असम के रहने वाले पूर्व सांसद बदरुद्दीन अजमल और मुंबई में सपा के विधायक अबू आजमी ने कहा है कि नया संसद भवन वक्फ बोर्ड की जमीन पर बना है। इसलिए भारत सरकार वक्फ बोर्ड को किराया दे। वास्तव में ये दोनों कांग्रेस सरकार के उस पाप का लाभ उठा रहे हैं, जिसे उसने समय—समय पर किया है।
अभी कुछ ही दिन पहले ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के नेता बदरुद्दीन अजमल ने कहा, ‘भारत की नई संसद वक्फ बोर्ड की जमीन पर बनी है।’ इसके साथ ही उन्होंने वक्फ संशोधन विधेयक का विरोध किया। अजमल की बात का समर्थन करते हुए मुंबई की भिवंडी से समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी ने तो यहां तक कहा कि नई संसद के लिए सरकार वक्फ बोर्ड को किराया दे।
ये दोनों ही बयान तथ्यों से परे और मुसलमानों को भड़काने वाले हैं। ये नेता जानबूझकर गलतबयानी कर रहे हैं। वास्तव में ये नेता कांग्रेस के उस पाप का लाभ उठा रहे हैं, जो उसने 2014 में किया था। बता दें कि 2014 में 16वीं लोकसभा के चुनाव की घोषणा होने के बाद सोनिया-मनमोहन सरकार ने 5 मार्च, 2014 (बुधवार) को एक राजपत्र (566) जारी कर 123 संपत्तियों को दिल्ली वक्फ बोर्ड को दे दिया। सरकार के इस निर्णय का विरोध विश्व हिंदू परिषद ने किया। विहिप के तत्कालीन महामंत्री चंपत राय के नेतृत्व मेें एक प्रतिनिधिमंडल 18 मार्च, 2014 को मुख्य चुनाव आयुक्त से मिला और उन्हें एक पत्र सौंपा। उस पत्र के पैरा 11 में लिखा गया है, ”यह बड़ा आश्चर्यजनक है कि लगभग एक शताब्दी पूर्व अधिग्रहित की गई संपत्तियों का कब्जा लेने में सरकार विफल रही। और उसने एक ही झटके में माननीय न्यायालय में दाखिल अपने वक्तव्य या कानूनी कार्रवाइयों और शपथपत्रों को नकार दिया।”
विहिप ने चुनाव आयोग से यह भी कहा कि सरकार ने अल्पसंख्यक के नाम पर अरबों की संपत्ति थाली में परोस कर दे दी। इसके बाद चुनाव आयोग ने सरकार के आदेश को खारिज कर दिया।
इस तरह यह मामला उस समय रुक गया। बाद में मई, 2014 में केंद्र सरकार बदल गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मादी बने। इसके बाद विश्व हिंदू परिषद ने एक बार फिर से इस मामले को सरकार के समक्ष उठाया। वहीं, कुछ अन्य संगठन भी इन संपत्तियों पर सरकार कब्जा करे, इसकी मांग को लेकर न्यायालय पहुंचे। एक ऐसा ही मामला अभी भी न्यायालय में चल रहा है। इस बीच भारत सरकार ने इन संपत्तियों को लेकर गर्ग समिति बनाई। उसकी रिपोर्ट के आधार पर फरवरी, 2023 में भारत सरकार ने दिल्ली के कुछ प्रमुख स्थानों पर स्थित 123 संपत्तियों को वक्फ बोर्ड की संपत्ति नहीं माना। यानी अब ये संपत्तियां पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन ही रहेंगी। हालांकि दिल्ली वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष अमानतुल्लाह खान ने इसका विरोध किया। वहीं विश्व हिंदू परिषद के कार्याध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा था कि केंद्र सरकार ने इन संपत्तियों को लेकर जो इच्छाशक्ति दिखाई है, वह अभूतपूर्व है।
बता दें कि 123 संपत्तियों में कुछ संपत्तियां तो अति संवेदनशील स्थानों पर हैं, कुछ संपत्तियां खंडहर में बदल गई हैं, लेकिन अधिकांश संपत्तियों पर व्यावसायिक गतिविधियां चल रही हैं। अजमल और आजमी जैसे नेता कह रहे हैं कि नई संसद इन्हीं 123 संपत्तियों में से एक पर बनी है।
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय से जुड़े उप भूमि और विकास अधिकारी (डी.एल.डी.ओ.) ने 8 फरवरी,2023 को दिल्ली वक्फ बोर्ड को एक पत्र लिखकर बताया कि 123 संपत्तियां केंद्र सरकार की हैं और सरकार ने इन्हें कब्जे में लेने का निर्णय लिया है। डी.एल.डी.ओ. ने पत्र में कहा है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस.पी. गर्ग की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय समिति ने अपनी रपट में लिखा है कि उसे गैर-अधिसूचित वक्फ संपत्तियों को लेकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की ओर से कोई आपत्ति नहीं मिली है। इस समिति में पूर्व एसडीएम राधा चरण भी शामिल थे। फरवरी, 2022 में समिति का गठन हुआ था। इस समिति ने इन संपत्तियों पर दिल्ली वक्फ बोर्ड के दावे की जांच की। समिति ने वक्फ बोर्ड को कई बार बुलाया और अपना पक्ष रखने को कहा, लेकिन वक्फ बोर्ड ने न तो कोई जवाब दिया और न ही उसका कोई प्रतिनिधि समिति के सामने हाजिर हुआ। इसके बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसी रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने उपरोक्त निर्णय लिया।
वास्तव में यह बहुत पुराना विवाद है। एक जानकारी के अनुसार इन सारी संपत्तियों को 1911-15 के बीच सरकार ने अपने अधीन ले लिया था। इसके लिए आवश्यक प्रक्रिया अपनाई गई थी, लेकिन बाद में इन संपत्तियों पर वक्फ बोर्ड ने दावा कर दिया।
यही नहीं, 1970 में दिल्ली वक्फ बोर्ड ने इन संपत्तियों को एकतरफा वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया। दिल्ली वक्फ बोर्ड की इस हरकत का तत्कालीन भारत सरकार ने विरोध किया। सरकार ने इन सभी संपत्तियों के लिए अलग—अलग नोटिस जारी किया। इसके साथ ही सरकार ने दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) से कहा कि इन संपत्तियों का सर्वेक्षण करे। इसके बाद डीडीए के अधिकारियों ने जगह—जगह जाकर इनका सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में पाया गया कि इन संपत्तियों को न तो ‘वक्फ’ किया गया था और न ही उनके लिए कोई ‘वाकिफ’ निुयक्त किया गया था।” डीडीए ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ”इन संपत्तियों पर तथाकथित वक्फ या वाकिफ का वास्तविक कब्जा नहीं था।” यह भी लिखा है, ”इनमें से किसी भी संपत्ति में कोई मस्जिद, मकबरा या कब्रिस्तान था ही नहीं।”
यही नहीं, वक्फ बोर्ड के दावे के विरुद्ध सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में 123 अलग—अलग मुकदमे भी दायर किए। सरकार ने न्यायालय को बताया कि ये संपत्तियां उसके द्वारा 1911-15 में ही अधिग्रहित की गई हैं। बाद में कुछ संपत्तियों को दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को हस्तांतरित कर दिया गया था, लेकिन वे कभी भी दिल्ली वक्फ बोर्ड से संबंधित नहीं रही हैं।
वर्तमान में इन 123 संपत्तियों में से 61 का स्वामित्व शहरी विकास मंत्रालय के तहत भूमि और विकास कार्यालय के पास है, जबकि शेष दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास हैं। इनमें से अधिकतर संपत्तियां कनॉट प्लेस, मथुरा रोड, लोधी रोड, मान सिंह रोड, पंडारा रोड, अशोका रोड, जनपथ, संसद भवन, करोल बाग, सदर बाजार, दरियागंज और जंगपुरा के आसपास हैं। इनका क्षेत्रफल लगभग 1,360 एकड़ है और इनकी कीमत 20 हजार करोड़ रु से अधिक है।
अभी न्यायालय में मुकदमा चल ही रहा था कि मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए 1974 में भारत सरकार ने इन संपत्तियों पर एक उच्चाधिकार समिति बना दी। इस समिति के अध्यक्ष दिल्ली वक्फ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष एस.एम.एच. बर्नी को बनाया गया। विश्व हिंदू परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता विनोद बंसल के अुनसार, ”जो दिल्ली वक्फ बोर्ड इन संपत्तियों को पर दावा करता था, उसके अध्यक्ष को ही यह तय करने का अधिकार दिया गया कि ये संपत्तियां किसकी हैं। इस कारण वही हुआ, जो वक्फ बोर्ड चाहता था।” बर्नी समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, ”ये संपत्तियां वक्फ संपत्ति के रूप में कार्य कर रही हैं।” इसके साथ ही बर्नी समिति ने इन संपत्तियों को वक्फ संपत्ति घोषित करने की सिफारिश की।
इसके बाद फटाफट भारत सरकार ने बर्नी समिति की सिफारिश को मान भी लिया और ये सारी संपत्तियां दिल्ली वक्फ बोर्ड को पट्टे पर दे दीं। 27 मार्च, 1984 को भारत सरकार ने एक आदेश जे 20011/4/74.1-2 जारी किया। उसमें कहा गया कि ये सारी संपत्तियां सालाना एक रुपए प्रति एकड़ की दर से वक्फ बोर्ड को पट्टे पर दी जाती हैं। भारत सरकार के इस निर्णय का जबर्दस्त विरोध इंद्रप्रस्थ विश्व हिंदू परिषद ने किया। उसी वर्ष विश्व हिंदू परिषद ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर (1512) कर कहा कि भारत सरकार ने गलत ढंग से अरबों की संपत्ति दिल्ली वक्फ बोर्ड को दी है। याचिका की पहली सुनवाई में ही उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के निर्णय पर रोक लगा दी। उस याचिका के विरोध में केंद्र सरकार ने न्यायालय में जो दलील दी, वह चकित कर देने वाली है। सरकार ने कहा, ”ये सभी संपत्तियां भारत सरकार की हैं। इन संपत्तियों को किसी अन्य विभाग या संगठन को दिए जाने के बारे में कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है।…”
यह मामला कई वर्ष तक उच्च न्यायालय में चला। न्यायालय ने बार-बार सरकार से पूछा कि उसने किस आधार पर ये संपत्तियां वक्फ बोर्ड को दी हैं? क्या इस पर कोई नीति बनाई गई है? इस पर 29 अगस्त, 2005 को महाधिवक्ता ने न्यायालय से नीति बनाने के लिए छह महीने का समय मांगा। न्यायालय ने छह महीने का समय दे दिया, लेकिन सरकार छह साल तक सोती रही। बाद में विहिप ने फिर से न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 12 फरवरी, 2011 को उच्च न्यायालय ने इस मामले को यह कहते हुए खारिज कर दिया, ”सरकार इस मामले को नए तरीके से देखकर नीति बनाए और छह महीने में इस काम को पूरा करे।” लेकिन तय छह महीने में सरकार कोई नीति नहीं ला पाई। इसके बाद अदालत ने 5 सितंबर, 2011 तक की तारीख देेते हुए निर्देश दिया, ”सरकार इस आदेश का पालन करतेे हुए नीति तय करे और उसकी एक प्रति याचिकाकर्ता के वकील को भी दे।” लेकिन दुर्भाग्य से तत्कालीन केंद्र सरकार ने कोई नीति नहीं बनाई। उल्टे भारत सरकार ने भूमि अधिग्रहण से संबंधित 2013 के एक कानून की धारा 93 (1) का हवाला देते हुए इन संपत्तियों से अपना कब्जा वापस ले लिया। यह धारा कहती है, ”संबंधित सरकार को ऐसे किसी भी भूखंड के अधिग्रहण को वापस लेने का अधिकार है, जिसका कब्जा अभी तक नहीं लिया गया हो।”
कांग्रेस सरकार की इन्हीें नीतियों का लाभ आज मुस्लिम नेता उठा रहे हैं और वक्फ बोर्ड के प्रस्तावित विधेयक को लेकर मुसलमानों को भड़का रहे हैं।
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