विश्व इतिहास में बहुत कम ऐसे उदाहरण होंगे जहां कोई महिला अपने घर-परिवार, भाषा, परंपरा, समाज, मत, देश को छोड़कर एक उन्य देश की संस्कृति से प्रभावित होकर उस देश में जाए और फिर वहीं की होकर रह जाए। आज से लगभग 125 वर्ष पूर्व हम इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
एक 31 वर्षीया युवा, आकर्षक और प्रभावशाली आयरिश शिक्षिका भारत की संस्कृति से प्रभावित हो यहां आई और आजीवन भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार व देश हित के कार्यों में अपना सर्वस्व न्योछावर कर गई। हम बात कर रहे हैं मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल की जिन्हें आज पूरा विश्व भगिनी निवेदिता के नाम से जानता है।
उनके जीवन की कहानी एक ऐसे तप की है जिसके महानायक से वह भारतीयों को स्वतंत्रता व अपनी संस्कृति पर गर्व करना सिखा गईं। जन्म से भारतीय न होकर भी उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि माना और प्रत्येक भारतीय को अपनी मातृभूमि, अपनी संस्कृति पर गर्व करना सिखाया।
28 अक्तूबर, 1867 को आयरलैंड में जन्मी मार्गरेट एलिजाबेथ नोबेल के पिता सैमुअल रिचमंड नोबेल प्रोटेस्टेंट पादरी थे। वे बचपन से ही अपने दादा, माता-पिता की पांथिक आस्थाओं से प्रभावित थीं। वे पिता के साथ गरीबों के घर जातीं और उनकी सेवा सुश्रूषा करतीं। जन्म से पूर्व ही उनकी मां ने अपनी भावी संतान को ईश्वरीय कार्य में समर्पित करने का प्रण लिया था इसी कारण शायद स्वामी विवेकानंद ने उन्हें अपनी शिष्या बनाने पर निवेदिता नाम दिया जिसका अर्थ है ‘स्वयं का उत्सर्ग करने वाली।’ उन्होंने अपनी निस्वार्थ सेवा द्वारा अपने जीवन को भारतीय सनातन संस्कृति व भारतीयों के लिए उत्सर्ग कर दिया।
अपनी सगाई टूट जाने पर मानसिक पीड़ा और विरक्ति का भाव उनके हृदय को उद्वेलित कर रहा था। उसी समय उनके पिता के एक भारतीय मित्र उनके घर आए। उनके मुख से भारत की संस्कृति, लोगों के विषय में जाना तो मन में यह बात घर कर गई कि मुझे भारत जाकर वहां की सभ्यता-संस्कृति, भाषा, परंपरा को करीब से जानना है। इसी दौरान स्वामी विवेकानंद अमेरिका के शिकागो शहर में हुए सर्व धर्म सम्मेलन में भाग लेकर लौट रहे थे। उनके भाषण ने पूरे विश्व में धूम मचा दी थी।
मार्गरेट व उनका परिवार भी विवेकानंद से मिलने गए या जहां वे श्रोताओं द्वारा पूछे गए प्रश्नों व जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद ने ‘आत्मज्ञान’ पर अपने आपको जानना के विषय में कुछ बातें कहींं। उन्होंने कहा, ‘‘मनुष्य दुनिया पर विजय प्राप्त करना चाहता है, उसे जानना चाहता है लेकिन अपने आप से उसका परिचय नहीं है।’’ मार्गरेट के लिए ये बातें आंखें खोलने जैसी थीं। उन्हें लगा, जिस प्रकाश की वे खोज में थीं वह खोज स्वामी विवेकानंद तक पहुंचकर पूर्ण हो गई है।
स्वामी जी ने उनके हर प्रश्न, हर जिज्ञासा का समाधान किया जो आज तक उन्हें ईसाइयत में देखने को नहीं मिला था। जैसे ईसाइयत का ‘डॉग्मा’ या अन्धमान्यता कि प्रत्येक मनुष्य पापी है तथा ईसाइयों के पापों का बोझ ईसा मसीह अपने ऊपर ले लेते हैं। इन मान्यताओं को बिना प्रश्न किए मानना अनिवार्य है। यह अवधारणा मार्गरेट को तर्कहीन व अंधकार पूर्ण लगती थी।
बाद में उन्होंने विवेकानंद को एक पत्र लिखा, ‘मैं आपकी शिष्या बनना चाहती हूं इसलिए आप बताएं कि मैं किस योजना के अनुसार कार्य करूं।’ इस प्रश्न के उत्तर में स्वामी जी ने मार्गरेट को लिखा, ‘इस समय संसार को ऐसे मानव रत्नों की आवश्यकता है जो चरित्रवान हों, जिनके हृदय में मानव मात्र के लिए प्रेम एवं सद्भाव भरा हो। इन महान आत्माओं के मुख से निकलने वाला प्रत्येक शब्द तुरंत प्रभाव दिखाएगा और सोई आत्माओं में नए प्राण फूंकेगा।
हमें आवश्यकता है, प्रेरक शब्दों और उससे भी अधिक प्रेरक कार्यों की। जागो! महाप्राण जागो! संसार दु:ख की अग्नि में जल रहा है। क्या तुम सोती रह सकती हो? जब तक कि सोये देवता जाग न उठें, जब तक हमारे हृदय में बसे ईश्वर हमारी पुकार का उत्तर न दे दें, तब तक हम बार-बार पुकारते ही जाएंगे। इससे महान कार्य भला और कौन सा है? ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ता हूं मेरे सामने का रास्ता स्वयं बनता जाता है। मैं पहले से योजनाएं नहीं बनाता। योजनाएं स्वयं बन जाती हैं और क्रियान्वित होती हैं। मेरा केवल यही शंखनाद है, जागो! जागो!’
स्वामी विवेकानंद ने उनसे कहा, ‘‘चाहे तुम भारत में काम करो या नहीं, चाहे तुम्हारी वेदांत में आस्था रहे या न रहे, मैं मृत्यु पर्यंत तुम्हारे साथ रहूंगा।’’
इस पत्र व्यवहार के एक वर्ष पश्चात 21 जनवरी,1898 को 31 वर्षीया मार्गरेट भारत सेवा का संकल्प लेकर भारत पहुंचीं। स्वामी जी ने स्वयं ही उनके रहने तथा संस्कृत, बांग्ला शिक्षा की व्यवस्था का प्रबंध किया। वे बहुत जल्दी ही भारतीय वेशभूषा, आचार-विचार और रहन-सहन को अपनाकर भारतीय नारी का प्रतिमान बन गईं। उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का व्रत लिया। अपना शिष्य बनाते हुए विवेकानंद ने केवल इतना ही कहा था, ‘भारत से प्रेम करो, भारत की सेवा करो’ और गुरु का आदेश ही उनके जीवन का मूलमंत्र बन गया।’
परतन्त्र भारत की सबसे बड़ी समस्या निरक्षरता थी। भगिनी निवेदिता ने कोलकाता में ‘निवेदिता बालिका विद्यालय’ की स्थापना की। उस समय बहुत कम छात्राएं इस विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आईं थीं फिर भी भगिनी निवेदिता ने अपनी मेहनत, लगन और निष्ठा से बालिकाओं को शिक्षित करने का कार्य किया। कोलकाता में जब भयंकर बीमारी फैली तो उन्होंने रामकृष्ण मिशन की ओर से पीड़ितों की सहायता के लिए अपने दल के साथ सेवा कार्य किया और देखते ही देखते बहुत से लोग उनके इस सेवा कार्य से जुड़ गए। बंगाल में अकाल के समय में भी निवेदिता कलकत्ता छोड़कर बोरिसाल चली गईं और गांव-गांव पैदल घूम कर अकाल पीड़ितों की सहायता की।
उन्होंने अरविंद घोष व अन्य क्रांतिकारियों का आजादी के आंदोलन में खुलकर साथ दिया। जनसभाओं में उनके द्वारा दिए गए जोशीले भाषणों व पत्र-पत्रिकाओं में लिखे लेखों ने भारत में जन जागरण की अलख जगा दी थी।
वे भारत को पूर्णतया अपनी कर्मभूमि मानती थी। वे कभी भी अपने लेख और भाषणों में ‘भारत की आवश्यकता’, ‘भारतीय नारियां’ आदि शब्दों का प्रयोग न करके ‘हमारी आवश्यकता’, ‘हमारी नारियां’ आदि शब्दों का प्रयोग करती थीं। विदेशी धरती पर जन्म लेकर भी भारतीयों के साथ अत्यधिक प्रेम के कारण महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने उनके बारे में कहा था, ‘निवेदिता के दर्शन करने पर ऐसा लगता है मानो मानव की आत्मा के दर्शन कर लिए हों।’
भगिनी निवेदिता ने भारतीय संस्कृति, स्वामी विवेकानंद, भारत की परंपराओं पर अनेक पुस्तकें लिखीं जिसमें उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है- ‘दि मास्टर : एज आई नो हिम’। इसमें उन्होंने स्वामी विवेकानंद के बारे में अपने संस्मरण लिखे हैं। उन्होंने भारत तथा भारतीय दर्शन की महानता को पश्चिम तक पहुंचाया। उनके द्वारा लिखीं कुछ और विशेष पुस्तकें हैं, ‘काली द मदर’, ‘मिथ्स आफ द हिंदूस एंड बुद्धिस्टस’, ‘दि वेब आफ इंडियन लाइफ’, ‘फुटफॉल्स आफ इंडियन हिस्ट्री’, ‘रिलिजन एंड धर्म’, ‘क्रेडल टेल्स आफ हिंदुइज्म’, ‘एन इंडियन स्टडी आफ लव एंड डेथ’, ‘स्वामी जी एंड हिज मैसेज’, ‘स्टडीज फ्रॉम एन ईस्टर्न होम’, ‘नोट्स आफ सम वांडरिंग्स’ इत्यादि।
1953 में अमेरिका में ‘लिजल रेमंड’ द्वारा लिखी उनकी जीवनी ‘दि डेडीकेटिड’ प्रकाशित हुई जो 538 पृष्ठों की है। इसमें उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
13 अक्तूबर,1911 को मात्र 44 वर्ष की आयु में भगिनी निवेदिता का दार्जिलिंग में निधन हो गया। उनकी आकस्मिक मृत्यु से भारत ने एक ऐसी वीरांगना को खो दिया जिसने भारतीयों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उनका अंतिम संस्कार हिंदू शास्त्रीय विधि से किया गया। दार्जिलिंग में स्थापित उनका स्मारक उनका आज भी यशोगान करता है। ऐसी विभूतियां शताब्दियों में जन्म लेती हैं जो अल्पायु में ही देश और समाज हित के लिए कार्य कर सदा- सदा के लिए अमर हो जाती हैं।
(लेखिका वरिष्ठ शिक्षाविद् हैं)
टिप्पणियाँ