सर्वोच्च न्यायालय ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्य स्टेटस को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है। कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा है कि विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक स्टेटस को बनाए रखने का हकदार है। शीर्ष अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 30 का हवाला देते हुए कहा कि कोई भी धार्मिक संगठन शिक्षण संस्थान की स्थापना और उसे संचालित कर सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की पीठ ने ये फैसला सुनाया। इस बेंच में चीफ जस्टिस के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा शामिल रहे। इन सभी जजों का ये मानना था कि एक धार्मिक संगठन शिक्षण संस्थान चला सकता है। लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्टेटस बना रहेगा या नहीं इस पर अब तीन जजों की बेंच सुनवाई करेगी। इस मामले की सुनवाई अभी होती रहेगी।
क्या है पूरा मामला
मामला कुछ यूं है कि वर्ष 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना अंग्रेजों की मदद से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट बनाकर की गई थी। बाद में 1951 में एएमयू एक्ट 1920 के सेक्शन 8 और 9 को खत्म कर दिया गया। 1965 में इसे सरकार ने अधिकृत कर लिया। बाद में वर्ष 1967 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की बेंच से इस विश्वविद्यालय से अल्पसंख्यक का दर्जा छीन लिया। सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि चूंकि भारत सरकार विश्वविद्यालय की देखरेख कर रही थी तो इसे अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दिया जा सकता।
हालांकि, 13 साल बाद वर्ष 1981 में कांग्रेस सरकार ने कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया। केंद्र सरकार ने AMU एक्ट के सेक्शन 2(1) में संशोधन करके इसे दोबारा से अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। कांग्रेस सरकार का तर्क था कि एएमयू मुस्लिमों की पसंदीदा जगह है। 2005 में एक बार फिर से ये मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचा। बाद में वर्ष 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1981 में केंद्र सरकार के द्वारा दिए गए अल्पसंख्यक दर्जे को अवैध करार दिया और फैसला दिया कि एएमयू मुस्लिमों को 75 फीसदी आरक्षण देना बंद करे।
अब उसी मामले में एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला सुनाया है।
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