–सिद्धार्थ दवे
एक ऐसा गांव, जहां दीपावली आती है, लेकिन दीए नहीं जलते। जहां आकाश में पटाखे नहीं चमकते और त्योहार की खुशी के बजाय शोक की शांति फैलती है।
प्रकाश पर्व अपने साथ अच्छा वातावरण, स्वादिष्ट भोजन और सुख-समृद्धि का संदेश लेकर आता है। दीपावली अच्छाई की बुराई पर जीत और प्रकाश से अंधकार को दूर करने का प्रतीक है। लेकिन कर्नाटक के एक समुदाय के लिए दीपावली एक काले और अवांछनीय अतीत की याद दिलाती है। मंड्यम अयंगर समुदाय (जो ब्राह्मण समुदाय की एक उपशाखा है) “नरक चतुर्दशी” को शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। यही वह दिन था जब कट्टर मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान ने मेलकोट शहर में मंड्यम अयंगर पुरुषों, महिलाओं और बच्चों का निर्दयता से कत्लेआम किया था। माना जा रहा है कि यह घटना 1783 से 1795 के बीच हुई थी।
मेलकोट कर्नाटक के मंड्या जिले में स्थित एक छोटा पहाड़ी नगर है। इसे तिरुनारायणपुरम के नाम से भी जाना जाता है और यह दो प्रसिद्ध मंदिरों का घर है-चेलुवनारायण मंदिर और योग नरसिम्हा मंदिर। मंड्यम अयंगर, अयंगर समुदाय की उपशाखा है। यह समुदाय श्री रामानुजाचार्य के सबसे पहले अनुयायियों में से एक था और होयसला राजा विष्णुवर्धन के संरक्षण में 12वीं शताब्दी में मेलकोट में बसा था। कहा जाता है कि श्री रामानुजाचार्य ने चेलुवनारायण मंदिर में पूजा की थी और बाद में इसे पुनर्निर्मित किया था। होयसला साम्राज्य के पतन के बाद मंड्यम अयंगर समुदाय का भाग्य विजयनगर साम्राज्य के अधीन बढ़ता गया। विजयनगर के राजा चेलुवनारायण मंदिर के बड़े संरक्षक थे और उन्होंने मंदिर और मेलकोट के अयंगरों को कई उदार अनुदान दिए।
1565 तक विजयनगर साम्राज्य लगभग टूट चुका था। मैसूर पर शासन करने वाले वाडियार विजयनगर साम्राज्य के जागीरदार थे और उन्होंने स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। राजा वाडियार प्रथम के अधीन मैसूर राज्य ने धीरे-धीरे अपना प्रभाव बढ़ाया। अगले 150 वर्ष में यह समुदाय वाडियारों के अधीन पनपा और उन्होंने प्रमुख प्रशासनिक और धार्मिक पदों पर कब्जा कर लिया। चेलुवनारायण मंदिर को भी मंड्यम अयंगरों को सौंप दिया गया।
हालांकि, 1760 तक वाडियार परिवार ने अपनी अधिकांश शक्ति और प्रभाव दलवाईयों, अर्थात सेनापतियों को सौंप दी थी। हालांकि सिंहासन पर वाडियार ही विराजमान थे, लेकिन उनकी उपस्थिति मात्र औपचारिक रह गई थी। 1763 में कृष्णराज वाडियार द्वितीय के निधन के बाद उनके सेनापतियों में सबसे प्रभावशाली हैदर अली ने मैसूर राज्य का संपूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।
इसके बाद मंड्यम अयंगर विधवा रानी लक्ष्मम्मणी वाडियार को पुनः सिंहासन पर बैठाने के प्रयासों में लग गए। मैसूर के प्रधान तिरुमलै अयंगर और उनके भाई नारायण अयंगर इस प्रयास में सबसे आगे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ गठबंधन बनाने के लिए बातचीत की गई थी, ताकि हैदर अली को हटाया जा सके। इस योजना का पता हैदर अली को चल गया और उसने उन दोनों भाइयों और उनके विस्तारित परिवार को कैद कर लिया। उत्पीड़न के डर से समुदाय के कई सदस्य मद्रास प्रेसिडेंसी चले गए। दिलचस्प बात यह है कि हैदर अली ने अन्य मंड्यम अयंगरों को अपने महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर बनाए रखा।
1783 में हैदर अली की मृत्यु के बाद उसके बेटे टीपू सुल्तान ने उसकी गद्दी संभाली। अपने अब्बा से अलग, टीपू सुल्तान को अयंगरों और विधवा रानी के रिश्ते पर संदेह था। हैदर अली की मृत्यु के बाद रानी लक्ष्मम्मणी ने ब्रिटिश के साथ सैन्य गठबंधन पर हस्ताक्षर करने के अपने प्रयासों को और तेज कर दिया। इसी बीच टीपू के दरबारी मंत्री शमैय्या अयंगर ने गुप्त रूप से मद्रास सेना के मेजर जनरल लॉर्ड जॉर्ज हैरिस से संपर्क किया। टीपू सुल्तान ने इस पत्राचार को विश्वासघात के रूप में देखा और इसका जवाब मेलकोट में पूरे मंड्यम अयंगर समुदाय का सफाया करके दिया।
“नरक चतुर्दशी” के दिन टीपू सुल्तान की सेना ने मेलकोट में रहने वाले मंड्यम अयंगर समुदाय को घेर लिया। 800 से अधिक लोगों की हत्या की गई और मेलकोट को बर्बाद कर दिया गया। शेष निवासी शहर छोड़कर चले गए। रातों रात मेलकोट एक भुतहा शहर बन गया। यह भी उल्लेखनीय है कि बाद में लॉर्ड जॉर्ज हैरिस को मद्रास सेना का कमांडर नियुक्त किया गया, जिसने अन्य दो ब्रिटिश सेनाओं के साथ मिलकर चौथे एंग्लो-मैसूर युद्ध में टीपू सुल्तान को हराया।
आज तक मंड्यम अयंगर समुदाय नरक चतुर्दशी नहीं मनाता और इसे टीपू सुल्तान की करतूतों के कारण शोक दिवस के रूप में मानता है। नरसंहार की यादें इस समुदाय की सामूहिक चेतना में गहराई से समाहित हैं। दुर्भाग्यवश इस नरसंहार का कोई अन्य उल्लेख मंड्यम अयंगर समुदाय से बाहर नहीं है। इस घटना को भारत के वामपंथी इतिहासकारों ने जनमानस तक पहुंचने नहीं दिया। 2014 में इस नरसंहार पर डॉ. एम.ए. जयश्री और प्रो. एम.ए. नरसिम्हन ने एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था।
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