संस्कृति

सूर्य उपासना का अनूठा लोकपर्व है छठ पूजा, जानिए लोक परंपरा का वैज्ञानिक पक्ष

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पूनम नेगी

जीवन के प्रत्यक्ष देवता हैं सूर्य। भारत की सनातन संस्कृति में सूर्य को ऊर्जा का अक्षय स्रोत माना जाता है। सूर्य षष्ठी अर्थात छठ का लोकपर्व धरतीवासियों को सविता देवता के अनेकानेक अनुदान वरदान बांटता है। दीपावली के छह दिन बाद मनाये जाने वाले छठ पर्व  के दौरान सूर्योपासना के तीन दिवसीय आयोजन में उदय व अस्ताचलगामी सूर्य नारायण को भावभरा अर्ध्य चढ़ाया जाता है। इस पर्व के पूजन में मंत्रोच्चारण नहीं वरन लोकगीत की गूंज सुनायी देती है। कोई कर्मकाण्ड नहीं, कोई ऊंच -नीच नहीं, कोई भेदभाव नहीं। सिर्फ स्वस्थ जीवन, सुसंतान की कामना और लोकमंगल के भाव से जीवन के प्रत्यक्ष देवता सूर्य नारायण का भावपूर्ण नमन-वंदन। लोक परंपरा की मानें तो छठ पर्व में सूर्योपासना करने से छठ माई प्रसन्न होती हैं और मनोवांछित कामना पूर्ण करती हैं।

रामायण व महाभारत के अलावा विष्णु पुराण, देवीभागवत और ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि धर्मग्रंथों में छठ पर्व महत्व बताने वाले अनेक  कथानक वर्णित हैं।   इस पर्व की शुरुआत महाभारत काल में कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ पर्व के दौरान सूर्यदेव को अर्घ्य दान की कर्ण प्रणीत पद्धति ही प्रचलित है। कहा जाता है कि श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब भी इस दिन सूर्य की उपासना कर कुष्ठ रोग से मुक्त हुए थे।

इस व्रत के फलस्वरूप च्वयन मुनि की पत्नी सुकन्या ने अपने जराजीर्ण पति को पुनर्यौवनदिलाया था। पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने भी छठ व्रत से अर्जित तप के बल पर अपने पतियों को उनकी खोयी प्रतिष्ठा वापस दिलायी। इस पर्व से जुड़ी एक प्रमुख पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में प्रियंवद नाम के एक अत्यंत शूरवीर व प्रजावत्सल राजा थे। वे संतान न होने से मन ही मन बहुत दुखी रहते थे। तब महर्षि कश्यप द्वारा कराये गये पुत्रेष्टि यज्ञ से उनकी पत्नी मालिनी को पुत्र तो हुआ परंतु मृत। शोकाकुल राज प्रियंवद पुत्र की मृत देह से साथ जब खुद प्राण त्यागने को प्रस्तुत होने लगे तो तभी वहां एक देवकन्या प्रगट हुई और उनसे कहा कि सृष्टि की मूल तत्वों के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। तुम सूर्यदेव के साथ मेरा पूजन करो, इससे तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी। सूर्यदेव और देवी षष्ठी के व्रत पूजन से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने भी उपवास कर सूर्यदेव की आराधना की थी।

स्वच्छता, समता व सादगी का संदेशवाहक

स्वच्छता समता व सादगी के विशिष्ट लोक संस्कारों के कारण सूर्य उपासना का यह वैदिक युगीन लोकपर्व अपने मूल केन्द्र पूर्वी भारत (बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश और नेपाल की तराई वाला क्षेत्र) की सीमाएं लांघकर देशव्यापी ही नहीं, समूचे विश्व के प्रवासी भारतीयों के मध्य खासा लोकप्रिय हो गया है। छठ पर्व के दौरान साफ-सफाई का अत्यधिक ध्यान रखा जाता है। छठ पूजा पर गाय के गोबर से पूजा स्थल को लेप कर शुद्घ किया जाता है। घाटों की मरम्मत और सफाई का काम तो दिवाली खत्म होते ही शुरू हो जाता है। स्वयंसेवी संस्थाएं और राज्य प्रशासन भी अपना भरपूर योगदान देते हैं। जिन रास्तों से होकर व्रती घाट पर जाते हैं उनकी सफाई अपना घर समझ कर की जाती है। जिन घरों में छठ नहीं होता वो भी साफ-सफाई से लेकर छठ के अन्य कामों में अपना योगदान देने को तत्पर रहते हैं। छठ के लिए सफाई के साथ पवित्रता का होना भी जरूरी है। इसीलिए धुले घर-आंगन फिर से धोए जाते हैं। छत की सफाई का खास ध्यान रखा जाता है, क्योंकि छठ में चढ़ाए जाने वाले प्रसाद ठेकुआ के लिए गेहूं धोकर वहीं सुखाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए बाजार से खरीदा आटा इस्तेमाल नहीं किया जाता। धुले गेहूं को पीसने के लिए आटा चक्कियों की भी विशेष सफाई की जाती है। यदि प्रसाद सामग्री रसोई में बनानी हो, तो रसोई में बिना स्नान प्रवेश वर्जित है। पूजा गृह में ही मिट्टी के चूल्हे का बंदोबस्त किया जाता है, जिसमें सूखी लकड़ियां जलाकर पूजा के लिए खास बर्तनों में प्रसाद बनाने की परम्परा है। हालांकि आधुनिकता का प्रभाव इस परम्परा पर भी पड़ा है। सफाई व शुद्धता में कोई त्रुटि न हो, व्रती इसका पूरा ध्यान रखते हैं। स्वच्छता का संस्कार गढ़ने के साथ यह लोकपर्व अद्भुत सामाजिक एकता का भी संदेश देता है। जानना रोचक होगा कि सूर्य देव को बांस के बने जिस सूप और दउरे(डाला) में प्रसाद अर्पित किया जाता है,वह समाज की तथाकथित सर्वाधिक निम्र एवं पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं तथा छठ घाट अर्थात् नदियों, तालाबों या सरोवरों पर सूर्य को अर्घ्य देने के लिए सभी जाति के लोग आपसी भेदभाव को मिटाकर एक समान श्रद्घा और आस्था के साथ एकत्र होते हैं। इसी तरह सादगी भी छठ पूजा का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। इस पर्व के लिए न भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की सोंधी सुगंध बिखेरता है। जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी सहज सरल उपासना पद्धति इस खासियत है जिसके केंद्र में है किसान और ग्रामीण जीवन। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पंडित-पुरोहित की।

“नहाय-खाय” की अनोखी लोक परंपरा

लोक परंपरा के अनुसार छठ पर्व के चार दिवसीय लोक उत्सव छठ का शुभारंभ ‘’नहाय-खाय’’ की परम्परा से होता है। इस दिन व्रती गंगा में स्नान करके लौकी की बिना लहसुन-प्याज की सब्जी और अरवा चावल या कद्दू-भात का भोजन दिनभर में केवल एक बार करते हैं। घर के अन्य सदस्यों का उस दिन वही प्रसाद खाना होता है। नहाए-खाए के अगले दिन व्रती दिनभर का उपवास रखती है और संध्याकाल में पूजा-अर्चना करती है।  पूजा के बाद व्रती महिला भोग से व्रत तोड़ती है, जिसे ‘’खरना’’ कहते हैं। खरना के उपरांत घर के सभी लोग प्रसाद ग्रहण करते हैं। तीसरे दिन संध्या समय डूबते सूरज को अर्घ्य देने के लिए गंगातट या  अन्य नदी- तालाब पर श्रद्धालुओं का हुजूम जुटता है। छठ के गीत गाते हुए सभी लोग पूजन सामग्री को बांस से बने सूपों में सजाकर साफ धुली धोती में बांधकर श्रदापूर्वक सिर पर रखकर नंगे पैर घाट तक ले जाते हैं और अस्त होते सूर्य की दिशा क्रम में घी के दिये जलाकर रखते हैं। व्रती महिला नदी में स्नान कर पानी में खड़े होकर ही भीगे आंचल को हथेलियों पर रखती है। दूसरा व्यक्ति सूप से एक-एक करके व्रती महिला की हथेलियों पर प्रसाद रखते जाते हैं। इस तरह अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देकर सभी घर वापस आ जाते हैं और अर्घ्य दिए सूपों को श्रद्धा से पूजा गृह में रख दिया जाता है। फिट अगले दिन सूर्योदय से पूर्व सभी लोग नहा-धोकर घाट पर जाते हैं। सूपों के बीच की सामग्री रात में बदल दी जाती हैं तथा पूर्व की भांति उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही छठ की पूजा संपन्न की जाती है।

लोकपर्व का वैज्ञानिक पक्ष

हमारे ऋषि मुनियों ने अपने अनुसंधानों में पाया था कि किसी विशेष दिवस पर सूर्य किरणों की रोगों को नष्ट करने की क्षमता बढ़ जाती है। इस मान्यता की पुष्टि के लिये किये गये वैज्ञानिक विश्लेषण में पाया गया कि छठ पर्व के दिन एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं तथा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय इन किरणों की सघनता बढ़ जाती है। जल में खड़े होकर या नदी किनारे अर्घ्य देने की परम्परा के पीछे इन किरणों के दुष्प्रभाव से बचना एक प्रमुख कारण हो सकता है। यूं भी हमारे आयुर्वेद में  जल-चिकित्सा में ‘कटिस्नान’ को विशेष उपयोगी माना गया है। भारतीय शरीर विज्ञानियों के अनुसार इससे कई रोगों का निवारण होता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

कुदरत को सहेजते लोकगीत

दीपावली बीतते ही बिहार के गांव-घरों में शारदा सिन्हा, देवी, कल्पना और अनुराधा पौडवाल की मधुर आवाजों में गाए छठ के लोकगीत गूंजने लगते हैं। जिन घरों में छठ का व्रत नहीं होता वो भी इन लोकगीतों को सुनने से पीछे नहीं हटते। इन गीतों को गाने की परंपरा उतनी ही पुरानी है, जितनी छठ पर्व। छठ पर्व को लोकगीत से अलग नहीं किया जा सकता। अब बड़े पैमाने पर ये गीत सोशल मीडिया पर भी सुनने को मिलते हैं। कोकिला शारदा सिन्हा द्वारा गाया यह गीत आजकल खास लोकप्रिय है-

पहिले पहिल हम कईनी, छठी मईया व्रत तोहार।

करिहा क्षमा छठी मईया, भूल-चूक गलती हमार।

सब के बलकवा के दिहा, छठी मईया ममता-दुलार।

लिहिएं अरग हे मईया, दिहीं आशीष हजार।

इस गीत में व्रती छठ माता से कहती है- वह पहली बार उनका व्रत कर रही है, कोई भूल हो तो मां क्षमा करे। बच्चों को छठी मईया का स्नेह मिले। सुख-संसार बना रहे। छठी मईया के प्रति उसकी अपार भक्ति और श्रद्घा है। माता उसका अर्घ्य स्वीकार करे और उसे अपना आशीष प्रदान करे। छठ पूजा के विभिन्न लोकगीतों में जल और प्रकृति की महत्ता को भी बखूबी दर्शाया जाता है। जल के बिना छठ की पूजा असंभव है। छठ के गीत परंपरा, आस्था, सामाजिकता, भक्त, भगवान, प्रकृति को एक अटूट बंधन में बांधते हैं और विलुप्त हो रहे तालाब,   पोखर और नदियों को जीवन दान के लिए भी प्रेरित करते हैं।

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