भारत का इतिहास ऐसे समर्पित ऋषितुल्य विभूतियों की एक लंबी शृंखला से समृद्ध है, जिन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावित किया। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी इस शृंखला की नवीनतम चमकती कड़ी हैं। इसलिए उन्हें ‘राष्ट्र ऋषि’ कहकर सम्मानित किया जाता है। वाल्मीकि रामायण (2.19.20) में, कैकेयी राम से जल्द से जल्द वन जाने के लिए कहती हैं। राम ने इसे सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि वे सांसारिक लाभ के पीछे नहीं हैं, वे हमेशा एक ऋषि की तरह जीना चाहते थे (ऋषिभिस्तुल्यं), जो पूरी तरह से केवल धर्म के प्रति समर्पित हो (केवलं धर्ममास्थितम्)।
दत्तात्रेय बापूराव ठेंगड़ी उर्फ दत्तोपंत ठेंगड़ी का जन्म 10 नवंबर, 1920 में महाराष्ट्र के वर्धा जिले के अरवी गांव में हुआ था। वह अपनी आध्यात्मिक रुझान वाली मां जानकीबाई से बहुत प्रभावित थे। स्कूल के दिनों में भी ठेंगड़ी जी ने अपनी बौद्धिक एवं बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। श्री गुरुजी गोलवलकर 1940 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक बने। उन्होंने राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए एक आक्रामक संगठनात्मक रणनीति अपनाई। 1940 से 1942 तक अपने दौरे के दौरान उन्होंने जगह-जगह युवाओं से आह्वान किया कि वे प्रचारक के रूप में काम का प्रसार करें। उन्होंने कहा, ‘आज भारतमाता की पूजा के लिए, हमें ऐसे फूलों की आवश्यकता है जो अछूते हों, न सूंघें, न सूखें, न सिर पर सजें; साथ ही अच्छी सुगंध, शहद और आकर्षण के साथ।’
उनके आह्वान पर, विभिन्न शाखाओं के सैकड़ों युवा अपना घर, माता-पिता, धन, नौकरी, मित्र, गांव, कस्बे आदि छोड़कर निकल पड़े। वे पूरे आत्मविश्वास के साथ खुशी-खुशी उन स्थानों पर चले गए, जिन्हें उन्होंने न देखा था, न सुना था। देश के कोने-कोने में जाकर संघ कार्य के लिए प्रचारकों का पहला जत्था 1942 में तैयार हो गया था।
वकालत कर बने प्रचारक
युवा ठेंगड़ी जी उनमें से एक थे जो कानून की पढ़ाई शानदार ढंग से पूरी करने के बाद प्रचारक बने। उनके पिता, एक प्रसिद्ध वकील होने के नाते यह चाहते थे कि उनका बेटा उनके पेशे में शामिल हो, लेकिन ठेंगड़ी जी ने पहले ही संघ के काम के माध्यम से राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित करने का मन बना लिया था, जिसके साथ वह स्कूल के दिनों से जुड़े हुए थे।
1942 की एक सुबह, श्री गुरुजी ने ठेंगड़ी जी को संघ का काम शुरू करने के लिए केरल के कोझिकोड भेजा और वहां के एक जाने-माने वकील के लिए पत्र दिया। केरल उनके लिए अनजान था। ठेंगड़ी जी का एकमात्र लाभ यह था कि वे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल सकते थे। ठेंगड़ी जी ने वकील से मुलाकात की, और काम के बारे में सुनने के बाद, वकील ने उन्हें स्नेहपूर्वक सलाह दी कि वे जल्द से जल्द लौट आएं, क्योंकि ऐसा काम केरल जैसे स्थान के लिए उपयुक्त नहीं है। वह निराश नहीं हुए, वे यहीं रुके और कुछ ही समय में केरल में संघ के काम की मजबूत नींव तैयार कर ली। 1944 से 1948 तक उन्होंने असम क्षेत्र सहित बंगाल में प्रान्त प्रचारक के रूप में कार्य किया।
इंटक में किया कार्य
1949 में, कांग्रेस नेता और मध्य प्रदेश के तत्कालीन गृह मंत्री, श्री द्वारका प्रसाद मिश्र ने संघ से प्रतिबंध हटाने का समर्थन करते हुए, इसे संगठनात्मक रूप से मजबूत करने के लिए ठेंगड़ीजी को इंटक में काम करने के लिए कहा। उस समय ट्रेड यूनियन आंदोलन कम्युनिस्टों के हाथ में था। अक्तूबर 1950 में वे इंटक की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य बने। 1952 और 1955 के बीच, उन्होंने बैंक कर्मचारियों के लिए एक कम्युनिस्ट संगठन, एआईबीईए के राज्य आयोजन सचिव के रूप में काम किया। उन्होंने डाक, बैंकिंग, एलआईसी, रेलवे, कपड़ा और कोयला जैसे क्षेत्रों में यूनियनों के साथ काम किया और कई यूनियनों के पदाधिकारी रहे। श्री गुरुजी के स्वयं के शब्दों में, ठेंगड़ी जी ने 1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना करते समय उन्हें सौंपे गए कार्य को ‘single handedly’ (अकेले) ही पूरा किया।
जनसंघ में जिम्मेदारी
बीएमएस के गठन के बाद ठेंगड़ी जी कई वर्षों तक भारतीय जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य बने रहे। कुछ लोग उन्हें 1952-1953 के दौरान मध्य प्रदेश और 1956-57 के दौरान दक्षिण भारत के लिए भारतीय जनसंघ के संगठन सचिव के रूप में याद करते हैं। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय जनसंघ, भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत, संस्कार भारती, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, सामाजिक समरसता मंच, प्रज्ञा प्रवाह के अग्रदूत भारतीय विचार केंद्र जैसे कई संघ सृष्टि संगठनों के गठन से जुड़े थे। उनकी संगठनात्मक दृष्टि से बीएमएस को सीधे तौर पर सबसे अधिक लाभ हुआ। 1984 में बीएमएस के हैदराबाद सम्मेलन में उन्होंने बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशी एजेंटों के खिलाफ युद्ध की घोषणा की। उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच के विचार की कल्पना की जिसे बाद में 1991 में गठित किया गया। उन्होंने 1991 में शुरू की गई कांग्रेस सरकार की
नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ संघर्ष की घोषणा की।
चुने गए राज्यसभा सदस्य
ठेंगड़ीजी 1964-1976 के दौरान दो कार्यकाल के लिए राज्यसभा सदस्य रहे। इस अवधि में उन्होंने सभी दलों के नेताओं और विभिन्न श्रमिक संगठनों के साथ घनिष्ठ संबंध विकसित किये। कांग्रेस में उनके कई मित्र थे। ठेंगड़ी जी और एस.ए. डांगे, हीरेन दा (हिरेन मुखेरजी), चतुरानन मिश्र, पी. राममूर्ति, भूपेश गुप्ता, ज्योतिर्मय बसु, बेनी और रोजा देशपांडे और सीटू नेता डॉ. एम.के. पांधे जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के बीच विचारों का नियमित आदान-प्रदान होता था। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी के शुरुआती सैद्धांतिक निमार्ताओं में से ए. के. दामोदरन, ठेंगड़ीजी के नियमित आगंतुक थे। प्रसिद्ध पत्रकार और आर्गेनाइजर साप्ताहिक के पूर्व संपादक के.आर. मलकानी ने ठेंगड़ीजी की 61वीं जयंती के दौरान अपने संस्मरण में अपनी सामान्य खोजी शैली में लिखा है: ‘मुझे लगता है कि मैं वर्ष 1969 के एक रहस्य का खुलासा करके धोखा नहीं दे रहा हूं, जब समस्त विपक्ष सहित वामपंथी दलों ने सर्वसम्मति से राज्यसभा में उपाध्यक्ष पद के लिए दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का नाम प्रस्तावित किया…प्रस्ताव को तत्कालीन सत्ता पक्ष ने खारिज कर दिया था।’
आपातकाल में भूमिगत रहकर किया कार्य
जब भी दिल्ली में कोई रैली या कार्यक्रम होता था, तो देश के अन्य हिस्सों से कार्यकर्ता 57 साउथ एवेन्यू में उनके एमपी क्वार्टर में आते थे और उनकी अनुपस्थिति में भी अंदर और बाहर लॉन में सोते थे। कई बार ऐसा भी हुआ, जब वह रात को 2 बजे लौटते थे, तो उन्हें सोने की जगह नहीं मिलती थी, तब वे बिना किसी आपत्ति के किसी कोने में सोने का विकल्प चुनते थे। 25 जून 1975 को आपातकाल लगाया गया और 4 जुलाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आपातकाल के काले दौर में नानाजी देशमुख और लोक संघर्ष समिति के सदस्य रवीन्द्र वर्मा की गिरफ्तारी के बाद ठेंगड़ी जी ने फरवरी 1976 से निडर होकर इसके सचिव का कार्यभार संभाला।
19 महीने तक ठेंगड़ी जी ने भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने वेश बदलकर पूरे देश का दौरा किया और अत्याचार के विरुद्ध लोगों को संगठित किया। वह रणनीतिक योजना में सहयोग के लिए अक्सर शेख अब्दुल्ला, करुणानिधि, बाबू भाई पटेल जैसे विपक्षी मुख्यमंत्रियों और सर्वोदय, अकाली दल, लोक दल, कांग्रेस (ओ), समाजवादी और श्रमिक संगठनों के नेताओं से मिलते थे। उनके प्रयासों से आपातकाल के खिलाफ एकजुट लड़ाई हुई जबकि कई अन्य राजनीतिक नेता डर गए और धीरे-धीरे गतिविधियों से हट गए।
18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने अचानक मार्च में चुनाव की घोषणा कर दी । उस समय तक ठेंगड़ी जी ने राजनीतिक लड़ाई की जमीन तैयार कर ली थी और 23 जनवरी को तुरंत जनता पार्टी के गठन में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ठेंगड़ी जी ने श्री रवीन्द्र वर्मा के साथ मिलकर नई पार्टी के संविधान और उसके संगठनात्मक ढांचे का मसौदा तैयार किया। वह उन कुछ भूमिगत नेताओं में से एक रहे जिन्हें 23 मार्च, 1977 को आपातकाल हटने तक मीसा के तहत गिरफ्तार नहीं किया जा सका। कई लोगों ने सही कहा है, ठेंगड़ी जी आपातकालीन संघर्ष के असली नायक हैं।
एक ऋषि का जीवन
1977 में आपातकाल के बाद कई वरिष्ठों ने उनसे जनता पार्टी शासन में सांसद या मंत्री बनने का अनुरोध किया। उन्होंने ऐसे सभी अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि उन्होंने राजनीतिक और संसदीय जीवन को हमेशा के लिए छोड़ने का फैसला किया था। ठेंगड़ी जी ने स्वयं को बीएमएस में भी सभी पदों से मुक्त कर लिया और बिना किसी दायित्व के केवल मार्गदर्शक के रूप में अंत तक संगठनों के लिए काम किया। वे हजारों कार्यकर्ताओं को प्रेरित करते रहे। 2003 में जब उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, तब भी उन्होंने सम्मानपूर्वक इससे इनकार कर दिया था। दीनदयाल उपाध्याय जी और श्री गुरुजी दोनों के निधन के बाद भी वे संघ और आनुषांगिक संगठनों में सबसे प्रतिष्ठित विचारक बने रहे।
1970 में बीएमएस के कानपुर सम्मेलन में ठेंगड़ी जी ने घोषणा की कि साम्यवाद जल्द ही दुनिया से गायब हो जाएगा। 20 वर्षों के भीतर विश्व के सभी साम्यवादी देशों में साम्यवाद का पतन हुआ। इसी प्रकार अपनी पुस्तक ‘थर्ड वे’ में उन्होंने लिखा (1995 संस्करण पृ.114): ‘पूंजीवाद के दिन गिने-चुने रह गए हैं; यह 2010 ई. तक भी नहीं टिकेगा। ‘तीसरी मार्ग’ की खोज पहले से ही चल रही है।’ 2008 के मध्य सितंबर में, जब एक वैश्विक वित्तीय संकट वॉल स्ट्रीट से शुरू हुआ और सभी स्ट्रीटों पर फैल गया, तो पूंजीवाद के कई समर्थकों ने इसे पूंजीवाद की ‘समाप्ति’ के रूप में वर्णित किया।
एक उत्साही संघ स्वयंसेवक के रूप में, उन्होंने जहां भी काम किया, वहां उनका जीवन ही उनका संदेश था। उदाहरण के तौर पर, एक बार ठेंगड़ी जी बीएमएस की बैठक में शामिल होने के लिए टाटानगर आए थे। वह एक मजदूर के क्वार्टर में रुके थे। उसी दिन सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता श्री एस.ए. डांगे भी एक अन्य बैठक में भाग लेने आए और एक आलीशान होटल में ठहरे। डांगे के समर्थकों ने इस मुद्दे पर अपने नेताओं से सवाल किया।
एक उत्कृष्ट लेखक
ठेंगड़ी जी ने मौलिकता और उच्च बौद्धिक सामग्री वाली असंख्य किताबें लिखीं जो न केवल उनके वैचारिक दृढ़ विश्वास से बल्कि प्रासंगिक मुद्दों के उनके प्रत्यक्ष अनुभव से निकलीं है। कई पुस्तकों के लिए लिखी गई उनकी प्रस्तावना उनकी बौद्धिक निपुणता का प्रमाण है। अपने जीवन के अंतिम चरण में उनके द्वारा लिखी गई तीन पुस्तकें, अर्थात ‘द थर्ड वे, ‘कार्यकर्ता’ और ‘डॉ आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’ उनकी उत्कृष्ट कृतियां हैं। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के ए.के. गोपालन, सीपीआई(एमएल) के चारु मजूमदार से लेकर खलील जिब्रान तक की विचारधाराओं को प्रचुरता से उद्धृत किया। उन्होंने विश्व साहित्य से भी प्रचुर उद्धरण दिये। वे मराठी, हिंदी, अंग्रेजी के साथ ही मलयालम और बांग्ला में भी धाराप्रवाह बोलने में सक्षम थे।
दुनियाभर की यात्राएं कीं
ठेंगड़ी जी ने दुनिया के लगभग सभी हिस्सों की बड़े पैमाने पर यात्रा की थी। 28 अप्रैल 1985 को, बीएमएस प्रतिनिधिमंडल के एक भाग के रूप में उनकी चीन यात्रा के दौरान, बीजिंग रेडियो ने उनके भाषण को चीनी अनुवाद के साथ हिंदी में बीस मिनट तक प्रसारित किया। नवंबर 1990 में मास्को में विश्व श्रमिक सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें ठेंगड़ी जी ने भाग लिया। इसने बाजार अर्थव्यवस्था के साथ-साथ साम्यवाद की विफलता को भी उजागर किया और बड़ा सवाल उठाया कि तीसरा विकल्प क्या है। ठेंगड़ी जी पहले से ही तीसरे विकल्प के विचारों को समेकित करने की ओर अग्रसर थे, जो बाद में उनका प्रसिद्ध पुस्तक ‘थर्ड वे’ के रूप में सामने आए। 1993 में अपने वाशिंगटन भाषण में, ठेंगड़ी जी ने कहा, ‘मनुष्य हर जगह यथास्थितिवादी और आत्मसंतुष्ट रहना पसंद करता है। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था परिस्थितियों के कारण भारतीय विचारों की ओर मुड़ने के लिए मजबूर होगी।’
डॉ. आंबेडकर से जुड़ाव
1952 के चुनाव के दौरान, डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर तब बहुत नाराज हुए जब जवाहरलाल नेहरू ने उनके खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किया, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के ए.के. गोपालन के खिलाफ उम्मीदवार नहीं खड़ा किया ताकि वह निर्विरोध जीतें। सीपीआई के संस्थापक सदस्य एस.ए. डांगे ने भी लोगों से खुले तौर पर कहा: ‘अपने वोट खराब कर लो, लेकिन डॉ. आंबेडकर को वोट मत देना।’ कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों ने धोखे से उन्हें चुनावों में हराने की कोशिश की, तो डॉ. आंबेडकर ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में संघ की ओर रुख किया। 1952 के चुनाव में मध्य प्रदेश में भारतीय जनसंघ, डॉ. आंबेडकर के श्वेतकारी महासंघ और समाजवादी दल ने संयुक्त गठबंधन बनाया था। अप्रैल 1954 में हुए भंडारा लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के उपचुनाव में डॉ. आंबेडकर ने ठेंगड़ी जी को अपना चुनाव संयोजक चुना। 1956 में डॉ. आंबेडकर की मृत्यु हो गई। यह जुड़ाव केवल दो साल तक ही रहा। ठेंगड़ी जी की पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’ (हिंदी) संघ के साथ डॉ.आंबेडकर के घनिष्ठ संबंधों का वर्णन करती है। डॉ. आंबेडकर के सपने को साकार करने के लिए ठेंगड़ी जी ने 1983 में सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की।
आजीवन तपस्या का अंत
अपने जीवन के अंतिम वर्षोें में अपनी बढ़ती बीमारी के बीच, उन्हें डॉ. आंबेडकर पर पुस्तक पूरी करने में दो साल लगे। जुलाई 2004 में काम खत्म करने के बाद वे निश्चित दिखे। सूरत बैठक में बीएमएस कार्यकर्ताओं को श्री ठेंगड़ी जी का अंतिम संदेश था: ‘भविष्य में कठोर तपस्या की आवश्यकता है।’ वह हमें याद दिला रहे थे कि ऐसे समय में जब संगठनों को मान्यता और सम्मान मिल रहा है, हमारी तपस्या खत्म नहीं होनी चाहिए।
14 अक्तूबर, 2004 शरद नवरात्र का दिन था, जो भगवान दत्तात्रेय का दिवस था। दैवीय संयोग के रूप में उसी दिन 84 वर्ष की आयु में पुणे में स्नान करते समय ठेंगड़ी जी की आत्मा ने देह त्याग दी। इस प्रकार अपने जीवन के अंतिम समय तक ठेंगड़ी जी पर भगवान दत्तात्रेय का आशीर्वाद बना रहा। समाज के सभी क्षेत्रों की प्रमुख हस्तियों ने इस महान ऋषि को श्रद्धांजलि अर्पित की। राज्यसभा ने उन्हें एक महान श्रमिक नेता, संगठनकर्ता और महान देशभक्त के रूप में याद करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि दी। पूरी दुनिया अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में आंतरिक दृष्टिकोण प्राप्त करना चाहती है जिसने आज एक मजबूत राष्ट्र की इमारत का निर्माण किया है और जो राजनीति, श्रम, धर्म आदि सहित सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में गहराई से निहित है। संघ की उपलब्धि ठेंगड़ी जी जैसे व्यक्तित्वों के प्रेरणादायक जीवन के कारण संभव हुई हैं।
हम अपने आपको उन मूल्यों और आदर्शों में ढालने का प्रयास करके उनकी विरासत को और अधिक प्रसारित करके उनका ऋषि ऋण चुका सकते हैं जिनका उन्होंने अपने प्रेरक और आकर्षक जीवन भर अनुसरण किया।
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