हमारी सनातन हिन्दू धर्म संस्कृति में पंच ‘ग’ गाय, गंगा, गायत्री, गीता व गोविंद की सर्वाधिक मान्यता है। हमारे यहां गाय को माता की संज्ञा अकारण ही नहीं दी गयी है। स्कन्द पुराण में कहा गया है, “सर्वे देवा: स्थिता देहे सर्वदेवमयी हि गौ:” अर्थात गाय की देह में समस्त देवी-देवताओं का वास होता है। पूर्ण पुरुषोत्तम योगेश्वर श्रीकृष्ण को गौ प्रेम तो जगजाहिर है। इसी कारण उन्हें “गोपाल” और ‘’गोविन्द’’ जैसे नामों से भी पुकारा जाता है। कार्तिक मास की शुक्लपक्ष की अष्टमी को मनाया जाने वाला गोपाष्टमी का पर्व भारतीय संस्कृति की मूलाधार मानी जाने वाली गौ माता के पूजन वंदन का पावन पर्व है। यूं तो यह पर्व समूचे देश में मनाया जाता है किन्तु बृज क्षेत्र के निवासी इसे भारी श्रद्धा से मनाते हैं। इस दिन प्रातःकाल गायों को स्नान आदि कराकर धूप-दीप, गंध, पुष्प, अक्षत, रोली, गुड़, आदि से गाय का पूजन कर आरती उतारकर उनकी चरणरज को मस्तक पर लगाया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है तथा श्री सौभाग्य की वृद्धि होती है।
गोपाष्टमी से शुरू हुई थी बाल कृष्ण की गौचारण लीला
गोपाष्टमी पर्व से जुड़ा भगवान श्रीकृष्ण के बचपन का एक भावपूर्ण प्रसंग गायों के प्रति उनके गहरे लगाव को परिलक्षित करता है। पद्म पुराण की कथा कहती है कि बालकृष्ण ने जब छठे वर्ष की आयु में प्रवेश किया तो माता यशोदा से बोले, मैय्या अब हम बड़े हो गये हैं, इसलिए अब हम बछड़े नहीं; गैया चराने जाएंगे। मैय्या हंसी और अनुमति के लिए उन्हें नंदबाबा के पास भेज दिया। छोटे कन्हैया की यह बात सुनकर मैया यसोदा और नंदबाबा मुस्कुरा कर बोले कि लल्ला अभी तुम बहुत छोटे हो इसलिए बछड़े ही चराओ। पर कन्हैया ने तो गैया चराने की हठ ही ठान ली। थकहार कर नंदबाबा उन्हें लेकर महर्षि गर्ग के पास गये और गौ चारण का शुभ मुहूर्त देखने को कहा। महर्षि ने पंचांग देख कर बताया कि इस कार्य के लिए आज का मुहूर्त सबसे शुभ है। उनकी बात सुन कर नंदबाबा ने कन्हैया को गौ चारण की स्वीकृति दे दी। वह शुभ तिथि थी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी। कहते हैं कि उस अष्टमी के दिन मैया यशोदा गौ चारण पर भेजने से पहले जब अपने लल्ला का श्रृंगार कर जैसे ही उनको जूतियां पहनाने लगीं; कन्हैया ने उन्हें रोक दिया और बोले मैय्या जब मेरी गौएं जूतियां नहीं पहनतीं तो मैं कैसे पहन सकता हूं। तब से कृष्ण जब तक वृन्दावन में रहे, कभी पैरों में जूतियां नहीं पहनीं। आगे-आगे गायें और उनके पीछे बांसुरी बजाते कन्हैया व उनके अग्रज बलराम और ग्वाल-गोपाल। इस तरह द्वापर युग में गोपाष्टमी से भगवान कृष्ण की गौ चारण लीला का शुभारम्भ हुआ था। एक अन्य पौराणिक आख्यान के अनुसार श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी तक गाय-गोप-गोपियों की रक्षा हेतु गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। गर्व चूर होने पर कार्तिक शुक्ल अष्टमी को देवराज इंद्र ने श्रीकृष्ण की शरण में आकर अपनी पराजय स्वीकार की और गोमाता कामधेनु के दुग्ध से कृष्ण का अभिषेक किया। इसी कारण उनका नाम ‘’गोविंद’’ पड़ा।
अपार है गौ माता की महिमा
हमारी ऋषि संस्कृति में वेदों को ज्ञान का अक्षय स्रोत माना गया है और वेदों में गाय की महत्ता और उसके अंग-प्रत्यंग में दिव्य शाक्तियों का विषद वर्णन मिलता है। वैदिक ऋषि कहते हैं कि गौ माता के मुख में चारों वेदों, सींगों में शंकर व विष्णु, मस्तक में ब्रह्मा, ललाट में रुद्र, नेत्रों में सूर्य व चंद्र, उदर में कार्तिकेय, गोबर में लक्ष्मी, गोमूत्र में भवानी, चरणों के अग्रभाग में आकाशचारी देव शक्तियां निवास करती हैं। इसलिए उनकी पूजा, उपासना, सेवा-सुश्रूषा से सभी देवताओं का पूजन अपने आप हो जाता है। गौ के पैरों में लगी हुई मिट्टी का तिलक करने से तीर्थ-स्नान का पुण्य मिलता है। यही वजह है कि सनातन धर्म में गऊ को दूध देने वाला एक निरा पशु न मानकर सदा से ही उसे देवताओं की प्रतिनिधि माना गया है। ऋषि कहते हैं कि गायों का समूह जहां आराम से बैठकर सांस लेता है, वहां का सारा पाप नष्ट हो जाता है। तीर्थों में स्नान-दान, ब्राह्मणों को भोजन कराने व व्रत-उपवास तथा हवन-यज्ञ करने से जो पुण्य मिलता है, वही पुण्य गौ को चारा या हरी घास खिलाने से प्राप्त होता है। गौ-सेवा से दुख-दुर्भाग्य दूर होता है और घर में सुख-समृद्धि आती है। जो लोग श्रद्धापूर्वक गौ सेवा करते हैं, देवता उन पर सदैव प्रसन्न रहते हैं। जिन घर में भोजन करने से पूर्व गौ-ग्रास निकाला जाता है, उस परिवार में अन्न-धन की कभी कमी नहीं होती है। गाय का पूजन करके उनका संरक्षण करने से मनुष्य को अनंत पुण्य फल की प्राप्ति होती है। गोबर में लक्ष्मी का वास होने से इसे “गोवर”अर्थात गौ का वरदान कहा गया है। गोबर से लीपे जाने पर ही भूमि यज्ञ के लिए उपयुक्त होती है। इसी कारण प्राचीन काल से हमारे यहाँ गाय के गोबर से बने उपलों का यज्ञशाला और रसोई घर दोनों जगह प्रयोग होता रहा है। सार रूप में कहें तो गाय की महिमा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। गौ माता की महिमा अपरंपार है। पुराणों की मान्यता है कि गौ माता मोक्ष दिलाती है। इसलिए आदिकाल से ही भारतीय समाज में गोमाता के पूजन की बड़ी मान्यता रही है। वैदिक ऋषि कहते हैं कि गाय के दूध, दही, घी, गोबर और गोमूत्र से निर्मित पंचगव्य तन-मन और आत्मा को शुद्ध कर देता है। प्रतिदिन पंचगव्य का सेवन करने वाला सभी व्याधियों से मुक्त रहता है; उस पर जहर का भी असर नहीं होता। किवदंती है कि माँ मीरा जहर पीकर इसीलिए जीवित बची रहीं क्योंकि वे पंचगव्य का नियमित सेवन करती थीं। शास्त्रों में कहा गया है- “मातर: सर्वभूतानां गाव:” यानी गाय समस्त प्राणियों की माता है। जैसे माँ अपने बच्चों को हर स्थिति में सुख देती है, वैसे ही गौ माता मनुष्य जाति हर भांति को लाभ प्रदान करती हैं। इसी कारण आर्य-संस्कृति में पनपे शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्य, जैन, बौद्ध, सिख आदि सभी धर्म-संप्रदायों में उपासना एवं कर्मकांड की पद्धतियों में भिन्नता होने पर भी वे सब गौ के प्रति आदर भाव रखते हैं तथा गाय को “गौ माता” कहकर संबोधित करते हैं।
आधुनिक विज्ञान भी साबित करता है गौ माता की महत्ता
इस धरती पर गाय ही एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिसका दूध ही नहीं वरन मल-मूत्र भी गुणकारी व पवित्र भी माना गया है। गोदुग्ध ही नहीं गोमाता के पंचगव्य (दूध, दही घी, गोमूत्र व गोमय का निर्धारित सम्मिश्रण) के अमृतोपम गुणों की उपयोगिता अब वैज्ञानिक प्रयोगों से भी पुष्ट हो चुकी है। गाय के दूध में वे सारे तत्व मौजूद हैं, जो जीवन के लिए जरूरी हैं। आज पशु वैज्ञानिक भी मानते हैं कि गाय के दूध में सारे पौष्टिक तत्व मौजूद होते हैं। गोबर के उपलों से बनी राख खेती के लिए अत्यंत गुणकारी सिद्ध हो रही है। गोबर की खाद से फसल अच्छी होती है और सब्जी, फल, अनाज के प्राकृतिक तत्वों का संरक्षण भी होता है। आयुर्वेद के अनुसार, गोबर हैजा और मलेरिया के कीटाणुओं को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है। आयुर्वेद में गौमूत्र अनेक असाध्य रोगों की चिकित्सा में उपयोगी माना गया है। आयुर्वेद शास्त्रियों ने गौ मूत्र को पेट की बीमारियों, चर्म रोग, बवासीर, जुकाम, जोड़ों के दर्द, हृदय रोग व मोटापा की कारगर औषधि बताया है।
गौ माता के रक्षण व संवर्धन को राष्ट्रिय कर्त्तव्य मानें
वर्तमान के प्रदूषण से भरे वातावरण की शुद्धि में गाय की भूमिका समझ लेने के बाद हमें गो धन की रक्षा में पूरी तत्परता से जुट जाना चाहिए तभी गोविंद-गोपाल की पूजा सार्थक होगी। समझना होगा कि आने वाले दिनों के गंभीर संकटों से हमारी रक्षा करने में गौ माता पूर्ण सक्षम है किंतु दुर्भाग्यवश हम लोग इस सच्चाई से अनजान हैं। मनुष्य अगर गौ माता को महत्व देना सीख ले तो उसके सभी दुख दूर हो सकते हैं। गोपाष्टमी पर्व का मूल उद्देश्य है गौ-संवर्धन की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करना। अतएव इस पर्व की प्रासंगिकता आज के युग में और अधिक है। हमें चाहिए कि हम जिस गाय को हम गौ माता कहकर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं, उसको बचाने और पालन पोषण को अपना राष्ट्रिय कर्त्तव्य मानें। मानव जीवन, प्रकृति तथा पर्यावरण की दृष्टि से भी गौ रक्षा अति महत्वपूर्ण है। गाय बचेगी तभी राष्ट्र बचेगा।
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