदा पर आधारित अपने विकास की प्राथमिकता को परिभाषित करने का अधिकार प्रदान करता है।

कन्वर्जन के लिए उपयोग

भारत के संदर्भ में कुछ राष्ट्रविरोधी ताकतों और शरारती तत्वों ने ‘मूल निवासी दिवस’ का उपयोग कन्वर्जन के जरिए समाज में विभाजन लाने के अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किया। वे भारत सरकार द्वारा इस विषय पर लिए गए निर्णय को पलटकर इस दिवस का भारत में ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाने और बहुसंख्यक समाज से जनजाति समाज को दूरी रखने के लिए उपयोग करते हैं।

मूल निवासियों के संदर्भ में इतिहास का हवाला देते हुए भारत की घोषित नीति यह है कि भारत के नागरिक चाहे जनजाति हों या गैरजनजाति, सभी भारत के मूल निवासी हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने सभी नागरिकों को बराबरी का अवसर, सुरक्षा और अधिकार प्रदान करने की दिशा में अपना विचार रखा था। इतना ही नहीं, जो जनसमूह राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक कारणों से पिछड़ गया हो, उनके उत्थान हेतु विशेष सुविधा एवं प्रावधानों को लागू करने के लिए ऐसी जनजातियों को संयुक्त राष्ट्र के 2007 के घोषणापत्र के 5 दशक पूर्व ही 1950 में विशेष अनुसूची में रखा गया था।

ऐसी स्थिति में चर्च और मिशनरियों द्वारा अनुसूचित जनजाति के लोगों को 9 अगस्त को ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाने के लिए उकसाया जा रहा है। इस दिवस का भारत के संदर्भ में कोई महत्व नहीं है। यदि इस दिवस का पालन करना भी है तो विश्व के मूल निवासियों के लिए ‘शोक दिवस’ के रूप में इसका पालन करना ही उचित रहेगा। मूल निवासियों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र में कुछ भी कहा गया हो, यह दृश्य पश्चिम के देशों में हमें देखने को मिलता है। उन देशों में जिन समूहों को कुचलने का प्रयास किया था, उनके साथ एकजुटता प्रदर्शित करते हुए हमारा यह कहना है कि उनसे जुड़ी सभी बातों का परिमार्जन करें और उनके कष्ट निवारण हेतु संबंधित सभी सरकारें उचित कदम उठाएं।

भारत के संदर्भ में अनुचित

पर संयुक्त राष्ट्र का यह घोषणापत्र भारत के लिए लागू नहीं होता, क्योंकि यहां सभी लोग यहां के मूल निवासी हैं। भारत के संविधान में यहां के सभी नागरिकों को संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र में दिए गए 46 अनुच्छेदों में से एक-दो विषयों को छोड़कर सभी अधिकारों को प्रदान करने के उपाय किए गए हैं। उनमें से आत्मनिर्णय करने का अधिकार अत्यंत कुटिलतापूर्ण है। भारत के प्रतिनिधि ने इस घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करते समय आत्मनिर्णय के अधिकार को यह कहकर अस्वीकार किया था कि यह किसी भी देश की एकता और अखंडता के विरुद्ध है और देश की सार्वभौमिकता के लिए खतरा है। भारत जैसे देश, जो अपने नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को विभिन्न माध्यमों से संरक्षण देते हैं, यह अनुच्छेद अत्यंत दुष्परिणति का कारण बनेगा और भारत के लिए यह झूठा साबित होगा। पर भारत के प्रबुद्ध वर्ग और समाचार माध्यमों से जुड़े लोगों का ध्यान इस ओर शायद ही गया होगा।

भारत में कुछ ऐसे संगठन हैं, जो जनजाति समाज की संस्कृति, पहचान, विश्वास और मूल्यों को बिगाड़ना चाहते हैं। वे कन्वर्जन के कार्य में लगे हैं। कन्वर्जन को रोकने के लिए कठोर से कठोर कार्रवाई करने की आवश्यकता है। वे आर्य आक्रमण सिद्धांत को लाकर जनजातीय लोगों को अपनी तरफ यह कहकर आकर्षित करना चाहते हैं, ‘जनजातियों को आर्य लोगों द्वारा जंगल में खदेड़ दिया गया था। जिस प्रकार आर्यों ने द्रविड़ लोगों को दक्षिण में सागर के किनारे तक खदेड़ा था।’ इस बात का कोई आधार नहीं है। राखीगढ़ी में हुई खुदाई ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूर्णतया यह कहकर ध्वस्त किया है कि उस कालखंड में यहां कोई आक्रमण हुआ है, ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता। पुरातत्व विभाग के तथ्य, डीएनए, कालगणना, आनुवांशिक तथ्य आदि ने तो इस सिद्धांत को खारिज करने की दिशा में ही संकेत किया है।

जनजातीय गौरव दिवस

भारतवासियों के गौरव और स्वाभिमान के संवर्धन के लिए भारत सरकार ने 2021 में भगवान बिरसा मुंडा के जन्मदिन 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। बिरसा मुंडा अत्यंत ख्यातिप्राप्त और व्यापक मान्यता प्राप्त क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने साहस के साथ ब्रिटिश अधिकारी और कन्वर्जन में लगे ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध एक ही समय में लड़ाई लड़ी थी। वे कहते थे, ‘‘ब्रिटिश अधिकारी और मिशनरियों की टोपी एक है।’’ इसका अर्थ है, दोनों का लक्ष्य एक है। यह सत्य भगवान बिरसा को जल्दी ही समझ में आ गया था। समय के साथ बिरसा की क्रांतिकारी गतिविधियों की चर्चा देशव्यापी हो गई है और जनजाति समाज के सामने उनकी छवि एक जननायक के रूप में सामने आई है। इसलिए भारत सरकार ने बहुत ही सही कदम उठाया और उनके जन्मदिन को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। अब हमें अपना गौरव दिवस प्राप्त हो गया है। इसलिए हमें ‘मूल निवासी दिवस’ को नहीं मनाना चाहिए।

आंध्र के पश्चिमी गोदावरी जनपद के मोग्गलू ग्राम में 4 जुलाई, 1897 में अल्लूरि सीताराम राजू का जन्म हुआ। उनके पिता का नाम अल्लूरि वेंकट रामराजू था। बचपन से ही पिता ने उन्हें अंग्रेजों के अत्याचार के बारे में बताया था। बचपन के ये संस्कार उन्हें विद्रोही पथ पर ले आए। राजू और उनके साथी नल्लई-मल्लई पहाड़ियों के पार सघन वनों में रहते और वहीं से अपनी विद्रोही गतिविधियों को अंजाम देते थे। राजू और उनके साथियों को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने 12 अक्तूबर, 1922 को नल्लई-मल्लई पहाड़ियों की घाटी के लिए पुलिस को रवाना किया। कई बार पुलिस से उनकी मुठभेड़ हुई, लेकिन वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। वे दुर्गम पहाड़ियों में अपने साथियों के साथ रहने लगे। 9 मई, 1924 को पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। उन्हें कोटयूर थाने ले जाया गया, लेकिन वे वहां से भाग निकले। पुलिस का कहना था कि वह मारे गए। वहीं,लेकिन लोगों का कहना था कि वे कभी पकड़े नहीं गए।
ओडिशा के कालाहांडी में 150 वर्ष तक नागवंशी राजाओं का राज-पाट रहा। 1850 तक कलाहांडी की जनसंख्या एक लाख पांच हजार थी। उनमें कन्ध समुदाय की संख्या 80 हजार थी। उस समय कन्ध समुदाय के उलार्जानी गांव के मुखिया रेंडो मांझी थे। 1850 में जब अंग्रेजों ने राजस्व वसूली शुरू की, तब कलाहांडी के राजा को भी राजस्व देना पड़ा। राजा ने कन्ध समुदाय से राजस्व मांगा। चूंकि कन्ध लोग जंगल पर आश्रित थे, ऐसे में राजस्व कहां से देते। उन्होंने राजा के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। इसका नेतृत्व रेंडो मांझी ने किया। कलाहांडी के राजा ने अंग्रेजों की सहायता ली और मेजर कैंपबेल के साथ मिलकर रेंडो मांझी को बंदी बना कर गंजाम के रसूलकोंडा जेल भेज दिया। उन्हें छुड़ाने के लिए कन्ध समुदाय ने उलार्जानी गांव के पास अंग्रेज छावनी पर हमला किया। इसमें वे अंग्रेजों से पराजित हो गए। इसके बाद अंग्रेजों ने रेंडो मांझी को फांसी पर लटका दिया।
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