सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को एक बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा है कि सरकारी सहायता प्राप्त ईसाई मिशनरी स्कूल्स में जिन भी पादरियों और नन को वेतन मिल रहा है, वह आयकर के अधीन है। न्यायालय ने कहा कि आयकर विभाग के सम्मुख इसे लेकर कोई समस्या ही नहीं है कि वह टीडीएस अर्थात स्रोत पर कर न काटे। टीडीएस वह कर है जो ये के स्रोत पर लगाया जाता है।
इस विषय को लेकर तमिलनाडु और केरल के 100 ईसाई डाइअसेस और उनकी मंडलियों की अपील को निरस्त करते हुए न्यायालय ने कहा जो भी वेतन सरकारी अनुदान के माध्यम से मिल रहा है, उन पर सभी पर कर लगेगा।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व में पीठ ने यह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया। इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जे बी पादरीवाला और मनोज मिश्रा सम्मिलित थे। मिशनरी स्कूल्स को वर्ष 1944 में कर से छूट प्राप्त थी, और वर्ष 2014 में दिसंबर में केंद्र सरकार ने टीडीएस लगाया था।
यह बहुत ही चौंकाने वाली और हैरान करने वाली बात है कि सरकारी अनुदान वाले मिशनरी स्कूल्स में भी कार्यरत ईसाई पादरी और नन के वेतन पर कर नहीं लगता था और यह कर क्यों नहीं लगना चाहिए था, जबकि उन्हें वेतन सरकारी जेब से अर्थात लोगों के द्वारा दिए गए करों से ही प्राप्त होता है।
इस मामले में पादरियों और नन का नेतृत्व करने वाले वरिष्ठ वकील अरविन्द दातार और एस मुरलीधरन ने यह तर्क दिया कि ननों और पादरियों का वेतन स्कूल चलाने वाली मण्डली (congregation) के पास चली जाती है और पढ़ाने वाले पादरी और नन्स के पास कोई भी पैसा नहीं रह पाता हैं। दातार ने आगे बताया कि यदि किसी नन या पादरी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है, तो कोई भी मुआवज़ा पैरिश को जाता है, न कि परिवार को, क्योंकि वे अपनी प्रतिज्ञा लेने के बाद रिश्तेदारों से संबंध तोड़ लेते हैं।
हालांकि न्यायालय ने इन सब दलीलों को दरकिनार कर कहा कि चूंकि वेतन को आय के अंतर्गत माना जाता है, इसलिए ये सभी वेतन आयकर के अंतर्गत आएंगे। इससे पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिया था, मगर आयकर ने इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी।
वर्ष 2021 में केरल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि ननों और पादरियों को दिए जाने वाले वेतन पर कर लगाया जा सकता है और यह संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन नहीं है, जो भारत में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।
जनवरी 2024 में सर्वोच्च न्यायालय टीडीएस आवश्यकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करने के लिए तैयार हुआ था। इस निर्णय ने एक बहुत महत्वपूर्ण बहस को जन्म दिया है, कि क्या उन संस्थानों के किसी विशेष रिलीजन मानने वालों के वेतन पर आयकर नहीं लगना चाहिए जिन संस्थानों को सरकारी अनुदान मिलता है? और यह कैसा कानून था जो एक रिलीजन विशेष को यह अधिकार देता था और यह भी कि वर्ष 1944 का कानून अब तक बिना रोकटोक के लागू रहा? क्यों इतने वर्ष तक सरकारी पैसे से वेतन पाने वाले लोगों पर आयकर नहीं लगाया गया?
यदि यह निर्णय नहीं आता तो आम लोगों को अभी तक पता ही नहीं चलता कि करदाताओं के साथ यह भी अन्याय हो रहा था, परंतु सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसी याचिका लगाने वालों के पास एक धर्मनिरपेक्ष देश में रिलीजन के आधार पर विशेषाधिकार पाने का दुस्साहस कहाँ से आता है?
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