प्रभु श्रीराम के वनवास के बाद अयोध्या वापस लौटने के अवसर पर हिन्दू समाज जब दिवाली पर्व मनाने के लिए तैयार होता है, तो उसके साथ कुत्सित षड्यन्त्र आरंभ हो जाते हैं। ये षड्यन्त्र बहुत गहरे हैं। ये षड्यन्त्र पर्व को बदनाम करने से लेकर उसका नाम बदलने तक जारी रहते हैं।
पर्व का नाम बदलना
यह सभी जानते हैं कि दीपावली का पर्व क्यों मनाया जाता है। यह पर्व केवल दीपोत्सव नहीं है। यदि दीप जलाए भी जाते हैं, तो उसका एक कारण है। यदि प्रकाश का यह पर्व है तो उसके पीछे कई कथाएं यह बताने के लिए हैं कि आखिर इतनी अंधेरी रात को दीपों से हराने का क्या कारण है? लेकिन कारण को भुलाकर या कहें भुलाने का षड्यन्त्र करके दीपावली का नाम विकृत किये जाने का जो प्रयास पिछले कई वर्षों से किया जा रहा है, इस वर्ष भी यह चालू रहा। लेडी श्रीराम कॉलेज का नेशनल सर्विस स्कीम प्रभाग पिछले कई वर्षों से वार्षिक दीपावली मेले का आयोजन करता आ रहा है। इस बार भी लेडी श्रीराम कॉलेज में इस मेले का नाम नूर था। नूर का अर्थ रोशनी होता है। इसका पूरा नाम था ‘नज़्म-ए-बहार: भीतर के प्रकाश की प्रार्थना’। इसे लेकर काफी आलोचना हुई। पिछले वर्ष शायद इसका नाम “जश्ने आभा” रखा गया था।
यह भी विडंबना ही है कि जिस कॉलेज के साथ श्रीराम नाम जुड़ा हो उसी कॉलेज में उनके अयोध्या पुनरागमन के अवसर पर मनाए जाने वाले पर्व के नाम और पहचान के साथ खेल हो रहा है। इसी प्रकार आईआईटी कानपुर के इंटरनेशन रिलेशन विंग ने भी दीपावली के आयोजन को “जश्न-ए-रोशनी’ नाम दिया था। जैसे ही इसका निमंत्रण पत्र वायरल हुआ, नाम पर हंगामा मचने लगा। इसे लेकर भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने कहा कि दीपोत्सव के पर्व का इस्लामीकरण किया जा रहा है। हालांकि विवाद बढ़ने के बाद आयोजन का नाम बदला गया और उसका नाम “दिवाली-उत्सव” कर दिया गया।
पटाखों को लेकर हर वर्ष आत्महीनता का भाव भरा जाता है
प्रदूषण की समस्या एक दिन की समस्या नहीं है और न ही यह एक दिन में हल हो सकती है। मगर प्रदूषण को लेकर हिंदुओं के मन में उनके सबसे बड़े पर्व दीपावली को जिस प्रकार दोषी और अपराधी ठहराया जाता है, वह घृणा की पराकाष्ठा है। जब कोई नेता जेल से छूटता है, तो उसके कार्यकर्ता पटाखे छुड़ाते हैं, जब किसी बड़े नेता या बड़े आदमी के बच्चों का विवाह आदि होता है तो पटाखे छुड़ाए जाते हैं और लगभग हर अवसर पर पटाखे छुड़ाए जाते हैं। मगर फिर भी समस्या केवल हिंदुओं के पर्व दीपावली पर एक दिन पटाखे छुड़ाए जाने को लेकर है। जबकि दीपावली से पहले ही दिल्ली की हवा की सेहत खराब होने लगती है। दिल्ली की हवा की सेहत खराब होने का दीपावली के पटाखों से संबंध नहीं है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के मुताबिक, 27 अक्टूबर को दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स यानी AQI का स्तर 356 पर था। जिसे बहुत खराब की श्रेणी में रखा जाता है, जबकि एक भी पटाखा अभी नहीं चलाया गया है। क्या उन कारणों पर कार्य नहीं करना चाहिए, जो दिल्ली की हवा को बिगाड़ते हैं। वर्ष 2017 में आईआईटी का एक अध्ययन सामने आया था, जिसमें यह कहा गया था कि प्रदूषण में पटाखे बहुत ही काम योगदान करते हैं। पटाखे चलाना या न चलाना पर्व मनाने वालों के विवेक पर निर्भर होना चाहिए। प्रदूषण का कारण एक नहीं होता है, और जब से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों और आतिशबाजी के लिए मानक निर्धारित किये गए हैं, तब से उन्हीं मानकों के अनुसार पटाखे वैध रूप से बनाए जा रहे हैं। अवैध पटाखों पर कार्यवाही होनी चाहिए, मगर पटाखों को लेकर हर वर्ष का यह प्रोपोगैंडा त्योहार को ही कठघरे में खड़ा करता है। यह त्योहार को खलनायक बनाने की एक प्रक्रिया है। पूरे वर्ष पटाखे नहीं चलते हैं, तो क्या पूरे वर्ष दिल्ली को स्वच्छ वायु प्राप्त होती है?
कुर्बानी पर क्यों खामोश हो जाते हैं
एक बहुत ही गंभीर मामले को मात्र हिन्दू पर्व के एक छोटे से भाग तक सीमित कर दिया गया और धूम्रपान करने वाले, शराब पीने वाले, घरों में कई-कई एसी लगाने वाले, और बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमने वाले सेलेब्रिटीज़ ने भी यह एक फैशन बना लिया है कि दीपावली आते ही “पटाखे जलाने से पशुओं को परेशानी होती है!, तो प्लीज ईको-फ़्रेंडली दीवाली मनाएं!” राजपाल यादव जैसे लोग जो ईसाई पास्टर बजिन्दर सिंह जैसों के सामने खड़े होकर यह कहते हैं कि उन्होंने येशु मसीह को देखा है, वे भी दीपावली पर पटाखों को लेकर बकवास करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। जो लोग दीपावली को बदनाम करने के लिए सबसे आगे आते हैं, उनमें से कोई भी आवाज कुर्बानी के किसी भी दिन को “ईको-फ़्रेंडली” कुर्बानी के लिए नहीं उठती है? क्या उस दिन पशुओं को दर्द रहित मौत मिलती है?
हाल ही में पटाखे विवाद पर बागेश्वर धाम पीठाधीश्वर धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने भी कहा कि यह देश का दुर्भाग्य है कि जब भी हिंदू धर्म की बात आती है तो उनके त्योहार पर लोग सवाल उठाने लगते हैं। कभी कानून की बात होने लगती है तो कभी रोक लगाने की बात।
खलनायक बनाने की प्रवृत्ति
हालांकि अब चूंकि विरोध होता है, लोग सोशल मीडिया पर मुखर होकर लिखते हैं, अपनी आवाज उठाते हैं, तो पर्व को बदनाम करने वाले लोग कुछ शांत हुए हैं या फिर शांत होने का नाटक कर रहे हैं। मगर यह देखना दुखद है कि हर वर्ष हिंदुओं के पर्वों को खलनायक ठहराने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है।
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