केरल उच्च न्यायालय ने 11 अक्टूबर को केरल राज्य आपदा प्रबंधन की यह मांग ठुकरा दी कि वायनाड़ में चल रहे राहत संबंधी कार्यों को कवर करने में मीडिया को रोक दिया जाए। केरल उच्च न्यायालय ने वायनाड में केरल सरकार द्वारा चलाए जा रहे राहत और पुनर्वास कार्यों में मीडिया कवरेज रोकने को लेकर किसी भी प्रकार से आदेश जारी करने से इनकार कर दिया।
केरल उच्च न्यायालय ने यह कहा कि मीडिया की अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। दरअसल केरल राज्य में वायनाड़ में बाढ़ में आई हुई तबाही के बाद राहत और पुनर्वास उपायों में निधि के प्रयोग को लेकर कुछ प्रश्न कुछ मीडिया कर्मी उठा रहे थे। और इसी बात को लेकर केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण केरल उच्च न्यायालय में पहुंचा था कि वह ऐसी मीडिया रिपोर्ट्स पर रोक लगे और मीडिया का आना वायनाड में रोके। इस पर केरल उच्च न्यायालय ने ऐसी किसी भी मांग पर आदेश जारी करने से इनकार कर दिया। केरल उच्च न्यायालय ने मीडिया की महत्ता को इंगित करते हुए कहा कि मीडिया को दिए गए फ्री स्पीच और अभिव्यक्ति के अधिकार को किसी भी प्रकार से रोक नहीं सकते हैं। न्यायालय ने कहा, “हम मीडिया की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को नियंत्रित करने वाले स्थापित कानून की अनदेखी नहीं कर सकते, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) में पहले से उल्लिखित प्रतिबंधों के अतिरिक्त मीडिया पर उचित प्रतिबंध नहीं लगाए जा सकते।“
केरल उच्च न्यायालय में केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के सदस्य सचिव डॉ. शेखर एल कुरियाकोसे ने उन तमाम रिपोर्ट्स पर आपत्ति व्यक्त की थी जो इस मामले में लगातार मीडिया में आ रही थीं। याचिककर्ताओं का यह तर्क था कि इससे कार्य करने वाले उन तमाम लोगों का मनोबल टूट रहा है, जो अपनी जान पर खेलकर राहत और बचाव कार्य कर रहे हैं। याचिककर्ताओं ने यह भी तर्क दिया था कि मीडिया में कुछ लोग राहत और बचाव कार्य के लिए आवंटित राशि को लेकर भी कुछ झूठी खबरें चला रहे हैं और जिसके कारण लोगों में भ्रम उत्पन्न हो रहा है। और यह भी कहा कि ये तमाम रिपोर्ट्स भ्रामक हैं।
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याचिकाकर्ता अर्थात केरल राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का यह कहना था कि जो “हाफ ट्रुथ” वाली रिपोर्ट्स और भ्रामक रिपोर्ट्स हैं, उनसे जनता में भी गलत धारणा बन रही है और इसके कारण राज्य और केंद्र सरकारों के बीच संबंध प्रभावित हो सकते हैं और जिसके कारण राहत और बचाव कार्यों में बाधा आ सकती है, क्योंकि केंद्र सरकार हो सकता है कि राहत राशि के संवितरण पर प्रश्न उत्पन्न करे।
इस पर केरल उच्च न्यायालय ने हालांकि किसी भी प्रकार का कोई भी आदेश जारी करने से इनकार कर दिया, परंतु यह अवश्य कहा कि मीडिया अपनी जिम्मेदारी को समझे और एक जागरूक रिपोर्टिंग करे। उच्च न्यायालय ने यह कहा कि मीडिया के पास सरकार के कार्यों की आलोचना का अधिकार है। न्यायालय का यह भी कहना था कि मीडिया कर्मियों सहित सभी नागरिकों के लिए यह अनुमति अनिवार्य है कि वे अपने मत को स्वतंत्र होकर व्यक्त कर सके, क्योंकि इससे सरकार के अधिकारी भी नियंत्रण में रहते हैं। और यदि इस अधिकार को ही प्रतिबंधित कर दिया गया तो इससे देश से लोकतंत्र हटकर निरंकुश शासन आ जाएगा जो भारतीय गणतंत्र के सिद्धांतों के मूल के विपरीत है।
केरल उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता किसी भी लोकतान्त्रिक समाज का अभिन्न अंग है और प्रेस की स्वतंत्रता का हनन करके एक खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दिया जाएगा जहां पर आलोचना और असंतोष को दबाना अधिकार माना जाएगा। हालांकि, उच्च न्यायालय ने मीडिया से भी यह अपेक्षा की कि वह संवेदनशील मामलों पर जिम्मेदारी से रिपोर्टिंग करें।
मीडिया से डरते क्यों हैं कम्युनिस्ट?
यह बहुत हैरानी की बात है कि भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में अभिव्यक्ति की आजादी का गाना गाने वाले कम्युनिस्ट अपनी सरकार आने पर मीडिया को ही प्रतिबंधित क्यों करते हैं? गुजरात दंगों से लेकर हाथरस के मामले तक हर जगह कम्युनिस्ट मीडिया ने जमकर भ्रम फैलाया है। बल्कि 2002 की रोटी तो अभी तक कम्युनिस्ट मीडिया खा रहा है और साथ ही कम्युनिस्ट नेता भी हिंदुओं के प्रति भ्रामक खबरों को प्रश्रय ही देते हुए अधिकतर पाए जाते हैं।
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भाजपा शासित किसी भी राज्य में किसी भी मामले पर भ्रामक ही नहीं बल्कि झूठी खबर भी अभिव्यक्ति का अधिकार होता है तो वहीं अपने शासित राज्य में लगभग हर मामले में मीडिया का कवरेज इन्हें अतिरेक लगता है या कहें राज्य के मामलों में हस्तक्षेप लगता है। ऐसा दोगला रवैया इनका क्यों है? क्यों कम्युनिस्ट शासन मीडिया की आवाज को दबाना चाहता है? क्यों वह स्वतंत्र मीडिया के कवरेज से डरता है?
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