गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष 15 वीं शताब्दी के अंत में गोंड वंश के महान् प्रतापी राजा संग्रामशाह के शासन काल में प्रारंभ हुआ।संग्रामशाह का वास्तविक नाम अमानदास था, जिसकी पुष्टि दमोह के पास ठर्रका ग्राम में प्राप्त एक शिलालेख से होती है। रामनगर प्रशस्ति में लिखा है कि “प्रतापी अर्जुन सिंह का पुत्र संग्रामशाह था। जिस भाँति विशाल कपास का ढेर एक छोटी सी चिंगारी से नष्ट हो जाता है, उसी भाँति उसके शत्रु तेजहीन हो गये थे। मध्य काल का सूर्य भी उसके प्रताप के सामने धूमिल सा दिखाई देता था, मानो सारी धरती को जीत लेने का निश्चय किया हो। तदनुसार उसने 52 गढ़ों को जीत लिया था। गोंड़ों में तो कहावत ही प्रचलित हो गई थी कि “आमन बुध बावन में”।
भोपाल, नागपुर और बिलासपुर तक गोंडवाना साम्राज्य का विस्तार
गोंडवाना साम्राज्य के गढ़ जबलपुर, सागर, दमोह, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, नागपुर, होशंगाबाद, भोपाल, और बिलासपुर तक फैले हुए थे।समकालीन इतिहासकारों की माने तो 70 हजार गांव थे जिनकी संख्या रानी दुर्गावती के समय 80हजार तक हो गई थी। किलों की संख्या 57 परगनों की संख्या 57 हो गई थी। कतिपय इतिहासकारों ने 56 सूबों का उल्लेख किया है।
अकबर का दरबारी लेखक अबुल फजल लिखता है कि 23 हजार गांव में प्रत्यक्ष प्रशासन था और शेष सामंतों के अधीन करद गांव थे। गोंडवाना या गढ़ा-कटंगा विस्तृत और संपन्न राज्य हो गया था, इसके पूर्व में झारखंड, उत्तर में भथा या रीवा का राज्य, दक्षिण में दक्षिणी पठार और पश्चिम में रायसेन प्रदेश था। इसकी लंबाई पूर्व से पश्चिम 300मील तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण 160 मील थी। इन सीमाओं को रानी दुर्गावती ने और बढ़ा लिया था। गोंडवाना साम्राज्य का क्षेत्रफल लगभग इंग्लैंड के क्षेत्रफल जितना हो गया था। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों के कारण दिल्ली के सुल्तान या पड़ौस के कोई अन्य राजा गोंडवाना पर अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सके। महान् पुरातत्व एवं इतिहासविद राय बहादुर हीरालाल के जबलपुर गजेटियर, श्री रविशंकर शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, जगमोहन दास स्मृति ग्रंथ और जबलपुर कमिश्नरी द्वारा प्रकाशित जबलपुर अतीत दर्शन ग्रंथ में गढ़ों के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
रानी दुर्गावती का विवाह सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है – आलोचकों के लिए तमाचा
उत्तर भारत में मुगल शासक हुमायूँ को शेरशाह ने बिलग्राम (कन्नौज) के युद्ध परास्त कर भारत से बाहर खदेड़ दिया और साम्राज्य विस्तार के लिए उद्यत हो गया। शेरशाह की धर्म की आड़ में विस्तारवादी नीति से कालिंजर के महान् शासक कीरत सिंह चिंतित हो गए थे, इसलिए शेरशाह सहित अन्य मुस्लिम आक्राताओं को मुँह तोड़ जवाब देने के लिए गोंडवाना साम्राज्य के महान् राजा संग्रामशाह से मित्रता का प्रस्ताव रखा,जो एक वैवाहिक संबंध के रुप में फलीभूत हुआ।वीरांगना रानी दुर्गावती का जन्म कालिंजर के किले में राजा कीरत सिंह के यहाँ 5 अक्टूबर सन् 1524 को दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था, उनकी माता का नाम कमलावती था। राजा संग्रामशाह और उनके सुपुत्र दलपतिशाह , राजा कीरतसिंह की सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती के स्त्रियोचित सौंदर्य,शिष्टता, मधुरता और पराक्रम से बहुत प्रभावित थे, इसलिए संग्रामशाह ने कीरतसिंह से उनकी सुपुत्री का अपने पुत्र दलपतिशाह के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा, जो स्वीकार्य हुआ।दुर्भाग्य से सन् 1541 में राजा संग्रामशाह का निधन हो गया है बावजूद इसके राजा कीरतसिंह ने अपना वचन निभाया और सन् 1542 अपनी सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती का विवाह, राजा दलपतिशाह से कर दिया।यह विवाह सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है और आलोचकों करारा तमाचा है जो भारतीय संस्कृति में जातिवाद और वर्ण व्यवस्था का दुष्प्रचार करते हैं।
महान साम्राज्ञी के रुप वीरांगना रानी दुर्गावती का उदय
सन् 1545 में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया और मारा गया जिसमें रानी दुर्गावती की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस युद्ध में राजा कीरतसिंह का भी बलिदान हुआ। जिससे वीरांगना दुर्गावती को धक्का लगा परंतु सन् 1548 में पति दलपतिशाह की आकस्मिक मृत्यु ने वीरांगना पर वज्रपात कर दिया। इस वज्रपात से वीरांगना दुर्गावती विचलित हुईं पर शीघ्र ही उन्होंने साहस के साथ अपने 5 वर्षीय अल्पवयस्क सुपुत्र वीर नारायण की ओर से गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभाल ली। इस तरह गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती का महान साम्राज्ञी के रुप में उदय हुआ।
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