भारतीय संस्कृति में भोजन बनाने को एक कला माना गया है, इसलिए भोजन पकाने को ‘पाक कला’ कहा गया है। इसमें पंजाबी भोजन, मारवाड़ी भोजन, उत्तर और दक्षिण भारतीय भोजन, शाकाहारी भोजन (निरामिष), मांसाहारी (सामिष) भोजन आदि भी शामिल हैं। भोजन रोजमर्रा की भारतीय संस्कृति को समझने का एक तरीका प्रस्तुत करता है। खाना पकाने के तरीके घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों को भी लुभाते हैं। भारतीय जो भोजन करते हैं, वह सुपाच्य और पोषक तत्वों से भरपूर होता है। भारत के पास स्वास्थ्य और पर्यावरण को लेकर जो ज्ञान है, वह आज का नहीं है। यह हजारों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। इसलिए अब दुनिया भी मानने लगी है कि भारतीय खान-पान दुनिया के किसी भी देश से बेहतर है। हाल ही में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) लिविंग प्लैनेट ने खान-पान पर एक रिपोर्ट जारी की है। इसमें भारतीय खान-पान को जी-20 अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक टिकाऊ बताया गया है।
भारतीय भोजन सबसे अच्छा
उत्तराखंड में रानीखेत के पास कलौना गांव में रहने वाली जानकी तिवारी की आयु 100 साल से अधिक है, लेकिन वे आज भी दूर से देखकर लोगों को पहचान लेती हैं। यही नहीं, अपने सारे काम करती हैं और पहाड़ भी चढ़ जाती हैं। इस गांव में 90 वर्ष से अधिक आयु की तीन महिलाएं हैं, जबकि 60-70 वर्ष के लोग भी बहुतायत में हैं और सभी स्वस्थ हैं। गांव के निवासी हरीश चंद्र तिवारी बताते हैं कि आज के दौर में पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों को भी रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियां होने लगी हैं। इसका कारण है खान-पान में बदलाव। वहीं, गांव के बुजुर्ग आज भी खान-पान की पुरानी परंपरा को अपनाए हुए हैं, इसलिए वे आज भी पूरी तरह स्वस्थ हैं।
यह सिर्फ कलौना की बात नहीं है, बल्कि समूचे भारत के लगभग हर गांव में खान-पान की परंपराएं वर्षों पुरानी हैं। भारतीय खान-पान की परंपरागत अवधारणा डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की हाल की रिपोर्ट को आधार प्रदान करती है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय जिस तरह से खाते हैं, वह धरती के लिए श्रेष्ठ है। यदि दुनिया भर में लोग इसे अपना लें तो 2050 तक जलवायु प्रभाव यानी क्लाइमेंट चेंज के जो असर दिखाई देने लगे हैं, वे काफी कम हो जाएंगे।
इस रिपोर्ट में भारत में मोटा अनाज केंद्रित खान-पान को अपवाद बताया गया है। साथ ही, कहा गया है कि इसे दुनिया के सभी देशों के लिए एक मॉडल के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि सभी देश भारतीय मॉडल के अनुसार अपने खान-पान में बदलाव कर लेंगे तो 2050 तक हमें जितने खाद्य उत्पादन की जरूरत पड़ेगी, उसे बहुत आसानी से हासिल किया जा सकता है। यानी उस समय खाद्यान्न उत्पादन के लिए धरती का 0.84 प्रतिशत हिस्सा ही उपयोग करना होगा। फिलहाल दुनिया में जीवन बचा रहे, इसके लिए जरूरी है कि पृथ्वी का जलवायु परिवर्तन इसी स्तर पर रुक जाए। अगर इसमें बदलाव होता है तो इससे फसलों का उत्पादन घटेगा और लोगों के समक्ष भुखमरी से लेकर दूसरी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी और जिससे करोड़ों लोग अकाल मौत के मुंह में समा जाएंगे।
दूसरी ओर, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की रिपोर्ट में अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया और अमेरिका के खान-पान को सबसे खराब बताया गया है। इन देशों के खान-पान की वजह से दुनिया भर में जलवायु पर बहुत नकारात्मक असर पड़ता है। रिपोर्ट के अनुसार, यदि दुनिया के सभी लोग 2050 तक इन देशों की तरह खाने-पीने लगे तो खाद्य-संबंधित ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन इतना बढ़ जाएगा कि पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा और हम जलवायु लक्ष्य को 263 प्रतिशत तक पार कर जाएंगे। इसका असर इतना भयानक होगा कि हम लोगों को अपने भरण-पोषण के लिए सात पृथ्वी की आवश्यकता होगी। इसका मतलब यह हुआ कि अभी जितनी फसल हम एक एकड़ से लेते हैं, 2050 तक उसके लिए लगभग सात एकड़ जमीन की जरूरत पड़ेगी।
क्यों अच्छा है भारतीय भोजन?
इसे दूसरे तरह से समझें। मांस के लिए जानवरों को पालना पड़ता है। उन्हें खाने के लिए गेहू, मक्का और दूसरे अनाज दिए जाते हैं। एक किलो मांस के उत्पादन के लिए 10,000 से 15,000 लीटर पानी और 5 से 10 किलो अनाज की जरूरत पड़ती है। इस लिहाज से एक किलो मांस में जितना प्रोटीन, विटमिन या फिर अन्य जरूरी तत्व होते हैं, उनसे कहीं ज्य़ादा तत्व बर्बाद हो जाते हैं। इसकी वजह से ग्रीन हाउस गैस ज्य़ादा निकलती है, जो पर्यावरण को बहुत तेजी से खराब कर रही है।
पर्यावरण पर शोध करने वाले डॉ. अतुल जैन कहते हैं, ‘‘डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का अध्ययन खाद्य उत्पादन प्रणाली के पूरे चक्र को दिखाता है। कार्बन उत्सर्जन हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक है, जो आश्चर्यजनक है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कैसे कम किया जा सकता है, इस पर विचार करते हुए नीति निर्माताओं को नीतियां बनाने के लिए मजबूर करता है।’’ शोध में कहा गया है कि भोजन के लिए पशुओं को पालना और मारना, लोगों के खाने के लिए फलों और सब्जियों को उगाने और उनका प्रसंस्करण करने की तुलना में जलवायु के लिए कहीं अधिक हानिकारक है। इससे मांस उत्पादन, विशेष रूप से गोमांस से पर्यावरण पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के बारे में पिछले निष्कर्षों की पुष्टि होती है।
इस बारे में कृषि विशेषज्ञ डॉ. अनुराग शर्मा बताते हैं कि दुनिया भर में अब इस बात को बताया जा रहा है कि मांस का अत्यधिक सेवन कैसे पृथ्वी को नष्ट कर रहा है। उनके शोध के अनुसार, एक किलो मांस तैयार करने में 25 से 30 हजार लीटर पानी लगता है। 15 किलो से ज्य़ादा अनाज और अन्य वनस्पति लगती है। यानी संतुलित भोजन, जो अधिकतर शाकाहारी ही है, उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। हमारे यहां हजारों वर्ष पहले ही यह बता दिया गया था। हमारी खाद्य संस्कृति पांच तत्वों के संतुलन पर जोर देती है। भारत में खान-पान की परंपराए वैज्ञानिक हैं। अब दक्षिण भारत में इडली-सांभर पारंपरिक खाना है। ऐसा क्यों है, यह जानना भी जरूरी है।
दरअसल, दक्षिण भारत में पानी में फ्लोराइड ज्य़ादा पाया जाता है। इसलिए वहां इमली के भरपूर इस्तेमाल वाला सांभर प्रचलित है, जो प्राकृतिक तौर पर फ्लोराइड की मात्रा का संतुलित करता है। इसी तरह बहुधा कहा जाता है कि भारतीय बच्चों में प्रोटीन या आयरन की कमी होती है। इन बच्चों की तुलना विदेशी मानकों के हिसाब से की जाती है। लेकिन भारत में इतनी विविधता है कि उसे किसी एक सूचकांक में ला ही नहीं सकते। भारतीय भोजन में प्रयुक्त होने वाले मसाले औषधि का भी काम करते हैं। हर रसोई में दाल, सब्जी और मोटे अनाज या गेहूं की रोटी से ऐसा मिश्रण बनता है, जो उस स्थान के लिहाज से बच्चों से लेकर बड़ों सभी को पोषण देता है, जबकि मसाले छोटी-छोटी स्वास्थ्य समस्याओं जैसे-सर्दी-जुकाम, बदहजमी आदि को दूर करते हैं।
दूसरी बात, खाने में गाय के घी का अलग ही महत्व है। इसका भी वैज्ञानिक कारण है। भोजन के बाद शरीर में बनने वाली शर्करा को घी संतुलित करता है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक खान-पान में भारी विविधता होने के बावजूद सभी में एक बात समान है, वह है शाकाहार। यहां जो लोग मांसाहार करते हैं, वे भी हफ्ते या महीने में एक दिन शाकाहार अपनाते हैं। शाकाहारी भोजन में दाल, सब्जी, रोटी और रायता या चटनी होना सामान्य बात है। गरीब से गरीब व्यक्ति के खाने में भी किसी न किसी रूप में प्रोटीन जरूर होता है। बिहार में लिट्टी-चोखा प्रचलित है। लिट्टी में चने का सत्तू प्रयुक्त होता है, तो गुजरात में थेपला में पिसी दाल। पूर्वी भारत में दाल-चावल प्रिय भोजन है, जबकि दक्षिण भारत में सांभर में दाल का प्रयोग होता है।
पोषक तत्वों से भरपूर श्रीअन्न
भारत सरकार ने घरेलू और वैश्विक मांग पैदा करने और लोगों को पोषक आहार प्रदान करने के लिए 2023 को मोटा अनाज वर्ष घोषित किया था। साथ ही, सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को 2023 को अंतरराष्ट्रीय बाजरा वर्ष के रूप में घोषित करने का प्रस्ताव दिया था। 70 से अधिक देशों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया था। इसी के बाद 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष घोषित किया गया था। इस दौरान ‘श्रीअन्न’ से जुड़े कई कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। श्रीअन्न (मिलेट्स) पारिस्थितिक परिस्थितियों की व्यापक शृंखला के अत्यधिक अनुकूल है। शुष्क जलवायु और कम पानी के अलावा इन फसलों को उर्वरक और कीटनाशकों की न्यूनतम आवश्यकता होती है। अन्य अनाजों की तुलना में मोटे अन्न में बेहतर सूक्ष्म पोषक तत्व एवं बायोएक्टिव फ्लेवोनोइड पाए जाते हैं।
श्रीअन्न में निम्न ग्लाइसेमिक इंडेक्स (जीआई) होता है, जो मधुमेह की रोकथाम करता है। इनमें आयरन, जिंक तथा कैल्शियम जैसे खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। ग्लूटेन-मुक्त होने के कारण सीलिएक रोगी भी इसे खाते हैं। इसके अलावा, श्रीअन्न को हाइपरलिपिडिमिया के प्रबंधन और रोकथाम, वजन घटाने, उच्च रक्तचाप में भी सहायक पाया गया है। भारत में श्रीअन्न का सेवन आम तौर पर फलियों के साथ किया जाता है, जो प्रोटीन का परस्पर पूरक बनाता है और प्रोटीन की समग्र पाचनशक्ति में सुधार करता है। इसकी खेती कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में सहायता प्रदान करती है।
बहरहाल, यह पहला अवसर नहीं है, जब किसी शोध में भारतीय खान-पान को अच्छा बताया गया है। बीते कुछ वर्ष के दौरान ऐसे कई शोध नतीजों में भारतीय भोजन को सराहा गया है। लोकप्रिय खाद्य रैंकिंग प्लेटफार्म टेस्ट एटलस तो दुनिया के सर्वोत्तम खाद्य पदार्थों की सूची में अक्सर भारतीय व्यंजनों को शामिल करता है। यह बताता है कि भारतीय खान-पान के प्रति दूसरे देशों का नजरिया बदल रहा है और वे इसे अपना भी रहे हैं।
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