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मदरसों में गैर मुस्लिम बच्चे, मजहबी तालीम और इस्लामी तौर-तरीके, ‘जो अल्लाह को नहीं मानते वे काफिर’

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WEB DESK

भारत में न केवल अवैध मदरसे फल-फूल रहे हैं बल्कि इनमें कट्टरता का पाठ भा पढ़ाया जाता है। इनमें गैर मुस्लिम बच्चों को भी दीनी तालीम देने के मामले सामने आ चुके हैं। मदरसे शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) का उल्लंघन भी कर रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने बच्चों की शिक्षा और विकास को लेकर एक और बड़ा कदम उठाया है। एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने सभी राज्यों के प्रमुख सचिवों को पत्र लिखकर मदरसा बोर्ड को दिए जाने वाले फंड को बंद करने और उनमें पढ़ने वाले गैर मुस्लिम बच्चों को आरटीई के तहत मुख्यधारा के स्कूलों में भेजने का निर्देश दिया है।

इससे पहले एनसीपीसीआर ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा भी दायर किया था। आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में दलील रखी कि मदरसों में बच्चों को औपचारिक, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दी जा रही। वहां शिक्षा के लिए जरूरी माहौल और सुविधाएं भी नहीं हैं। मदरसे, बच्चों को अच्छी शिक्षा के अधिकार से वंचित रख रहे हैं। उन्हें मिड डे मील, यूनिफॉर्म और प्रशिक्षित शिक्षक भी नहीं मिल रहे। मदरसों में मजहबी शिक्षा पर जोर होता है। मुख्यधारा की शिक्षा में उनकी भागीदारी कम है।

आयोग ने यह भी बताया कि शिक्षकों की नियुक्ति मदरसों के अपने मैनेजमेंट करते हैं। कुछ मामले तो ऐसे आए हैं जिनमें शिक्षक के लिए ज़रूरी योग्यता भी नहीं थी। शिक्षकों की नियुक्ति के समय योग्यता के रूप में कुरान और मजहबी पुस्तकों की समझ परखी जाती है। शिक्षा के अधिकार कानून में जिन बातों का जिक्र है, उससे मदरसे कोसों दूर हैं।

संविधान के आर्टिकल 28(3) का उल्लंघन

मदरसों में मुस्लिमों के अलावा गैर मुस्लिम बच्चों को भी पढ़ाया जाता है। गैर-मुस्लिम बच्चों को भी इस्लाम की परम्पराओं की शिक्षा दी जा रही है, जोकि आर्टिकल 28(3) का उल्लंघन है। बाल संरक्षण आयोग ने मदरसा बोर्ड के पाठ्यक्रम को भी देखा है। इसमें कई आपत्तिजनक बातें हैं। वे किताबें भी पढ़ाई जाती हैं, जो सिर्फ इस्लाम को श्रेष्ठ बताती हैं।

कुछ समय पूर्व एनसीपीसीआर के अध्‍यक्ष प्रियंक कानूनगो ने बिहार के मदरसों में पढ़ाई जाने वाली किताब ‘तालीमुल इस्‍लाम’ एवं इसी प्रकार की अन्‍य मजहबी पुस्‍तकों का जिक्र किया था। ये पुस्‍तकें बच्‍चों के मन में गैर मुसलमानों के प्रति नफरत का भाव भरती हैं। देश के हर मदरसे में इस तरह की पुस्तकें पढ़ाई जा रही हैं।

‘तालीमुल इस्‍लाम’ की बात करें तो तालीमुल-इस्लाम हिस्सा (भाग) 1 के पृष्‍ठ 3 पर लिखा है “खुदा एक है” इबादत के लायक वही है… “गवाही देता हूं मैं कि अल्लाह तआला के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं “। यहां विचार करने वाली बात यह है कि क्या ये दृष्टि सामाजिक नफरत और विभेद पैदा नहीं करती है? भारत में ईश्‍वर भक्‍ति की अनेक धाराएं हैं, जो ईश्‍वर को अनेक रूपों में स्‍वीकार करती हैं।

इसी किताब के पृष्‍ठ पांच-छह पर प्रश्‍न पूछे जा रहे हैं;

सवाल : जो लोग अल्लाह को नहीं मानते उन्हें क्या कहते हैं?
जवाब : उन्हें काफिर कहते हैं!

सवाल : जो लोग खुदा तआला के सिवा और चीज़ों की पूजा करते हैं या दो-तीन खुदा मानते हैं उन्हें क्या कहते हैं?
जवाब: ऐसे लोगों को काफिर और मुश्रिक कहते हैं।

सवाल : मुश्रिक बखशे जाएंगे या नहीं?
जवाब : मुश्रिकों को बख्शा नहीं जायेगा।
वह हमेशा तक्लीफ और अज़ाब (दुख) में रहेंगे।

जो अल्लाह को नहीं मानते वे काफिर हैं

तालीमुल इस्लाम किताब में इस बात पर जोर दिया जाता दिखता है कि जो ‘अल्‍लाह’ को नहीं मानते, उन्‍हें काफिर कहते हैं। हालांकि ‘काफिर’ शब्‍द को लेकर कुछ इस्‍लामवादी इसके कई अर्थ बताते हैं, किंतु एक अर्थ जिसे यह पुस्‍तक आगे बहुत ही स्‍पष्‍ट कर देती है वह यही है कि जो मुसलमान नहीं, जो कुरान नहीं पढ़ता, जो कुरान और हदीस में लिखे हुए पर भरोसा नहीं करता, वह कोई भी हो, इस्‍लाम की नजरों में ऐसा व्‍यक्‍त‍ि ‘काफिर’ है और ये काफिर जो इस पुस्‍तक के अनुसार (मुश्रिक) मूर्त‍िपूजक है, वह बख्‍शा नहीं जाएगा। उसे हमेशा दुख और तक्‍लीफ रहेगी। क्‍या बच्‍चे इसे बार-बार पढ़ने के बाद समझदार होने के बाद अपने अवचेतन मस्तिष्क से इस बात को नकार पाएंगे? विचार करें, हम अपने आस-पास भविष्‍य का कौन सा समाज गढ़ रहे हैं! पृष्‍ठ 7 पर कहा गया; जो आदमी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खुदा का रसूल न माने वह भी काफिर है। यदि आपका विश्‍वास प्रोफिट मोहम्‍मद पर नहीं, तो भी आप काफिर हैं।

बच्‍चे पढ़ रहे, ईश्‍वर की सच्‍ची किताब सिर्फ कुरान अन्‍य कोई नहीं

तालीमुल-इस्‍लाम के तीसरे भाग ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) है जो यह ईमान अल्लाह को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा करने से रोकता है के पृष्‍ठ क्रमांक 76 में पूछा जाता है – क्या कुरआन मजीद में तौहीद की तालीम दी गयी है? जवाब : हां ! कुरआन मजीद में तौहीद की तालीम पूरी और आला दर्जे पर दी गयी है। बल्कि आज दुनिया में सिर्फ कुरआन मजीद ही ऐसी किताब है जो ख़ालिस तौहीद की तालीम देती है। अगर्चे पहली आसमानी किताबों में भी तौहीद की तालीम थी, लेकिन इन तमाम किताबों में लोगों ने अदल-बदल कर डाली और तौहीद के खिलाफ बातें दाखिल कर दीं और खुदा की भेजी हुई आसमानी तालीम को बदल दिया। इसकी इस्लाह के लिए और सच्ची तौहीद दुनिया में फैलाने के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा और अपनी ख़ास किताब कुरआन मजीद नाज़िल फरमाई और उसमें साफ़-साफ़ सच्ची और ख़ालिस तौहीद की तालीम दी।

एक अध्‍याय ‘ख़ुदा तआला की किताबें’ के नाम से है। इसमें पूछा जा रहा है कि तौरेत, ज़बूर और इंजील का आस्मानी किताबें होना कैसे मालूम हुआ? जवाब : इन तीनों किताबों का आस्मानी किताबें होना कुरआन मजीद से साबित होता है। यहां इस पुस्‍तक में यह स्‍थापित करने का प्रयास किया गया कि आज इस्‍लाम के अलावा अन्‍य जो इन दो पंथों को माननेवाले और उनकी पवित्र कताबें हैं, वह इसलिए पवित्र हैं, क्‍योंकि इसे कुरआन मजीद के ज़रिये से इन तीनों किताबों का आस्मानी किताबें होना मालूम हुआ।

किताब में सवाल किया जा रहा है – अगर कोई आदमी तौरेत, ज़बूर, इन्जील को ख़ुदा तआला की किताबें न माने तो वह कैसा है ? उत्‍तर आया, ऐसा आदमी काफिर है। क्योंकि इन किताबों का ख़ुदा की किताबें होना कुरआन मजीद से साबित हुआ है तो जो आदमी इनको ख़ुदा की किताबें नहीं मानता वह कुरआन मजीद की बताई हुई बात को नहीं मानता है। और जो कुरआन मजीद की बताई हुई बात को न माने वह काफिर है। फिर इसी में आगे लिखा गया है कि इन तीनों पुस्‍तकों में बहुत कुछ अपने मूल से बदल दिया गया है, इसलिए इन्‍हें माननेवाले सही नहीं, सिर्फ जो कुरआन पर मानते हैं, वही सच्‍चे हैं।

हिंदुओं से जुड़ा प्रश्न भी

पुस्‍तक के हिस्‍सा चार में एक प्रश्‍न हिन्‍दुओं से जुड़ा है। यहां सवाल आया- ‘‘क्‍या यह कह सकते हैं कि हिन्‍दुओं के पेशवा जैसे कृष्‍णजी और रामचन्‍द्रजी वगैरा खुदा के पैगम्‍बर थे ?’’ फिर जवाब दिया गया- ‘‘नहीं कह सकते, क्‍योंकि पैगम्‍बरी एक खास उहदा था जो खुदा की तरफ से उसके बरगुज़ीदा और ख़ास बन्दों को अता फरमाया जाता था। तो जब तक शरीअत से यह बात मालूम न हो कि यह ख़ास उहदा खुदा तआला ने फलाँ शख्स को अता फरमाया था उस वक्त तक हम भी नहीं कह सकते कि वह खुदा का नबी था। अगर हमने बिना शरीअत की दलील के सिर्फ अपनी राय से किसी शख्स को पैग़म्बर समझ लिया और फिल-वाका यह पैग़म्बर नहीं था तो ख़ुदा तआला के हुजूर में हम रो इस गलत अकीदे का मवाखिज़ा होगा। यूं समझो कि अगर तुम सिर्फ अपने ख़्याल से किसी शख्स को समझ लो कि वह बादशाह का नाइब यानी गवर्नर जनरल है और वह अस्ल में गवर्नर जनरल न हो तो तुम हकूमत के नज़दीक मुजरिम होंगे कि एक ऐसे शख्स को जिसे बादशाह ने गवर्नर जनरल नहीं बनाया है, तुमने गवर्नर जनरल मानकर बादशाह की तरफ एक गलत बात की निस्बत की। बस गुज़िशता लोगों में से हम ख़ास तौर पर उन्हीं बुजुर्गों को पैग़म्बर कह सकते हैं जिनका पैगम्बर होना शरीअत से साबित हो, और कुरआन मजीद या हदीस शरीफ़ में उनको पैग़म्बर बताया’’

स्‍पष्‍ट किया गया ये हैं काफिर

पुस्‍तक में कुफ्र और शिर्क का बयान अध्‍याय में समझाया गया है कि जिन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है उनमें से किसी एक बात को भी न मानना कुफ्र है। जैसे कोई आदमी खुदा तआला को न माने या खुदा तआला की सिफ़तों का इन्कार करे, या दो-तीन खुदा माने या फरिश्तों का इन्कार करे या खुदा तआला की किताबों में से किसी किताब का इनकार करे, या किसी पैग़म्बर को न माने या तकदीर से इनकार करे या कयामत के दिन को न माने या खुदा तआला के बुनियादी हुक्मों में से किसी हुक्म का इनकार करे या रसूलुल्लाह सल्ल० की दी हुई किसी खबर को झूठा समझे तो इन सब सूरतों में काफिर हो जायेगा। और शिर्क उसे कहते हैं कि खुदा तआला की जात या सिफात में किसी दूसरे को शरीक करे।

आगे इस पुस्‍तक में सवाल है कि खुदा तआला की जात में शिर्क करने के क्या माने हैं? जवाब आया- जात में शिर्क करने के माने ये हैं कि दो-तीन खुदा मानने लगे जैसे ईसाई, कि तीन खुदा मानने की वजह से मुशरिक हैं, और आग को पूजने वाले कि दो खुदा मानने की वजह से मुशरिक हुए, और जैसे बुत परस्‍त (हिन्‍दू, बौद्ध, जैन एवं अन्‍य) भी कि बहुत से खुदा मानकर मुशरिक होते हैं। वहीं, शिर्क फिल इबादत यानी ख़ुदा तआला की तरह किसी दूसरे को इबादत का मुस्तहक समझना, जैसे किसी कब्र या पीर को सज्‍दा करना या किसी के लिए रूकू करना (यानी जिस तरह नमाज़ में रूकू करते हैं) या किसी पीर, पैग़म्बर, वली या इमाम के नाम का रोज़ा रखना या किसी की नज़र और मन्नत माननी या किसी कब्र या मुर्शिक के घर का ख़ाना काबा की तरह तवाफ करना, ये सब शिर्क फिल इबादत है।

दान (जकात) सिर्फ मुसलमानों को ही दिया जा सकता है

पुस्‍तक यह भी साफ कहती है कि काफिर को ज़कात देना नाजाइज़ है। यानी जो दान इस्‍लाम में बताया गया है, वह सिर्फ मुसलमान को ही दिया जा सकता है, किसी अन्‍य जरूरत मंद को नहीं । वस्‍तुत: इसके अलावा भी बहुत कुछ इस पुस्‍तक में लिखा हुआ है जोकि बच्‍चों के मन में अन्‍य मत, पंथ, र‍िलीजन, धर्म को माननेवालों के प्रति नफरती सोच एवं भावनाएं भर देता है। यहां कहना होगा कि अकेली ये ही पुस्‍तक भारत के सभी मदरसों में नहीं पढ़ाई जा रही है, इसके अलावा इस तरह की अनेक पुस्‍तकों के माध्‍यम से मदरसों में गैर मुस्‍लिमों के प्रति नफरत भरने का काम हो रहा है। अब ऐसे में आप यानी कि देश का कोई भी देश भक्‍त नागरिक स्‍वत: विचार कर सकता है कि जब बच्‍चे इस तरह की अशिक्षा (अज्ञान) लेकर मदरसों से बाहर आएंगे तो फिर उनसे कैसे प्रेम, शांति और अपनत्‍व की उम्‍मीद की जा सकती है? इस प्रकार के प्रश्‍न अनेक हैं, अब उत्‍तर सरकारों, न्‍यायपालिका और इस्‍लाम के जानकारों को देना है!

यहां बड़ा सवाल यही है कि बाल मन में शुरुआत से ही काफिर और दूसरे धर्मों को नकारने की तालीम दी जाएगी तो बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे होगा। एक समरस समाज का निर्माण कैसे होगा ? शिक्षा अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है, सद्भाव का उजियारा फैलाती है। विकास के सोपानों के जरिये लक्ष्य का संधान कराती है तो आखिर इन बच्चों को शिक्षा के अधिकार से क्यों वंचित किया जा रहा है ?

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