रामायण की कथा में परिवार की एकता के अनेक उदाहरण मिलते हैं। जैसे-श्रीराम के लिए भरत अयोध्या का राजपाट त्यागते हैं और उन्हें वापस लाने के लिए वन जाते हैं। यह घटना उनके पारिवारिक संबंधों की गहराई और एकता का प्रतीक है। राजा दशरथ का परिवार आदर्श संयुक्त परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो प्रेम, समर्पण और आपसी सहयोग के सिद्धांतों पर आधारित है
स्तं मा वि यौंष्टं विश्वमायुर्व्यश्श्रुतम्।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे॥
(ऋग्वेद – 10.85.42)
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दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में सह-आचार्य एवं दिल्ली प्रान्त, परिवार प्रबोधन गतिविधि के सह-संयोजक
ऋग्वेद के उपरोक्त मंत्र का भाव है-‘वर-वधू को परस्पर गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए, पुत्र-पौत्रादि के साथ आनन्द करते हुए, अपने घर में रहना चाहिए।’ निश्चित ही यह मंत्र न केवल दांपत्य जीवन के सुखों की बात करता है, बल्कि एक ऐसे परिवार को लेकर चिंतन करता है जो पीढ़ियों से साथ मिलकर रहता है, हर सदस्य एक-दूसरे के कल्याण और समाज के विकास का ध्यान रखता है। वस्तुत: एक खुशहाल परिवार में न केवल परिवार की संतानें सुखी रहती हैं, बल्कि इससे समाज का कल्याण भी होता है। प्रमाण हमें ऋग्वेद, मनुस्मृति, महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों में भारत की प्राचीन पारिवारिक संरचना के मिलते हैं। उदाहरण के लिए, महाभारत में कुरु वंश की कहानी में संयुक्त परिवार की संरचना और उसमें सदस्यों की भूमिकाएं और जिम्मेदारियां स्पष्ट रूप से दर्शाई गई हैं।
भारत के सभी प्राचीन ग्रंथों में परिवार की संरचना और उसमें सभी सदस्यों की भूमिकाओं एवं कर्तव्यों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। इसमें कुटुंब या परिवार को समाज का मुख्य आधार माना गया है, जहां प्रत्येक सदस्य की भूमिका का स्पष्ट वर्णन मिलता है। रामायण में राजा दशरथ का परिवार एकजुटता और आदर्श संयुक्त परिवार के गुणों का वर्णन करता है। राजा दशरथ के चारों पुत्र—राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न-समन्वय, सम्मान और स्नेह के प्रतीक हैं। एक-दूसरे के प्रति उनका संबंध इस बात का द्योतक है कि एक आदर्श परिवार में सभी सदस्य एक-दूसरे के प्रति समर्पित होते हैं। जब राम को वनवास दिया जाता है, तो लक्ष्मण नि:संकोच अपने बड़े भाई के साथ जाने का संकल्प लेते हैं। अयोध्या कांड में लक्ष्मण का कथन-भ्रातृवचनं शृणु, यद्वा तातं यदृच्छसि-यह दर्शाता है कि वह राम का हर अवस्था में साथ देने को प्रतिबद्ध हैं। वैदेही भी अपने सहधर्मी राम के साथ वनवास जाने का निर्णय लेती हैं।
रामायण में परिवार की एकता का एक और उदाहरण तब मिलता है, जब भरत राम के लिए अयोध्या का राजपाट त्यागते हैं और राम को वापस लाने के लिए वन जाते हैं। किष्किंधा कांड में वर्णित यह घटना उनके पारिवारिक संबंधों की गहराई व एकता की ही प्रतीक है। इस प्रकार रामायण में राजा दशरथ का परिवार आदर्श संयुक्त परिवार का उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो प्रेम, समर्पण और आपसी सहयोग के सिद्धांतों पर आधारित है।
भारत के पूजनीय संतों ने भी परिवार और सामाजिक जीवन में संतुलन की बात की है। संत तुकाराम अक्सर अपने पास आने वाले लोगों से कहते थे कि घर एक मंदिर है, जहां भगवान के सच्चे रूप की पूजा होती है। उनका मानना था कि परिवार में एक-दूसरे के प्रति पारस्परिक प्रेम, आदर और ईश्वर के प्रति आस्था ही समाज को मजबूत बनाते हैं। कुल मिलाकर हमारे संतों ने अपने अनुभव से यह निष्कर्ष निकाला कि परिवार एक आध्यात्मिक इकाई है, जिसमें न केवल व्यक्तिगत अपितु सामाजिक जीवन का भी विकास होता है। परिवार में नैतिकता और धर्म जैसे जीवन मूल्यों की शिक्षा महत्वपूर्ण है, जो अंतत: समाज के विकास का मूल आधार है।
तैत्तिरीय उपनिषद् में भी जीवन मूल्यों और कर्तव्यों पर विस्तृत चर्चा की गई है। वास्तव में यह उपनिषद् व्यक्ति के नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शक है। इसमें बताया गया है कि किसी व्यक्ति का पहला और सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य अपने माता-पिता और गुरु के प्रति होता है, क्योंकि वे उसे जन्म देते हैं, ज्ञान प्रदान करते हैं। इस उपनिषद् (शिक्षावल्ली, अध्याय 1.11) में स्पष्ट रूप से कहा गया है: मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव (माता को देवता मानो, पिता को देवता मानो, आचार्य (गुरु) को देवता मानो और अतिथि को देवता मानो।) इस श्लोक के माध्यम से ऋषि जीवन के चार महत्वपूर्ण स्तंभों की बात करते हंै। वे कहते हैं कि माता और पिता को देवता के समान सम्मान देना चाहिए, क्योंकि वे व्यक्ति को जन्म देकर उसकी पहली शिक्षा का आधार बनाते हैं। इसी प्रकार गुरु ज्ञान के स्रोत हैंऔर उनके मार्गदर्शन के बिना आत्मिक-बौद्धिक विकास संभव नहीं है। अतिथि और बड़े-बुजुर्ग समाज के स्तंभ होते हैं, उन्हें आदर देना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। इन मूल्यों को समझने और इनका पालन करने से व्यक्ति में न केवल आत्मिक शुद्धता आती है बल्कि यह समाज और परिवार के साथ सद्भाव बनाए रखने में भी सहायक होता है।
मौर्य साम्राज्य के इतिहास में सम्राट अशोक ने अपने जीवन में तैत्तिरीय उपनिषद् में बताए मूल्यों को अपने आचरण का अभिन्न अंग बना लिया था। सर्वविदित है कि कलिंग युद्ध के बाद, अशोक ने बौद्ध धर्म को आत्मसात किया और धम्म (धर्म) के मार्ग पर चलते हुए अहिंसा, करुणा और सभी प्राणियों के प्रति सम्मान का संदेश प्रसारित किया। अशोक के शिलालेखों में से एक में लिखा है: माता-पिता और बड़ों का सम्मान करना, गुरु का आदर करना और प्रत्येक जीवित प्राणी के प्रति दयालुता दिखाना ही मानव धर्म है। अशोक ने अपने जीवन में इन शिक्षाओं का पालन किया और अपने शासनकाल में इन्हें समाज के हर वर्ग तक पहुंचाया।
आ रहा है बदलाव
18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में यूरोप में आई औद्योगिक क्रांति ने वहां की पारिवारिक संरचना पर गहरा प्रभाव डाला। उस समय की पश्चिमी सामाजिक संरचना में बड़े परिवार धीरे-धीरे धराशायी हो गए। वहां के लोग आर्थिक अवसरों के लिए अपने गांवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे। इस प्रकार यूरोप में संयुक्त परिवार धीरे-धीरे एकल परिवारों में बदलने लगे। दुर्भाग्य से यह प्रवृत्ति समय के साथ भारत सहित अन्य देशों में भी पहुंच गई। वतर्मान परिप्रेक्ष्य में तेजी से हुए शहरीकरण के कारण लोग ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि नए शहरी वातावरण में लोग अक्सर छोटे घरों में रहने के लिए मजबूर होते हैं, जिससे एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है।
आधुनिकता और वैश्वीकरण के प्रभाव के कारण भी पारंपरिक संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवारों की संख्या बढ़ गई है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी ने लोगों को, कुछ स्तर तक, एक-दूसरे से जोड़ने के बजाय ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ जैसे ‘वोक कल्चर’ की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। भारत में 1970 के दशक से शहरीकरण तेजी से बढ़ा, जिसके साथ ही एकल परिवारों की संख्या में भी वृद्धि हुई। भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार, 52 प्रतिशत परिवार एकल परिवारों के रूप में पंजीकृत थे, जबकि 2011 में यह संख्या बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई। यह आंकड़ा (जो बहुत पुराना है) यही दर्शाता है कि शहरीकरण और वैश्वीकरण ने किस प्रकार पारिवारिक संरचना को प्रभावित किया है।
एकल परिवार की चुनौतियां
बुजुर्गोें की उपेक्षा: परंपरागत रूप से, भारतीय परिवारों में बुजुर्गों की देखभाल करना बच्चों का प्रमुख कर्तव्य है। महात्मा गांधी ने कहा था, ‘बुजुर्ग हमारे समाज की धरोहर हैं, उनके अनुभव हमारे मार्गदर्शक हैं।’ परंतु, एकल परिवारों में बुजुर्गों के लिए समय और संसाधनों की कमी होती है, जिसके चलते वे उपेक्षित महसूस करते हैं। यह अवस्था बुजुर्गों के मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालती है और परिवारों में पीढ़ियों के बीच के संबंधों को कमजोर करती है। दुर्भाग्य से भारत में बुजुर्गों की उपेक्षा और उनके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के मामलों में गत वर्षों में वृद्धि हुई है। 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि लगभग 47 प्रतिशत बुजुर्ग किसी न किसी प्रकार के दुर्व्यवहार का सामना करते हैं, इसमें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक दुर्व्यवहार शामिल हैं।
संस्कृति और परंपराओं का लोप: संयुक्त परिवारों में बच्चे अपने दादा-दादी और बड़ों से कहानियों और त्योहारों के माध्यम से सांस्कृतिक परंपराओं और हिन्दू जीवन शैली के बारे में सीखते थे। उदाहरण के लिए, दीपावली, होली और रक्षाबंधन जैसे त्योहारों के समय पूरा परिवार एकत्र होकर उत्सव मनाता था, किन्तु अब एकल परिवारों में यह दृश्य मानो लुप्त हो गया है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की सामाजिक सांख्यिकी रिपोर्ट में भारतीय पारिवारिक संरचना में आए बदलावों का विश्लेषण करते हुए उल्लेख किया गया है कि एकल परिवारों की बढ़ती संख्या से पारंपरिक परिवार प्रणाली में बदलाव हुआ है, जिससे समाज में सांस्कृतिक और पारंपरिक मूल्यों का तेजी से ह्रास हो रहा है।
सामाजिक अलगाव: एकल परिवारों के सदस्यों में सामाजिक अलगाव की भावना भी बढ़ रही है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘समाज में एकता, सहानुभूति और परस्पर सहयोग का भाव होना चाहिए, जिससे हम सब एक-दूसरे की सहायता कर सकें।’ संयुक्त परिवारों में यह भावना स्वाभाविक रूप से विकसित होती थी, परंतु एकल परिवारों में सामाजिक संपर्क और सहयोग का अभाव होता है, जिससे व्यक्ति अपने आप को अकेला महसूस करता है।
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क्या है समाधान
स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘सच्ची शिक्षा वही है जो बच्चों में चरित्न निर्माण, मानसिक शक्ति और सांस्कृतिक जागरूकता का संचार करे।’ इसलिए हमें एकल परिवारों में रहते हुए ही अपने बच्चों को हिन्दू संस्कृति और परंपराओं के बारे में शिक्षा देने पर बल देना होगा। परिवार के सदस्य अपने बच्चों को धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों से नियमित अवगत कराते रहें, जिससे कि आने वाली पीढ़ियां अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी रहें। आचार्य चाणक्य ने पारिवारिक एकता की महत्ता को बताते हुए कहा था, ‘पारिवारिक एकता में बड़ी शक्ति होती है; जब परिवार एकजुट होता है, तब उसके पास असीमित शक्ति होती है।’
अत: हमें एकल परिवार में भी सभी त्योहारों और उत्सवों को किसी बड़े कुटुंब के साथ मिलकर मनाना चाहिए। इस प्रकार से हम अपने पारिवारिक संबंधी और सांस्कृतिक परंपराओं जीवंत रख सकते हैं। इसी प्रकार एकल परिवार के सदस्य अपने बुजुर्गों और रिश्तेदारों से नियमित संवाद बनाए रखें और उनके अनुभवों से पारिवारिक परंपराओं के बारे में सीखते रहें। इस उपक्रम के द्वारा हम अपने पारिवारिक ज्ञान को संरक्षित रख इसे आगे बढ़ा सकते हैं।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, ‘हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमें सामूहिकता, सह-अस्तित्व और एकजुटता की शिक्षा देती है।’ अत: एकल परिवारों को स्थानीय सांस्कृतिक संगठनों और सामुदायिक आयोजनों में शामिल होकर अपने बच्चों को अपनी संस्कृति और मूल्यों से जोड़े रखना चाहिए। आधुनिक तकनीक का लाभ उठाकर परिवार के सभी सदस्य, भले ही वे भौगोलिक रूप से अलग हों, एक-दूसरे से जुड़े रह सकते हैं। डिजिटल प्लेटफार्मों के माध्यम से परिवार के सदस्य रोजाना संपर्क में रह सकते हैं, पारिवारिक कहानियां साझा कर सकते हैं और सांस्कृतिक ज्ञान का आदान-प्रदान कर सकते हैं। यह न केवल संबंधों को बनाए रखने में सहायक होता है, बल्कि संस्कृति का संरक्षण भी करता है। माता-पिता अपने बच्चों के साथ मिलकर महाभारत, रामायण, भगवद्गीता और अन्य ग्रंथों का अध्ययन कर सकते हैं। इन उपक्रमों के द्वारा भारत के एकल परिवार अपनी संस्कृति और मूल्यों को संरक्षित और संवर्धित कर सकते हैं।
इसके साथ ही, कुछ आवश्यक कार्यों को भी आग्रह के साथ करना होगा, जैसे महीने में दो-तीन बार परिवारजन के साथ बैठकर यह चर्चा करना कि हमने क्या अच्छा देखा, सुना या पढ़ा है, और उन अनुभवों को अभिव्यक्त करना, समस्याओं को हल करना, गलतियों से सीखते हुए आगे बढ़ना। माह में एक बार भोजन के लिए मित्रों को घर बुलाकर सामाजिकता को प्रोत्साहित करना, मोबाइल और टीवी का विवेकपूर्ण उपयोग करना और प्रतिदिन श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करना भी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही, हमें परिवार से आलस्य और नकारात्मक अवधारणाओं को दूर करके सकारात्मकता का संचार करना होगा। जन्मदिन को समाजहित के कार्यों के लिए समर्पित करते हुए वंचित वर्ग की सहायता उदारता से करनी चाहिए। अंतत:, यही हमारा लक्ष्य होना चाहिए कि हम अपने घर को भक्तिमय, शक्तिमय और आनंदमय बनाएं, ताकि यह न केवल एक परिवार बल्कि समाज के लिए प्रेरणा का स्रोत बने। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि परिवार के मूल्यों को जीने से ही राष्ट्र का उन्नयन होता है।
भारत की यह विशेषता है कि यह समय के साथ स्वयं को परिवर्तित करने और युगानुकूल परिवर्तन के लिए सदैव तैयार रहता है। वास्तव में हिंदू संस्कृति और इसके आदर्श इतने स्थिति-स्थापक हैं कि आधुनिक परिस्थितियों और नई चुनौतियों का सामना कर सकते हैं। यदि भविष्य में एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ता है, तो हिंदुत्व इसे भी अपनी प्रगति और विकास की प्रक्रिया में स्वीकार कर लेगा, क्योंकि यह परिवार का ढांचा हो सकता है, लेकिन इसमें कोई मौलिक समस्या नहीं है। यद्यपि, इसमें महत्वपूर्ण शर्त यह है कि इस प्रकार के परिवर्तनों के बावजूद हिंदू धर्म के मूलभूत विचार, जीवन मूल्य और आचार- विचार वैसे ही बने रहें। परिवार की संरचना चाहे जैसी भी हो, हमारे संस्कार, नैतिकता और आध्यात्मिक मूल्य वही रहें। इसका अर्थ है कि भौतिक और बाहरी रूप से परिवर्तन स्वीकार किए जा सकते हैं, परंतु हमारे आंतरिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विचलन नहीं आना चाहिए।
विशेष रूप से, नई पीढ़ी, जो भविष्य में समाज और परिवार की दिशा निर्धारित करेगी, उसे इस बात का संकल्प लेना होगा कि परिवार की संरचना एकल हो या संयुक्त, हिंदू जीवन-मूल्य जैसे माता-पिता और गुरु का सम्मान, दया, सहिष्णुता और समाज के प्रति जिम्मेदारी जैसी मूल्य बने रहें। युवा पीढ़ी को यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वह पारंपरिक हिंदू मूल्यों को न केवल अपने जीवन में जीवित रखेगी, बल्कि इन्हें आगे आने वाली पीढ़ियों तक भी पहुंचाएगी। परिवर्तन स्वाभाविक है और हिंदुत्व इसे अपनाने के लिए तैयार है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अपने आदर्शों से समझौता करेंगे। हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि परिवार का ढांचा चाहे जैसा बने, हमारे मूल जीवन मूल्य वही बने रहने चाहिए।
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