हाल ही में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) द्वारा मदरसों पर एक रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट के कई तथ्य चौंकाने वाले हैं। जिस देश में मदरसों को स्कूल का पर्याय बनाकर पेश किया जाता था या फिर कविताओं, कहानियों में मदरसों का प्रशंसा की जाती थी, उसमें यह मूल प्रश्न दब जाता था कि आखिर एक पंथ निरपेक्ष लोकतंत्र में मदरसा बोर्ड आदि क्यों है? और क्यों मदरसा बोर्ड या मदरसों पर प्रश्न उठाना इस्लामोफोबिया की श्रेणी में आ जाता था?
एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो मदरसों में बच्चों की असुविधाओं, अनियमितताओं एवं अव्यवस्थाओं के प्रति अत्यंत मुखर रहे हैं। आयोग ने मदरसों में तालीम हासिल कर रहे बच्चों के अधिकारों के विषय में भी लगातार कई कदम उठाए हैं। एनसीपीसीआर द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट का नाम है ‘‘मजहब के संरक्षक या अधिकारों के उत्पीड़क, बच्चों के संवैधानिक अधिकार बनाम मदरसा।’’
इस रिपोर्ट के चौथे अध्याय में मदरसा बोर्ड की उन मनमानियों का उल्लेख है, जिसका शिकार गरीब बच्चे हो रहे थे। आयोग ने बताया है कि मदरसों का पाठ्यक्रम शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के अनुपालन में नहीं है। आयोग की रिपोर्ट बताती है, ‘‘दीनीयत की जो किताबें यहां पढ़ाई जाती हैं उनमें आपत्तिजनक बातें होती हैं। इन किताबों में इस्लाम को ही सबसे ऊपर बताया जाता है।’’
जब आयोग ने बिहार मदरसा बोर्ड की वेबसाइट पर किताबों की सूची बनाई तो यह पाया कि दीनीयत की किताबों में वे किताबें भी पढ़ाई जाती हैं, जो पाकिस्तान में प्रकाशित हुई हैं। इस्लाम की मूलभूत बातों पर पाकिस्तानी शेख मुफ्ती किफायतुल्ला द्वारा लिखी गई ‘तालीम-उल-इस्लाम’ में इस्लाम के बारे में बच्चों को जो पढ़ाया जा रहा है उसके कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
प्रश्न : जो अल्लाह में यकीन नहीं करते हैं उन्हें हम क्या कहते हैं?
उत्तर : उन्हें काफिर कहा जाता है।
प्रश्न :कुछ लोग अल्लाह के अलावा अन्य वस्तुओं की पूजा करते हैं या दो या तीन देवताओं में विश्वास करते हैं। ऐसे लोगों को क्या कहा जाता है?
उत्तर: ऐसे लोगों को काफिर (अविश्वासी) या मुशरिक (बहुदेववादी) कहा जाता है।
प्रश्न: क्या बहुदेववादियों को मुक्ति मिलेगी ?
जबाव: बहुदेववादियों को कभी मुक्ति नहीं मिलेगी? इसके बजाय, उन्हें दोजख में सजा का सामना करना पड़ेगा।
आयोग ने मदरसा शिक्षा बोर्ड की तालीम की गुणवत्ता पर सवाल उठाए हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि मदरसों में पढ़ाने वालों के पास राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद यानी एनसीटीआई द्वारा जो पात्रता निर्धारित की गई हैं वह नहीं होती। जैसे बिहार राज्य मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम 1981 के अनुसार, मदरसों में नौकरी के लिए मुख्य आधार बोर्ड का पर्यवेक्षण होगा। बोर्ड के अनुमोदन के बिना भी मदरसा शिक्षक की सेवाएं समाप्त नहीं की जा सकेंगी।
मदरसों में जिनको नौकरी दी जाती है वे कुरान और अन्य मजहबी तलीम ही इस्लामिक तौर-तरीके से देते हैं। यहां जो तालीम दी जाती है उसमें पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत का पालन नहीं किया जाता। राज्य सरकारों से पैसा लेने वाले मान्यता प्राप्त मदरसे भी मदरसों को ऐसा संस्थान बताते हैं जो केवल इस्लामिक तालीम देता है। पर शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत जो शिक्षा दी जानी चाहिए वह यहां तालीम हासिल करने वाले बच्चों को नहीं मिलती है।
विभिन्न राज्यों के मदरसा बोर्ड की परिभाषा
- मध्य प्रदेश मदरसा बोर्ड अधिनियम, 1998 में, ‘मदरसा’ को अरबी और इस्लामी अध्ययन में शिक्षा प्रदान करने वाले शैक्षणिक संस्थान के रूप में परिभाषित किया गया है।
- उत्तराखंड मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2016 के अनुसार, मदरसा की तालीम से मतलब है कि अरबी, उर्दू, फारसी, इस्लामी-अध्ययन, तिब्ब, तर्कशास्त्र, फलसफे और उनमें तालीम जिन्हें समय-समय पर बोर्ड तय करता है।
ल्ल राजस्थान मदरसा बोर्ड अधिनियम, 2020 मदरसा को मदरसा बोर्ड के साथ पंजीकृत एक शैक्षणिक संस्थान के रूप में परिभाषित करता है, और मदरसा तालीम ऐसी व्यवस्था है, जिसमें इस्लामी इतिहास और तहजीब, और मजहबी तालीम में अध्ययन शामिल हैं। इसमें सामान्य शिक्षा भी शामिल है जो छात्र को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, भारतीय विद्यालय प्रमाण पत्र परीक्षा परिषद, राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड या अन्य राज्यों के माध्यमिक शिक्षा बोर्डों द्वारा आयोजित परीक्षाओं में बैठने के लिए तैयार करती है।रिपोर्ट में बताया गया है कि राज्यों में जो मान्यता प्राप्त मदरसे हैं, वे यह इस्लामिक तालीम और निर्देश गैर-मुस्लिमों और हिंदुओं को भी दे रहे हैं, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 28(3) का खुला उल्लंघन है। इस संबंध में राज्य सरकारों को मदरसों से हिंदू और गैर-मुस्लिम बच्चों को निकालने के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।
इस रिपोर्ट के आधार पर ही एनसीपीसीआर के अध्यक्ष ने मदरसों को राज्यों से मिलने वाले पैसे पर रोक लगाने की सिफारिश की है। इसे लेकर राजनीति भी तेज हो गई है। परंतु राजनीति से इतर यह सवाल तो होना ही चाहिए कि आखिर राज्य के पैसे पर, आम करदाताओं के पैसे पर उन संस्थानों को पोषित क्यों किया जाए, जो एक मजहब की आपत्तिजनक बातें पढ़ा रहे हैं और गैर-मुस्लिमों की पांथिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर रहे हैं।
मदरसों पर की गई कार्रवाई
- असम सरकार ने वर्ष 2020 में असम निरसन अधिनियम लाकर असम मदरसा शिक्षा (प्रांतीयकरण) अधिनियम 1995 और असम मदरसा शिक्षा (कर्मचारियों की सेवा का प्रांतीयकरण और मदरसा शैक्षणिक संस्थानों का पुन: संगठन) अधिनियम, 2018 को रद्द कर दिया था। सभी मदरसों को स्कूलों में बदल दिया गया था।
- अप्रैल 2024 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश मदरसा अधिनियम 2004 को रद्द कर दिया था। वर्ष 2004 में लागू इस अधिनियम के अनुसार अधिनियम का उद्देश्य राज्य में मदरसों के कामकाज को प्रबंधित और नियंत्रित करना था। इस अधिनियम के अंतर्गत राज्य में मदरसों की गतिविधियों की देखरख और निरीक्षण के लिए उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई थी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का कहना था कि यह मजहब के आधार पर अलग तालीम को बढ़ावा देता है, जो कहीं से भी संविधान की मूल भावना के अनुपालन में नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगा दी थी और राज्य सरकार को नोटिस भेजा था। अभी इस पर पर सुनवाई होनी शेष है।
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