वास्तुकला के क्षेत्र में भारतीय धरोहर की एक प्रमुख विशेषता उसके प्राचीन मंदिरों और स्मारकों में देखी जा सकती है। काजीरंगा, खजुराहो और अजंता-एलोरा की गुफाएं, ये सभी भारतीय स्थापत्य कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। हमारे मंदिर और स्मारक न केवल अपनी वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध हैं, बल्कि इनमें धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व भी समाहित है। इनका निर्माण प्राचीन गणितीय और ज्यामितीय सिद्धांतों पर आधारित हैं, जो कि उनकी स्थिरता और सौंदर्य को सुनिश्चित करता है।
हिंदी में इन्हें मंदिर, कन्नड़ में देवस्थान, तेलुगु में देवालय, तमिल में कोइल या कोविल आदि कहा जाता है। प्राचीन संस्कृत साहित्य में मंदिरों के लिए कई शब्द हैं। जैसे- मठ, वायुन, कीर्ति, केसपक्ष, विहार, सुरवासा, सुरकुला, देवतायतन, अमरगारा, देवकुल, देवगृह आदि। इन्हें क्षेत्रीय नामों प्रासाद, विमान, क्षेत्र, गुड़ी, अम्बलम, पुण्यक्षेत्रम, देवल, देउला, देवस्थानम, कैंडी, पुरा और वाट से भी जाना जाता है। वैसे देखा जाए तो भारतीय मंदिर वास्तुकला की विविधता और समृद्धि भारतीय सभ्यता की गहराइयों को समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है। भारत की मंदिर वास्तुकला ने समय के साथ विभिन्न शैलियों में विकास किया है, जिनमें नागर, दक्षिणात्य, वेसर, होयसला, पल्लव, चालुक्य और खजुराहो शैलियां प्रमुख हैं। इन शैलियों के मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति, कला और इतिहास के जीवंत प्रतीक भी हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में मंदिर वास्तुकला का विकास प्राचीन काल से ही हुआ है। मंदिर वास्तुकला का यह विकास भौगोलिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न रूपों में हुआ। मंदिरों की स्थापत्य शैलियां भारत की विविधता और समृद्धि की प्रतीक हैं, जो सदियों से भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा रही हैं। भारत के मंदिरों की स्थापत्य शैलियों को मुख्यत: तीन प्रमुख श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- नागर, दक्षिणात्य और वेसर। इसके अतिरिक्त अन्य शैलियों ने भी इस स्थापत्य विरासत में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
नागर शैली उत्तर भारत में प्रमुखता से विकसित हुई। यह शैली मुख्यत: उत्तर भारत के गंगा-यमुना के मैदानों, राजस्थान और मध्य प्रदेश में पाई जाती है। प्रमुख शिल्पशास्त्रों के अनुसार नागर शैली के मंदिरों के आठ प्रमुख अंग हैं- अधिष्ठान (मूल आधार, जिस पर संपूर्ण भवन खड़ा किया जाता है), शिखर (मंदिर का शीर्ष भाग अथवा गर्भगृह का ऊपरी भाग), कलश (शिखर का शीर्षभाग, जो कलश या कलशवत होता है), आमलक (शिखर के शीर्ष पर कलश के नीचे का वर्तुलाकार भाग), ग्रीवा (शिखर का ऊपरी ढलवां भाग), कपोत (किसी द्वार, खिड़की, दीवार या स्तंभ का ऊपरी छत से जुड़ा भाग, कोर्निस), मसूरक (नींव और दीवारों के बीच का भाग) और जंघा (दीवारें, विशेषकर गर्भगृह की)।
नागर शैली के मंदिरों की विशेषता यह है कि इनमें एक गर्भगृह (मंदिर का प्रमुख पवित्र स्थान) होता है, जिसके ऊपर एक ऊंचा शिखर (मंदिर का मुख्य शिखर) होता है। नागर शैली में मंदिरों के शिखरों को ‘रेखा शिखर’ के रूप में जाना जाता है। इन शिखरों की विशेषता यह होती है कि वे सीधी रेखाओं में ऊपर की ओर बढ़ते हैं और शिखर पर एक गोलाकार पत्थर (अमलका) से सुसज्जित होते हैं। शिखर के ऊपर आमतौर पर एक कलश भी स्थापित होता है। इस शैली में मंदिर के प्रवेश द्वार को ‘मुखमंडप’ कहा जाता है, जो सजावटी रूप से सजाया जाता है। उदाहरण के रूप में खजुराहो के कंदरिया महादेव मंदिर को लिया जा सकता है, जो नागर शैली का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इसमें अनेक शिखर और मंडप (छोटे प्रवेश द्वार) हैं, जो इस मंदिर को भव्य बनाते हैं।
दक्षिणात्य शैली दक्षिण भारत में विकसित हुई। इसे तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल में देखा जा सकता है। इस शैली के मंदिरों की विशेषता यह है कि इनमें ‘विमान’ (मंदिर का मुख्य शिखर) और ‘गोपुरम’ (मंदिर के प्रवेश द्वार पर विशाल द्वार) प्रमुख होते हैं। इस शैली के मंदिरों के विमानों में सीढ़ीनुमा संरचना होती है, जो ऊपर की ओर घटती जाती है और अंतिम छोर पर एक कपोल या कलश होता है। गोपुरम इस शैली की प्रमुख विशेषता है, जो मंदिर की सुरक्षा और भव्यता को दर्शाती है। गोपुरम के ऊपर विस्तृत नक्काशी और मूर्तियों का कार्य किया जाता है, जो मंदिर की सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करता है। मदुरै का मीनाक्षी मंदिर दक्षिणात्य शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर में भव्य गोपुरम और विस्तृत नक्काशीदार मंडप हैं, जो इसकी सुंदरता और भव्यता को बढ़ाते हैं।
वेसर शैली को दक्षिण और उत्तर भारत की स्थापत्य शैलियों का मिश्रण माना जा सकता है। यह शैली मुख्यत: महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में विकसित हुई। वेसर शैली में नागर और द्रविड़ शैली के तत्वों का संयोजन देखने को मिलता है। वेसर शैली के मंदिरों की विशेषता यह है कि इनमें शिखर और विमान के साथ-साथ अन्य स्थापत्य तत्वों का संयोजन होता है। कर्नाटक का होयसलेश्वर मंदिर वेसर शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर में नागर शैली के शिखर और दक्षिणात्य शैली के विमान का संयोजन किया गया है, जिससे यह मंदिर स्थापत्य का अद्वितीय उदाहरण बन गया है।
हिंदू वास्तुकला सदियों से साधारण चट्टानों को काटकर बनाए गए गुफा मंदिरों से लेकर विशाल और अलंकृत मंदिरों तक विकसित हुई, जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप और उससे आगे तक फैली। इससे एक विहित शैली का निर्माण हुआ, जिसका पालन आज भी दुनिया भर के आधुनिक हिंदू मंदिरों में किया जाता है। चारों तरफ और ऊपर से देखने पर हिंदू वास्तुकला के आवश्यक तत्व सटीक और सामंजस्यपूर्ण ज्यामिति हैं, चौकोर रूप और ग्रिड ग्राउंड योजनाएं, ऊंची मीनारें और विस्तृत सजावटी मूर्तिकला जिसमें देवता, उपासक, कामुक दृश्य, जानवर, पुष्प और ज्यामितीय बनावट शामिल हैं। उपयोग की जाने वाली पहली सामग्री लकड़ी और टेराकोटा थी, लेकिन स्थापत्य धीरे-धीरे ईंट और पत्थर, विशेष रूप से बलुआ पत्थर, ग्रेनाइट, शिस्ट और संगमरमर पर चले गए।
प्रभावशाली गुफा मंदिरों के उत्कृष्ट उदाहरणों में मालवा के उदयगिरि के मंदिर और 5वीं शताब्दी ई.पू. के मंदिर शामिल हैं। शुरुआती स्वतंत्र मंदिर देवगढ़ में बचे हैं और इसमें 6ठी शताब्दी ई.पू. का विष्णु को समर्पित दशावतार मंदिर भी शामिल है। इस मंदिर का मूल स्थापत्य वास्तु पुरुष मंडल से लिया गया है। वास्तु का अर्थ है आवास संरचना, पुरुष-हिंदू परंपरा के मूल में सार्वभौमिक सार है, जबकि मंडल का अर्थ है वृत्त। वास्तु पुरुष मंडल एक रहस्यमय आरेख है, जिसे संस्कृत में यंत्र भी कहा जाता है। इसके अनुसार, मंदिर के लिए सबसे पवित्र लेआउट 8़8 ग्रिड है, जिसे भेकापड़ा और अजीरा भी कहा जाता है। लेआउट एक ज्वलंत भगवा केंद्र को प्रतिच्छेदित विकर्णों के साथ प्रदर्शित करता है, जो पुरुष का प्रतीक है।
मंदिर की धुरी में चार महत्वपूर्ण दिशाएं हैं, जो उपलब्ध स्थान के भीतर धुरी के चारों ओर एक पूर्ण वर्ग बनाती हैं। वर्ग जब एक वृत्त से घिरा होता है और ग्रिड में विभाजित होता है, तब पवित्र माना जाता है। यहां, वृत्त को हमारे दैनिक जीवन में चंद्रमा, सूर्य, इंद्रधनुष, पानी की बूंदों आदि जैसे प्राकृतिक रूपों में देखा जा सकता है। इसलिए एक-दूसरे का समर्थन करने वाले वर्ग और वृत्त को कई प्राचीन हिंदू मंदिर वास्तुकला में देखा जाता है। एक वर्ग के भीतर का वर्ग एक ‘पाद’ है, जहां माना जाता है कि मुख्य देवता, अप्सरा या एक आत्मा मंदिर के भीतर मौजूद है। प्राचीन नियमावली में मंदिरों की योजनाओं में 1, 4, 9, 16 और 25 की गिनती में वर्ग होते हैं, जो 1024 तक पहुंचते हैं। ये पद पवित्र और दिव्य हैं और विभिन्न कार्यों के लिए महत्व रखते हैं।
हिंदू मंदिर की बुनियादी संरचना और रूप अत्यंत विशेष और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। भारतीय मंदिर वास्तुकला का मूल रूप एक विशिष्ट शास्त्रीय स्थापत्य पर आधारित होता है, जिसमें मुख्य रूप से चार प्रमुख घटक होते हैं- गर्भगृह, मंडप, शिखर और प्रवेश द्वार। गर्भगृह मंदिर का सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण भाग होता है, जहां मुख्य देवता की मूर्ति या प्रतीक स्थापित किया जाता है। यह स्थान अत्यंत संवेदनशील होता है और यहां केवल पुजारी या मंदिर के प्रमुख व्यक्ति ही प्रवेश कर सकते हैं। गर्भगृह की संरचना सामान्यत: वर्गाकार या गोलाकार होती है और इसे एक ठोस, स्थिर आधार पर बनाया जाता है ताकि यह स्थायित्व और सुरक्षा प्रदान कर सके। इसके ऊपर एक छत या शिखर होता है, जो मंदिर की ऊंचाई को बढ़ाता है और आध्यात्मिक ऊंचाई का प्रतीक होता है।
आंध्र प्रदेश सरकार ने सनातन धर्म के मंदिरों में कार्यरत अर्चकों (पुजारियों) का वेतन 50 प्रतिशत बढ़ा दिया है। इससे लगभग 2,000 पुजारियों को लाभ मिलेगा। अब इन पुजारियों को प्रतिमाह 15,000 रुपए मिलेंगे। मंदिरों में काम करने वाले नाई ब्राह्मणों के लिए 25,000 रु. न्यूनतम प्रतिमाह वेतन तय किया गया है। इसके अलावा वेदों की शिक्षा ग्रहण करने वाले बेरोजगार युवाओं को 3,000 रुपए प्रतिमाह मिलेंगे। इसके साथ ही ‘श्रीवाणी ट्रस्ट’ के अंतर्गत आने वाले प्रत्येक मंदिर को 10,00,000 रुपए की आर्थिक सहायता मिलेगी। ‘धूप दीप नैवेद्यम योजना’ के अंतर्गत आने वाले छोटे मंदिरों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता को भी 5,000 रु. से बढ़ाकर 10,000 रु. प्रत्येक महीने कर दिया गया है। अब जिस मंदिर में 20 करोड़ रु. या इससे अधिक का राजस्व प्राप्त होता है, उसमें बोर्ड सदस्यों की संख्या 15 से बढ़ाकर 17 की जाएगी। बोर्ड सदस्यों में एक ब्राह्मण और एक नाई ब्राह्मण शामिल होगा। राज्य सरकार ने यह भी कहा है कि मंदिर की जो जमीन किसी के कब्जे में होगी, उसे भी मुक्त कराया जाएगा।
शिखर को धार्मिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। प्रवेश द्वार, जो मंदिर की बाहरी दीवारों पर स्थित होता है, भक्तों को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति देता है। ये द्वार अक्सर बड़े और शानदार होते हैं, जो मंदिर की पवित्रता और गरिमा को दर्शाते हैं। प्रवेश द्वार पर अक्सर धार्मिक चित्रण, मूर्तियां और नक्काशी होती है, जो देवता की महिमा और मंदिर की आध्यात्मिकता को व्यक्त करती है। इन चार प्रमुख घटकों के अलावा मंदिर की संरचना में अन्य विवरण भी शामिल हो सकते हैं, जैसे प्रासाद मंडप (जहां भोग अर्पित किया जाता है), जलाशय (पूजा के लिए आवश्यक जल के संग्रह के लिए), और भजन मंडप (जहां धार्मिक संगीत और भजन गाए जाते हैं)। मंडप, जिसे सभा मंडप भी कहा जाता है, एक खुला या आधे-खुला क्षेत्र होता है, जहां भक्त पूजा, अनुष्ठान और धार्मिक समारोहों में भाग लेते हैं। यह स्थान देवता की उपस्थिति की अनुभूति को साझा करने का अवसर प्रदान करता है और भक्तों को समर्पण और भक्ति का अनुभव कराता है। मंडप के चारों ओर अक्सर स्तंभ होते हैं, जो इसकी संरचनात्मक स्थिरता को बनाए रखते हैं और इसके सौंदर्य को बढ़ाते हैं। मंडप आठ प्रकार के होते हैं- वर्धनन, स्वस्तिक, गरुड़, सुरनंदन, सर्वतोभद्र, कैलाश, इंद्रनीला और रत्नसंभव।
इन सभी तत्वों को ध्यान में रखते हुए कह सकते हैं कि हिंदू मंदिर की वास्तुकला एक समृद्ध और विविध प्रतीकात्मकता को दर्शाती है, जो न केवल धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करती है, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं को भी संजोए रखती है।
प्राचीन भारतीय मंदिरों को विश्व धरोहर माना जाता है। इसके पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं, जो उनकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और वास्तुकला की अद्वितीयता को दिखाते हैं। ये मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र होते हैं, बल्कि मानवता की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक हैं। प्राचीन मंदिर हमारे समाज की गहरी जड़ों का हिस्सा हैं, जो हमें अपनी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर को समझने और संरक्षित करने की प्रेरणा देती हैं। इनका अध्ययन और संरक्षण हमें न केवल अतीत की महानता की सराहना करने में मदद करता है, बल्कि यह वर्तमान और भविष्य के लिए भी एक स्थायी और सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है। इसलिए इन प्रथाओं और मंदिरों की प्रासंगिकता को मान्यता देना और उन्हें संरक्षित करना हमारे सामूहिक प्रयासों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए, ताकि हमारी सांस्कृतिक धरोहर और आध्यात्मिक पहचान आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रह सके।
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