विजयदशमी के अवसर उत्सव को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक पर्यावरण की विश्वव्यापी समस्या पर बात की। उन्होंने कहा कि चारों ओर के वातावरण में एक विश्वव्यापी समस्या जिसका अनुभव हाल के वर्षों में अपने देश में भी हो रहा है वह है पर्यावरण की दु:स्थिति। ऋतुचक्र अनियमित व उग्र बन गया है। उपभोगवादी तथा जड़वादी अधूरे वैचारिक आधार पर चली मानव की तथाकथित विकास यात्रा मानवों सहित सम्पूर्ण सृष्टि की विनाश यात्रा लगभग बन गयी है। अपने भारतवर्ष की परम्परा से प्राप्त सम्पूर्ण, समग्र व एकात्म दृष्टी के आधार पर हमने अपने विकास पथ को बनाना चाहिए था परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। अभी इस प्रकार का विचार थोड़ा थोड़ा सुनाई दे रहा है परन्तु उपरी तौर पर कुछ बातें स्वीकार हुईं हैं, कुछ बातों का परिवर्तन हुआ है। इससे अधिक काम नहीं हुआ है।
विकास के बहाने विनाश की ओर ले जाने वाले अधूरे विकास पथ के अन्धानुसरण के परिणाम हम भी भुगत रहे हैं। गर्मी की ऋतु झुलसा देती है, वर्षा बहा कर ले जाती है और शीत ऋतु जीवन को जड़वत् जमा देती है। ऋतुओं की यह विक्षिप्त तीव्रता हम अनुभव कर रहे हैं। जंगल काटने से हरियाली नष्ट हो गयी, नदियाँ सूख गयीं, रसायनों ने हमारे अन्न जल वायु व धरती तक को विषाक्त कर दिया, पर्वत ढहने लगे, भूमी फटने लगी, यह सारे अनुभव पिछले कुछ वर्षों में देश भर में हम अनुभव कर रहे हैं। अपने वैचारिक आधार पर, इस सारे नुकसान को पूरा कर हमको धारणाक्षम, समग्र व एकात्म विकास देने वाला हमारा पथ हम निर्माण करें इसका कोई पर्याय नहीं है। सम्पूर्ण देश में इसकी समान वैचारिक भूमिका बने व देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए क्रियान्वयन का विकेन्द्रित विचार हों तब यह संभव है।
परन्तु हम सामान्य लोग अपने घर से तीन छोटी छोटी सरल बातों का आचरण करते हुए प्रारम्भ कर सकते हैं। पहली बात है जल का न्यूनतम आवश्यक उपयोग तथा वर्षा जल का संधारण। दूसरी बात है प्लास्टिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करना। जिसको अंग्रेजी में single use plastic कहते हैं, उसका उपयोग पूर्णत: वर्ज करना। तीसरी बात अपने घर से लेकर बाहर भी हरियाली बढे, वृक्ष लगें, अपने जंगलों के और परम्परा से लगाए जाने वाले वृक्ष सर्वत्र खड़े हों इसकी चिंता करना। पर्यावरण के सम्बन्ध में नीतिगत प्रश्नों का समाधान होने के लिए समय लगेगा, परन्तु यह सहज कृति अपने घर से हम त्वरित प्रारम्भ कर सकते हैं।
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संस्कार जागरण पर भी की बात
इसके साथ ही सरसंघचालक जी ने संस्कारों के क्षरण के कारण बढ़ रहे अपराध पर बात की। उन्होंने कहा कि जहां तक संस्कारों के क्षरण का प्रश्न है, तीन स्थानों पर – जहां से संस्कार मिलते हैं, – संस्कार प्रदान की व्यवस्था को पुनर्स्थापित व समर्थ, सक्षम करना पडेगा। शिक्षा पद्धति पेट भरने की शिक्षा देने के साथ साथ छात्रों के व्यक्तित्व विकास का भी काम करती है। अपने देश के सांस्कृतिक मूल्य सारांश में बताने वाला एक सुभाषित है।
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स: पंडित:। ।
महिलाओं को माता समान देखने की दृष्टी, पराया धन मिट्टी समान मानते हुए स्वयं के परिश्रम से व सन्मार्ग से ही धनार्जन करना और दूसरों को दु:ख कष्ट हो ऐसे आचरण, कार्य नहीं करना, यह जिसका व्यवहार है उसको अपने यहाँ शिक्षित मानते हैं । नई शिक्षा नीति में इस प्रकार के मूल्य शिक्षा की व्यवस्था व तदनुरूप पाठ्यक्रम का प्रयास चला है परन्तु प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षकों के उदाहरण छात्रों के सामने उपस्थित हुए बिना यह शिक्षा प्रभावी नहीं होगी । इसलिए शिक्षकों के प्रशिक्षण की नई व्यवस्था निर्माण करनी पड़ेगी । दूसरा स्थान है समाज का वातावरण । समाज के जो प्रमुख लोग हैं जिनकी लोकप्रियता के कारण अनेक लोग उनका अनुकरण करते हैं, उनके आचरण में ये सारी बातें दिखनी चाहिए । इन बातों का मंडन भी उन प्रमुख लोगों को करना चाहिए और उनके प्रभाव से समाज में चलने वाले विभिन्न प्रबोधन कार्यों से यह मूल्य प्रबोधन किया जाना चाहिए । समाज संवाद माध्यमों का (social media) उपयोग करने वाले सभी सज्जनों को माध्यमों का उपयोग समाज को जोड़ने के लिए हैं, तोड़ने के लिए न हों, सुसंकृत करने के लिए है, अपसंस्कृति फैलाने के लिए नहीं इस बात की सावधानी बरतनी होगी।
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परन्तु शिक्षा का मूलारम्भ व उसके कारण बनने वाली स्वभावप्रवृत्ति, 3 से 12 साल तक की आयु में घर में ही बनती है। घर के बड़ों का व्यवहार, घर का वातावरण और घर में होने वाला आत्मीयता युक्त संवाद इनसे यह शिक्षा संपन्न होती है। हममें से प्रत्येक को अपने घर की चिंता करते हुए, अगर सहज यह संवाद नहीं है तो साप्ताहिक आयोजन से, इस संवाद का प्रारम्भ करना पडेगा। स्व गौरव, देश प्रेम, नीतिमत्ता, श्रेयबोध, कर्तव्यबोध आदि कई गुणों का निर्माण इसी कालावधी में होता है। यह समझकर हमको इस कार्य को स्वयं के घर से प्रारम्भ करना पड़ेगा।
कैसा हो हमारा सामाजिक व्यवहार
संस्कारों की अभिव्यक्ति का दूसरा पहलू है हमारा सामाजिक व्यवहार। समाज में हम एक साथ रहते हैं। साथ में सुखपूर्वक रह सके इसलिए कुछ नियम बने होते हैं। देश काल परिस्थितिनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहता है। परन्तु हम सुखपूर्वक एकत्र रह सके इसलिए उन नियमों के श्रद्धापूर्वक पालन की अनिवार्यता रहती है। एकत्र रहते हैं तो हमारे परस्परों के प्रति व्यवहार के भी कुछ कर्तव्य और उनके अनुशासन बन जाते है। कानून व संविधान भी ऐसा ही, एक सामाजिक अनुशासन हैं। समाज में सब लोग सुखपूर्वक, एकत्र रहें, उन्नती करते रहें, बिखरें नहीं, इसलिए बना हुआ अधिष्ठान व नियम है। हम भारत के लोगों ने अपने आप को यह संविधान से प्रतिबद्धता दी है। संविधान के प्रस्तावना के इस वाक्य के इस भाव को ध्यान में रखकर संविधान प्रदत्त कर्तव्यों का और कानून का योग्य निर्वहन सभी को करना होता है।
छोटी बड़ी सभी बातों में इस नियम व्यवस्था का पालन हमें करना चाहिए। रहदारी के नियम होते हैं, विभिन्न प्रकार के कर समय पर भरने पड़ते हैं, स्वयं के व्यक्तिगत तथा सामाजिक अर्थायाम की शुद्धता व पारदर्शिता का अनुशासन भी होता है। ऐसे अनेक प्रकार के नियमों का कर्त्तव्य बुद्धि से पूर्ण निर्वहन होना चाहिए। नियम व व्यवस्था का पालन शब्दशः व भाव ध्यान में रखते हुए, (in letter and spirit) दोनों प्रकार से करना चाहिए। यह ठीक प्रकार से हो सके इसलिए विशेष कर अपने संविधान के चार प्रकरणों की जानकारी, यथा – संविधान की प्रस्तावना, मार्गदर्शक तत्व, नागरिक कर्तव्य व नागरिक अधिकार – का प्रबोधन सर्वत्र होते रहना चाहिए। परिवार से प्राप्त पारस्पारिक व्यवहार का अनुशासन, परस्पर व्यवहार में मांगल्य, सद्भावना और भद्रता तथा सामाजिक व्यवहार में देशभक्ति व समाज के प्रति आत्मीयता के साथ कानून संविधान का निर्दोष पालन इन सबको मिलाकर व्यक्ति का व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य बनता है। देश की सुरक्षा, एकात्मता, अखण्डता व विकास साधने के लिए चारित्र्य के इन दो पहलुओं का त्रुटिविहीन व सम्पूर्ण होना अत्यंत महत्वपूर्ण बात है। हम सभी को व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य की इस साधना में सजगता व सातत्य के साथ लगे रहना पड़ेगा।
स्व गौरव
इन सारी बातों का आचरण सतत होता रहे इसलिए जो प्रेरणा आवश्यक है वह ‘स्व गौरव’ की प्रेरणा है। हम कौन हैं? हमारी परम्परा और हमारा गंतव्य क्या है? भारतवासियों के नाते हमारी सब विविधताओं के बावजूद हमें जो एक बड़ी, सर्व समावेशक, प्राचीन काल से चलती आयी हुई मानवीय पहचान मिली है, उसका स्पष्ट स्वरूप क्या है? इन सब बातों का ज्ञान होना, सबके लिए आवश्यक है। उस पहचान के उज्ज्वल गुणों को धारण करके, उसका गौरव मन और बुद्धि में स्थापित होता है, तो उसके आधार पर स्वाभिमान प्राप्त होता है। स्वगौरव की प्रेरणा का बल ही जगत में हमारे उन्नति व स्वावलंबन का कारण बनने वाला व्यवहार उत्पन्न करता है। उसी को हम स्वदेशी का आचरण कहते हैं। राष्ट्रीय नीति में उसकी अभिव्यक्ति बहुत बड़ी मात्रा में, समाज में दैनंदिन जीवन में व्यक्तियों द्वारा होने वाले स्वदेशी व्यवहार पर निर्भर करती है। इसी को स्वदेशी का आचरण कहते है। जो घर में बनता है वो बाहर से नहीं लाना, देश का रोजगार चले बढे इतना अपने देश में घर के बाहर से लाना। जो देश में बनता है वो बाहर से नहीं लाना । जो देश में बनता नहीं उसके बिना काम चलाना। कोई जीवनावश्यक वस्तु है, जिसके बिना काम चलता नहीं वही केवल विदेश से लेना। घर के अन्दर भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन ये अपना हो, अपनी परम्परा का हो यह ध्यान रखना, यह सारांश में स्वदेशी व्यवहार है। सब क्षेत्रों में देश के स्वावलंबी बनने से स्वदेशी व्यवहार करना सरल होता है। इसलिए स्वतन्त्र देश की नीति में देश के स्वावलंबी बनने का परिणाम साध सकने वाली नीति जुड़नी चाहिए साथ ही समाज ने प्रयत्न पूर्वक स्वदेशी व्यवहार को जीवन तथा स्वभाव का अंग बनाना चाहिए।
मन – वचन – कर्म का विवेक
राष्ट्रीय चारित्र्य के व्यवहार का एक और महत्वपूर्ण पहलू है, किसी भी प्रकार की अतिवादिता तथा अवैध पद्धति से अपने आप को दूर रखना। अपना देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। उनको हम भेद नहीं मानते, न ही मानना चाहिए। हमारी विविधताएं सृष्टि की स्वाभाविक विशिष्टताएं है। इतने प्राचीन इतिहास वाले, विस्तीर्ण क्षेत्रफल वाले तथा विशाल जनसंख्या वाले देश में यह सभी विशिष्टताएं स्वाभाविक हैं। अपनी अपनी विशिष्टता का गौरव तथा उनके प्रति अपनी अपनी संवेदनशीलताएं भी स्वाभाविक है। इस विविधता के चलते समाज जीवन में व देश के संचालन में होने वाली सब बातें सदा सर्वदा सबके अनुकूल अथवा सबको प्रसन्न करने वाली होंगी ही ऐसा नहीं होता। ये सारी बातें किसी एक समाज के द्वारा होती हैं ऐसा नहीं है। इनकी प्रतिक्रिया में कानून और व्यवस्था को धता बता कर अवैध या हिंसात्मक मार्ग से उपद्रव खड़े करना, समाज के किसी एक सम्पूर्ण वर्ग को उनका जिम्मेवार मानना, मन वचन और कर्म से मर्यादा का उल्लंघन करते हुए चलना, यह देश के लिए – देश में किसी के लिए – न विहित है न हितकारी। सहिष्णुता व सद्भावना भारत की परंपरा है।
असहिष्णुता व दुर्भावना भारत विरोधी व मानव विरोधी दुर्गुण है। इसलिए क्षोभ कितना भी हो, ऐसे असंयम से बचना चाहिए तथा अपने लोगों को बचाना चाहिए। अपने मन, वाणी अथवा कृति से किसी की श्रद्धा का, श्रद्धास्पद स्थान, महापुरुष, ग्रंथ, अवतार, संत आदि का अपमान न हों, इस का ध्यान स्वयं के व्यवहार में रखना चाहिए। दुर्भाग्यवश अन्य किसी से ऐसा कुछ होने पर भी स्वयं पर नियंत्रण रखकर ही चलना चाहिए। सब बातों के परे, सब बातों के ऊपर महत्त्व समाज की एकात्मता, सद्भाव व सद् व्यवहार का है। यह किसी भी काल में, किसी भी राष्ट्र के लिए परम सत्य है, तथा मनुष्यों के सुखी अस्तित्व तथा सहजीवन का एकमात्र उपाय है।
परन्तु जैसे आधुनिक जगत की रीति है, सत्य को सत्य के अपने मूल्य पर जगत स्वीकार नहीं करता। जगत शक्ति को स्वीकार करता है। भारत वर्ष बड़ा होने से दुनिया में आंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में सद्भावना व संतुलन उत्पन्न होकर शान्ति और बंधुता की ओर विश्व बढेगा, यह विश्व में सब राष्ट्र जानते है। फिर भी अपने संकुचित स्वार्थ और अहंकार या द्वेष को लेकर भारत वर्ष को एक मर्यादा में बांधकर रखने की शक्तिशाली देशों की चेष्टा को हम सब अनुभव करते हैं। भारत वर्ष की शक्ति जितनी बढ़ेगी उतनी ही भारत वर्ष की स्वीकार्यता रहेगी।
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‘बलहीनोंकों नही पूछता, बलवानों को विश्व पूजता’ यह आज के जगत की रीति है। इसलिए उपरोक्त सद्भाव व संयमपूर्ण वातावरण की स्थापना के लिए सज्जनों को शक्तिसंपन्न होना ही पडेगा। शक्ति जब शीलसंपन्न होकर आती है तब वह शान्ति का आधार बनाती है। दुर्जन स्वार्थ के लिए एकत्र रहते हैं और सजग रहते हैं। उनका नियंत्रण सशक्त ही कर सकते है। सज्जन सबके प्रति सद्भाव रखते हैं परन्तु एकत्र होना नहीं जानते। इसीलिए दुर्बल दिखाई देते हैं। उनको यह संगठित सामर्थ्य के निर्माण की कला सीखनी पड़ेगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दू समाज के इसी शीलसंपन्न शक्ति साधना का नाम है। इस भाषण में इसके पूर्व वर्णित सद् व्यवहार के पांच बिंदु लेकर समाज में सज्जनों को जोड़ने का विचार संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं। भारत को बढ़ने देना न चाहने वाले, अपने स्वार्थ के लिए ऐसे भारत विरोधियों के साथ आने वाले तथा स्वभाव से जो बैर और द्वेष में ही आनंद मानते हैं ऐसी शक्तियों से सुरक्षित रहकर देश को आगे बढ़ना है।
इसलिए शीलसंपन्न व्यवहार के साथ शक्ति साधना भी महत्त्वपूर्ण है। इसलिए संघ की प्रार्थना में ,कोई परास्त न कर सके ऐसी शक्ति और विश्व विनम्र हो ऐसा शील भगवान से मांगा गया है। विश्व के, मानवता के कल्याण का कोई काम अनुकूल परिस्थिति में भी इन दो गुणों के बिना संपन्न नहीं होता। नौ अहोरात्रि जागरण करते हुए सभी देवताओं ने अपनी अपनी शक्तियों को एक में संगठित किया तब उस शील संपन्न संहत शक्ति से चिन्मयी जगदम्बा जागी, दुष्टों का निर्दालन हुआ, सज्जनों का परित्राण हुआ, विश्व का कल्याण हुआ। इसी विश्व मंगल साधना में मौन पुजारी के नाते संघ लगा है। हम सबको यही साधना अपने पवित्र मातृभूमि को परमवैभवसंपन्न बनाने की शक्ति व सफलता प्रदान करेगी। इसी साधना से विश्व के सभी राष्ट्र अपना अपना उत्कर्ष साधकर नए, सुख- शान्ति व सद् भावना युक्त विश्व को बनाने में अपना योगदान प्रदान करेंगे। उस साधना में आप सभी सादर निमंत्रित है।
हिन्दू भूमि का कण कण हो अब, शक्ति का अवतार उठे,
जल थल से अम्बर से फिर, हिन्दू की जय जय कार उठे
जग जननी का जयकार उठे
|| भारत माता की जय ||
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