दिल्ली में सिखों का 1984 नरसंहार: इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद चार दिनों तक दहशत और खून की होली
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दिल्ली में सिखों का 1984 नरसंहार: इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद चार दिनों तक दहशत और खून की होली

ठीक चालीस साल पहले, दिल्ली सिखों के नरसंहार की लपटों में झुलस रही थी।

by मनोज रघुवंशी, वरिष्ठ पत्रकार
Nov 3, 2024, 04:03 pm IST
in भारत
दिल्ली में सिखों का नरसंहार

दिल्ली में सिखों का नरसंहार

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ठीक चालीस साल पहले, दिल्ली सिखों के नरसंहार की लपटों में झुलस रही थी। इंदिरा गांधी की हत्या के दिन से लेकर चार दिनों तक, यानी 31 अक्टूबर से 3 नवम्बर तक, भयावह दृश्यों से दिल्ली की रूह काँप गयी थी।

31 अक्टूबर :

सुबह ये खबर बिजली की तरह कौंध गयी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को गोली मार दी गयी है। ये संवाददाता अपने पत्रकार मित्र अनिल त्यागी के स्कूटर पर उस के साथ AIIMS पहुंचा। संयोग से दोनों मित्रों ने एक भूल करी, जो कि अंततः बहुत ज्ञानवर्धक साबित हुई।

इस संवाददाता के आग्रह पर अनिल त्यागी स्कूटर को AIIMS के डायरेक्टर के निवास पर ले गया। इस संवाददाता को ये नहीं सूझा कि जब प्रधानमंत्री को गोली लगी हो, और वो AIIMS में भर्ती हों, तो डायरेक्टर अपने घर पर क्यों होंगे? बहरहाल, डायरेक्टर साहिब सेवा निवृत्त हो चुके थे, और उन का बंगला बंद था।

दोनों पत्रकार वापस लौटने पर मजबूर हो गए। उन्हें ये नहीं पता था कि किस्मत से उन्हें वो समाचार मिलने जा रहा है जिसके लिए सैकड़ों पत्रकार AIIMS के इमरजेंसी वॉर्ड के सामने औपचारिक सूचना के इंतज़ार में खड़े थे। अनिल त्यागी और ये संवाददाता भी उस ही भीड़ में शामिल होने जा रहे थे। एकाएक दोनों पत्रकारों ने देखा कि उन के दाहिनी ओर डॉक्टरों की एक भीड़ खड़ी थी जो बहुत गंभीर लग रही थी।

अनिल ने स्कूटर रोका और दोनों पत्रकार बड़ी ही सहजता से डॉक्टरों की उस भीड़ में शामिल हो गए। उन में वो डॉक्टर भी थे जो कुछ देर पहले इमरजेंसी वॉर्ड में ड्यूटी पर थे। उन के सामने इंदिरा गाँधी को लाया गया था। वो अपने दूसरे डॉक्टर साथियों को बता रहे थे कि इंदिरा गाँधी अस्पताल पहुँचने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो चुकी थीं। न पल्स थी, न दिल की धड़कन, न पुतलियों में हलचल। पूरी बात समझने के बाद इस पत्रकार ने हलके से पूछा ‘डॉक्टर साहिब, क्या इंदिरा गाँधी clinically dead थीं?’ डॉक्टर ने जवाब दिया ‘clinically ही नहीं, वो otherwise भी dead थीं’। इस के बाद दोनों पत्रकार मित्रों को किसी औपचारिक घोषणा की ज़रूरत ही नहीं रह गयी थी। एकाएक डॉक्टरों को समझ में आया कि उन के बीच दो अनजान लोग खड़े हैं। एक डॉक्टर ने पूछा ‘आप दोनों कौन हैं?’ दोनों ने जवाब दिया ‘हम लोग ऐसे ही गुज़र रहे थे, आप लोगों को देख कर रुक गए’।

चुपचाप दोनों ने स्कूटर को एक किनारे खड़ा किया और AIIMS के Academic Block में दाखिल हो गए। ये रास्ता इमरजेंसी वॉर्ड के पीछे वाले दरवाज़े तक पहुंचाता था। बिना रोक टोक दोनों पत्रकार इमरजेंसी वॉर्ड के अंदर घुस गए। इमरजेंसी वॉर्ड का सामने वाला दरवाज़ा बंद था, और उस के उस पार पत्रकारों की भीड़ खड़ी थी। इस से पहले कि कोई दोनों पत्रकारों से पूछ पाता कि आप दोनों यहां कैसे पहुँच गए, चंद्रशेखर जी सामने वाले दरवाज़े से इमरजेंसी वॉर्ड के अंदर घुसे और दोनों पत्रकारों ने उन्हें नमस्कार किया।

उन्होंने दोनों का हाथ पकड़ा और अपने साथ छठी मंज़िल तक ले गए। वहां चंद्रशेखर जी को दोनों पत्रकारों से दूर ले जा कर वरिष्ठ डॉक्टरों ने कुछ जानकारी दी, जो उन्होंने बहुत संजीदगी से सर हिला कर स्वीकार की। लेकिन उन्होने वापस लौटते हुए वो जानकारी दोनों पत्रकारों से साझा नहीं की।

चंद्रशेखर जी के साथ-साथ दोनों पत्रकार इमरजेंसी वॉर्ड के सामने वाले दरवाज़े से बाहर आ गए। अब वापस जाने की न तो इजाज़त थी, और न ज़रूरत। चंद्रशेखर जी विदा हो गए और दोनों पत्रकार बाकी पत्रकारों के हुजूम में घुल-मिल गए। पत्रकार आपस में बात कर रहे थे। उन्हें जानकारी दी गयी थी कि इंदिरा गाँधी का ओपरेशन हो रहा है, और उन्हें खून चढ़ाया जा रहा है। वरिष्ठ पत्रकार कुमकुम चड्ढा ने इस संवाददाता को दूर खड़ी एक वैन दिखाई जो तथाकथित रूप से खून ले कर आयी थी।

AIIMS के बड़े डॉक्टरों ने इंदिरा गाँधी के जीवित होने का प्रपंच इसलिए रचा था क्यूंकि उन के बेटे राजीव गाँधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के दिल्ली पहुँचने का इंतज़ार था। राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री घोषित होने से पहले ये सूचना ज़ाहिर नहीं की जा रही थी कि इंदिरा गाँधी अब नहीं रहीं।

दूरदर्शन ने इंदिरा गाँधी की मृत्यु की सूचना शाम 6 बजे दी, हालांकि उस से पहले BBC रेडियो और कई राष्ट्रिय दैनिकों के विशेष संस्करणों द्वारा खबर बाहर आ चुकी थी। शाम तक AIIMS के बाहर काफ़ी भीड़ इकठ्ठा हो चुकी थी, जिस में ज़्यादातर लोग कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। ज़ाहिर है उन के मन में रोष भी था, और दुःख भी।

लौटते हुए हुजूम ने AIIMS के चौराहे पर एक स्कूटर सवार सिख पर हमला बोल दिया। ये अगले 4 दिनों तक चलने वाले दंगे की पहली वारदात थी।

नवम्बर 1, 2 और 3 :

प्रधानमंत्री राजीव गाँधी सत्ता पर काबिज़ हो चुके थे।

1 नवम्बर को इंदिरा गाँधी के पार्थिव शरीर को तीन मूर्ति भवन लाया गया, और जनता के अंतिम दर्शनों के लिए स्थापित कर दिया गया।

1, 2 और 3 नवम्बर को इंदिरा गाँधी के पार्थिव शरीर की तीन मूर्ति भवन तक की यात्रा, और तीनों दिन उन को अंतिम विदाई देने वालों का तांता, और 3 नवम्बर को अंतिम संस्कार के लिए तीन मूर्ती भवन से शक्ति स्थल तक की यात्रा, और अंतिम संस्कार का सम्पूर्ण दृश्य, दूरदर्शन पर लगातार दिखाया जाता रहा। करोड़ों लोग देख भी रहे थे और प्रभावित भी हो रहे थे।

1 नवम्बर से इंदिरा गाँधी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए लोगों का तांता लगातार बना रहा। बीच-बीच में कई टुकड़ियां आती थीं और ज़ोर-ज़ोर से नारा लगाती थीं: “खून का बदला खून से लेंगे”। ये सन्देश बार-बार दोहराया जाता रहा। सुबह से शाम तक ये सन्देश गूँज रहा था कि “खून का बदला खून से लेंगे”।

राजीव गाँधी का दाहिना हाथ थे अरुण नेहरू। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता जैसे एच. के. एल. भगत, सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, ललित माकन वगैरह सब नेता अपनी-अपनी टुकड़ियों का संचालन कर रहे थे। तीन मूर्ति भवन से लौटने वाली भीड़ चारों दिशाओं में दिल्ली भर में फ़ैलती जा रही थी। ये लौटती हुई भीड़ जगह-जगह उग्र होने लगी। कहीं सिखों के टैक्सी स्टैंड पर आक्रमण किया, कहीं उन की दुकानों और बिल्डिंगों पर। इस दिन चुन-चुन कर सिखों की फ़ैक्टरियों और दूसरी सम्पत्तियों को दिल्ली में जगह-जगह आग के हवाले कर दिया गया। चारों तरफ़ आसमान में काला धुआं देखा जा सकता था।

2 नवम्बर से बड़े पैमाने पर कत्लेआम शुरू हुआ। निशाना था पूर्वी दिल्ली। त्रिलोकपुरी का नरसंहार सब से बड़ा था। इस संवाददाता के सम्पादक अयूब सईयद मुंबई से दिल्ली पहुँच चुके थे। जब शाम को इस संवाददाता ने अपने सम्पादक को त्रिलोकपुरी की घटना बताई तो उन का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उन के होठ इतना ज़्यादा सूख गए कि लगा जैसे किसी ने सफ़ेद पाउडर छिड़क दिया हो।

3 नवम्बर को पश्चिमी दिल्ली में नरसंहार हुआ। मंगोलपुरी और अन्य इलाकों में। उत्तरी दिल्ली भी प्रभावित हुई लेकिन थोड़ा कम। सब जगह योजनाबद्ध तरीके से सिखों के गले में टायर डाल के, और तेल डाल के, आग लगा दी गयी। औरतों और बच्चों को भी नहीं बक्शा गया। इस संवाददाता का सगा भाई, धीरज, कांग्रेस पार्टी का कट्टर कार्यकर्ता था। उस ने स्वयं इस संवाददाता के सामने ये कुबूल किया था कि हम ने वोटर लिस्ट देख-देख कर निशाना बना कर सिखों पर हमला किया।

इस संवाददाता ने कुछ ऐसी बाते देखीं जो आँख खोल देने वाली थीं। मसलन सूचना मिली कि रकाबगंज गुरुद्वारे के अंदर से फायरिंग हुई है। ये संवाददाता अपने एक मित्र के साथ बुलेट मोटरसाइकिल पर रकाबगंज के गेट पर पहुँच गया। ये अपने आप में बड़ी बात थी क्यूंकि उस सड़क पर आम आदमी का आना-जाना बंद था। शायद सुरक्षाकर्मियों ने इस संवाददाता के हेयरकट से उसे पुलिस वाला समझा और जाने दिया। रकाबगंज गुरुद्वारे के गेट पर एक काली अम्बैसडर कार खड़ी थी जिस के काले शीशे ऊपर चढ़े हुए थे। इस संवाददाता ने गाड़ी के बाहर खड़े होकर जानने की कोशिश की कि अंदर कौन है। शीशा नीचे हुआ और इस संवाददाता ने देखा कि गाड़ी के अंदर प्रधानमंत्री कार्यालय के एक वरिष्ठ व्यक्ति बैठे हैं जिन से ये संवाददाता परिचित था। वो थे वी. एस. त्रिपाठी। वो प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से मीडियाकर्मियों से संपर्क साध कर रखते थे।

इन्ही वी. एस. त्रिपाठी ने इंदिरा गाँधी की हत्या के 20 दिन बाद, यानी 19 नवम्बर 1984 को, व्यक्तिगत तौर पर इस संवाददाता के सम्पादक अयूब सईयद को फोन कर के ये हिदायत दी कि प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने जो भाषण दिया है उस में से एक लाइन रिपोर्ट न की जाए। वो लाइन थी ‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है’। यानी यानी इंदिरा गाँधी की जयंती पर बोट क्लब की रैली में राजीव गाँधी ने सब के सामने ये ऐलान किया था कि इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों का कत्लेआम तो स्वाभाविक ही था। इस संवाददाता का मानना है कि जैसे इसे अपने सम्पादक का फ़ोन आया था की ये लाइन रिपोर्ट नहीं करनी है, वैसे ही और सम्पादकों ने भी निर्देश जारी किये होंगे। उन सभी सम्पादकों से वी. एस. त्रिपाठी ने ही अनुरोध किया होगा इस का कोई सबूत तो नहीं है, लेकिन ये जग-ज़ाहिर है कि ये लाइन बाकी संवाददाताओं ने भी रिपोर्ट नहीं करी।

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