खबर बहुत बड़ी थी। हाल ही में बेल्जियम के राजा और प्रधानमंत्री ने चर्च में हो रहे यौन उत्पीड़न पर सीधे तौर पर पोप से कार्रवाई की मांग की। बेल्जियम सरकार के वरिष्ठ नेताओं ने चर्च के शीर्ष नेतृत्व से कहा, ‘चुप रहने से काम नहीं चलेगा, एक्शन लो।’ किंतु बात चर्च की थी, सो हर बार की तरह खबर दब गई या कहें, दबा दी गई। वैसे, यह बयान स्पष्ट रूप से इस बात को इंगित करता है कि अब सभ्य समाज और लोकतांत्रिक व्यवस्था से उभरा राजनीतिक नेतृत्व चर्च में व्याप्त यौन अपराधों पर केवल बयानबाजी या प्रतीकात्मक कार्यवाही से संतुष्ट नहीं है। केवल रस्मी बयानबाजी या दिखावे की कार्यवाही से क्या होगा!
बेल्जियम के इस कदम को एक ऐसे व्यापक वैश्विक मुद्दे के संदर्भ में देखा जाना चाहिए, जहां कैथोलिक चर्च यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोपों से लिथड़ा पड़ा है और इसका समाधान अभी तक संतोषजनक रूप से नहीं हुआ है।
वैसे भी, यौन अपराधों पर चर्च की चुप्पी का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है। कैथोलिक चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न के मामले दशकों से उजागर होते आ रहे हैं, परंतु इन पर चर्च का रवैया अक्सर टालमटोल और लीपापोती वाला रहा है। यौन शोषण के शिकार लोगों ने बार-बार आवाज उठाई, पर उन्हें ज्यादातर मामलों में न्याय नहीं मिला। इसके विपरीत, चर्च ने अक्सर इन मामलों को दबाने का ही प्रयास किया, उनका समाधान करने का नहीं।
डेविड क्लॉस, जो चर्च के भीतर यौन शोषण के पीड़ितों के लिए एक प्रमुख आवाज रहे हैं, अपनी पुस्तक Betrayal: The Crisis in the Catholic Church में पृष्ठ 82 पर लिखते हैं, ‘‘यौन दुर्व्यवहार के मामलों में चर्च का दृष्टिकोण जवाबदेही और न्याय के बजाय मामले को दबाने और आरोपों को नकारने का रहा है।’’
यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि चर्च ने यौन अपराधों के मामलों को सुलझाने के बजाय उन्हें छिपाने और दोषियों को बचाने का प्रयास किया है। यह समस्या केवल व्यक्तिगत घटनाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज के लिए खतरा या कहिए, एक संस्थागत संकट बन चुकी है।
आरोप अपने आप में गंभीर हैं। इन पर चर्च का ऐसा रवैया खतरे को कई गुना बढ़ा रहा है। चर्च के शीर्ष नेतृत्व द्वारा यौन अपराधों के मामलों को अक्सर चर्च के भीतर ही निपटाने का प्रयास किया जाता है। इससे न केवल अपराधियों को बचने का मौका मिलता है, बल्कि पीड़ितों को भी न्याय से वंचित किया जाता है।
चर्च ने कई बार सार्वजनिक रूप से यौन अपराधों के खिलाफ कठोर कदम उठाने का दावा किया, लेकिन जमीनी वास्तविकता कुछ और ही है। उदाहरणस्वरूप, चर्च ने यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच के लिए आंतरिक समितियों का गठन किया है, परंतु इन समितियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं। कई रिपोट्स ने यह भी खुलासा किया है कि चर्च ने जान-बूझकर अपराधियों को कानून से बचाया और उनके अपराधों को छिपाने के लिए धन और दबाव का इस्तेमाल किया।
फ्रांस के चर्च यौन उत्पीड़न के मामलों का अध्ययन करने वाले आयोग ने 2021 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें 1950 से 2020 तक चर्च के अंदर बच्चों के 2,16,000 से अधिक यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज किए गए थे। यह रिपोर्ट चर्च के भीतर व्याप्त यौन शोषण के पैमाने को दर्शाती है। रिपोर्ट में कहा गया कि इन अपराधों को चर्च ने लंबे समय तक दबाए रखा और पीड़ितों को न्याय से वंचित किया गया।
सिविल सोसाइटी ने बार-बार चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न के मामलों को उजागर किया है। SNAP (Survivors Network of those Abused by Priests) जैसी संस्थाएं चर्च के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए पीड़ितों के लिए न्याय की मांग करती रही हैं। लेकिन चर्च की ओर से अब तक इस पर कोई ठोस और व्यापक कदम उठता नहीं दिखता।
पोप फ्रांसिस ने अपने नेतृत्व के दौरान कई बार यौन अपराधों के खिलाफ कार्रवाई की बात कही है। 2019 में उन्होंने ‘Vos estis lux mundi’ नामक निर्देश जारी किया, जिसमें उन्होंने कैथोलिक चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न के मामलों की जांच करने के लिए नए नियम बनाए। हालांकि, इन कदमों की प्रभावशीलता पर सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि स्थानीय चर्च नेतृत्व ने अक्सर इन निर्देशों को अनदेखा किया या उनका पालन सही तरीके से नहीं किया।
फिलिप जेनकिंस की पुस्तक Pedophiles and Priests: Anatomy of a Contemporary Crisis के पृष्ठ 150 पर इस विषय में विस्तार से चर्चा की गई है। पुस्तक में स्पष्ट उल्लेख है कि किस तरह दुर्व्यवहार से निपटने के लिए चर्च की आंतरिक व्यवस्था नाकारा साबित हुई, क्योंकि यह अक्सर पीड़ितों की तुलना में पादरी वर्ग के लिए ‘नरम’ थी। इससे दंड से मुक्ति और भय मिश्रित चुप्पी के वातावरण का निर्माण होता था।
भारत में भी चर्च के अनुयायियों में, विशेषरूप से दो घटनाओं को लेकर जबरदस्त आक्रोश उपजा था, लेकिन शायद चर्च के इशारे पर दोनों बार उसे दबा दिया गया और पीड़िताओं को हाशिए पर जाने को विवश कर दिया गया। इनमें से एक हैं, सिस्टर जेस्मी, जिन्होंने अपनी व्यथा अपनी पुस्तक-‘आमीन : एक नन की आत्मकथा’ में व्यक्त की है। दूसरी, सिस्टर लूसी कालपुरा की दर्दनाक गाथा, जिसमें 2014-2016 में बिशप फ्रेंको मुलक्कल द्वारा उनका 13 बार यौन शोषण किए जाने और अंतत: चर्च के प्रभाव से बिशप के केरल की अदालत से ‘बरी’ हो जाने का घटनाक्रम है। चर्च से निकाले जाने के बाद सिस्टर लूसी ने वेटिकन से गुहार लगाई, पर उनकी अपील खारिज कर दी गई। दूसरी बार, साथी नन से बलात्कार के आरोपी बिशप के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल होने पर ‘अनुशासनात्मक कार्रवाई’ के खिलाफ दूसरी बार वेटिकन से अपील की, तो उसे भी खारिज कर दिया गया।
आज यह कहना आवश्यक है कि चर्च के भीतर अपराधियों को बचाने की संस्कृति ने यौन अपराधों की समस्या को और गहरा कर दिया है। बेल्जियम की घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब चर्च के लिए यौन अपराधों पर चुप्पी साधना संभव नहीं है। बेल्जियम के प्रधानमंत्री और राजा का यह कदम वैश्विक स्तर पर चर्च के प्रति बढ़ती असहिष्णुता का प्रतीक है। यह सिर्फ बेल्जियम तक सीमित नहीं है; दुनिया भर में कई देश चर्च से यौन अपराधों के मामलों पर जवाबदेही की मांग कर रहे हैं। आस्ट्रेलिया और आयरलैंड जैसे देशों में चर्च के खिलाफ व्यापक जांच और पीड़ितों के लिए मुआवजे की मांगें उठाई गई हैं। आस्ट्रेलिया में ‘रॉयल कमीशन इनटू इंस्टीट्यूशनल रिस्पॉन्स टू चाइल्ड सेक्सुअल एब्यूज’ द्वारा की गई जांच में यह पाया गया कि चर्च ने दशकों तक यौन शोषण के मामलों को छिपाने का काम किया। इस रिपोर्ट के बाद कई बड़े कैथोलिक अधिकारियों को इस्तीफा देना पड़ा और चर्च को मुआवजे के रूप में भारी रकम चुकानी पड़ी।
चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न की समस्या को हल करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। सबसे पहला कदम यह होना चाहिए कि चर्च इन मामलों को कानूनी रूप से निपटाए, बजाय इसके कि वे आंतरिक समितियों के माध्यम से इन्हें निपटाने की कोशिश करें। इसके साथ ही, यौन उत्पीड़न के मामलों में पूर्ण पारदर्शिता सुनिश्चित करना आवश्यक है। पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए स्वतंत्र जांच एजेंसियों का सहयोग जरूरी है, और अपराधियों को कठोर सजा दी जानी चाहिए। इसके अलावा, चर्च को इस मुद्दे पर अपनी नैतिक जिम्मेदारी को समझना होगा और इसके समाधान के लिए एक वास्तविक प्रयास करना होगा।
यह अब इक्का-दुक्का घटनाओं की बात नहीं है। बल्कि चर्च के भीतर यौन उत्पीड़न की समस्या अब एक वैश्विक संकट का रूप ले चुकी है। सभ्य समाज और राजनीतिक नेतृत्व अब इसे और सहने के लिए तैयार नहीं हैं। बेल्जियम के प्रधानमंत्री और राजा का पोप से सीधा आग्रह दशार्ता है कि अब चर्च के लिए टालमटोल का समय समाप्त हो चुका है। यदि चर्च इस गंभीर मुद्दे पर ठोस कदम नहीं उठाता, तो उसका नैतिक नेतृत्व संकट में पड़ सकता है। जिसकी धोई-चमकाई श्वेत-धवल छवि पर पहले ही लांछनों और कुकृत्यों के अनगिनत छींटे पड़े हैं।
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