जी सरपंच जी! नहीं, सरपंच न कहें, मैं उपसरपंच था। मैंने कहा, आप हमारे लिए किसी सरपंच से कम नहीं हैं। इतना कहते ही सियाराम रामटेके के दुख भरे चेहरे पर एक हल्की-सी हंसी आई। कुछ पूछता उससे पहले ही वे कहने लगे- कांकेर के कोईलीबेड़ा का रहने वाला हूं। हम किसान हैं, खेती करते हैं। दो साल पहले की बात है। रोजमर्रा की तरह एक दिन खेत गया था। नक्सलियों को भनक लग गई। उन्होंने गोलियां बरसा दीं। पैर, कमर, पेट में गोली मारी। पैर की हड्डियों को तोड़कर गोलियां बाहर निकलीं। यह देखिए-गोलियों के निशान। खुद से, अपने पैरों पर अब खड़ा नहीं हो पाता। सहारा लेना पड़ता है।
मैंने पूछा कि नक्सलियों ने गोली क्यों मारी। इस पर सियाराम ने कहा कि उनसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं थी। नक्सलियों को विकास पसंद नहीं है। मैं उपसरपंच होने के नाते सरकार की विकास योजनाओं की बैठकों में जाता था। उन्हें (नक्सलियों) लगा होगा कि यहां विकास होगा। इतना कहकर वे चुप हो जाते हैं और फिर अपने पैरों की ओर देखकर कहते हैं-नक्सलियों ने गोलियां बरसाई थीं, मुझे खुद कोई उम्मीद नहीं थी कि जिंदा बचूंगा। उन्होंने पर्चे तक फेंके कि मैं मर गया। नक्सलियों से भय के कारण अब दूसरी जगह रहता हूं। यह पूछने पर कि गांव के लोग साथ नहीं देते? सियाराम ने कहा कि गांव के लोग साथ नहीं खड़े होते, उन्हें लगता है कि नक्सली उन्हें भी निशाना बनाएंगे। जो लोग मेरे साथ उठते-बैठते थे, वे मुझसे अब बात तक करने में परहेज करते हैं।
गांव जाएंगे? इस पर उन्होंने कहा कि जब सुरक्षा का प्रबंध होगा तब जा सकता हूं। उस समय मेरा यह हाल किया था, तो अब क्या होगा। सुरक्षा व्यवस्था होगी तभी गांव जाना होगा। मैंने देखा कि किसी का हाथ नहीं है, किसी का पैर नहीं, किसी का चेहरा बिगड़ गया। मैंने फिर पूछा, दिल्ली क्यों आए हैं? इन सबको देखकर मैं भी दिल्ली में बस्तर की शांति के लिए आया हूं। बस्तर शांत था, बस्तर को शांति चाहिए। बस्तर को शांत होना चाहिए।
पास में एक महिला खड़ी थी। मैंने नमस्ते की। हाथ जोड़े तो उसने सिर हिलाया, लेकिन मेरी भाषा नहीं समझ सकी। किसी ने बताया कि वे सुकमा की रहने वाली हैं और उन्हें हिंदी नहीं आती। जनजातीय समाज के ही एक सज्जन से मैंने कहा कि इनसे बात करनी है, आप मदद कर सकते हैं ? उन्होंने हां में उत्तर दिया। मैंने पूछा कि क्या नाम है? नाम-सोड़ी हुंगी, गांव-एटलपारा। एक दिन रास्ते में किसी काम से जा रही थी। इसी दौरान आईईडी पर पैर पड़ा और धमाका हो गया। हाथ टूट गया, कई घंटे तक होश नहीं रहा। इतना कहकर सोड़ी हुंगी चल देती हैं। नारायणपुर का रामू हमारी बातों को ध्यान से सुन रहा था। बोला- हमारे दादा जी के समय जैसा माहौल था, वैसा ही अब चाहिए।
नारायणपुर के मंगाऊ राव कांवड़े कहते हैं, ”पांचवीं-छठी में पढ़ता था। फिर शहर आ गया तो बच निकला। वे (नक्सली) मेरे गांव के आस-पास के लोगों को मारते थे। डर लगा तो दूरियां बना लीं। छुट्टी के दिनों में भी गांव नहीं जाता था। सुरक्षा बलों के कैंप खुले तो नक्सली वहां से दूर चले गए। उन्होंने (नक्सलियों) गांव के सरपंच को मार दिया था। आरोप लगाया था कि सरपंच की वजह से कैंप खुला। नारायणपुरा जब जिला मुख्यालय नहीं था तब रोज आंदोलन होते थे। नक्सली गांव के भोले-भाले लोगों को बरगलाकर आंदोलन करवाते थे। विकास कार्य रुक जाते थे। गांववालों को भड़काते थे कि सरकार उनके अधिकार छीन रही है।
गांव में कोई आवाज उठाने को आगे आता तो उसे मार देते थे, वर्ष 2002 से 2008 तक यही दौर चला। जो अच्छा कमाते हैं, उन्हें निशाना बनाया जाता था। लोगों में डर था। 2002 तक गांव में लाइट तक नहीं था। आज की तरह कोई समाचार नहीं मिलता था। कुछ पता ही नहीं चलता था कि किस गांव में कितने लोग मार दिए गए। नक्सलियों की क्रूरता को चालीस साल से ज्यादा हो गए, अति हो गई। दिल्ली से कथित पढ़े-लिखे लोग बस्तर जाते थे, वे सचाई तो लिखे नहीं, इसलिए हम यहां (दिल्ली) अपनी बात खुद सुनाने आए हैं। वे (कथित एलीट) पहले से विषय बनाकर जाते थे।
वे दिल्ली से अपनी रिपोर्ट तैयार करके बस्तर आते थे। दुनिया को पता ही नहीं चलता था कि बस्तर में वास्तव में क्या चल रहा है। वे यही संदेश देते थे कि सरकार जल, जंगल, जमीन छीन रही है। हकीकत क्या है उसे कभी बताया ही नहीं गया। एक बुजुर्ग की आंखों में आंसू थे। मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। उनका दर्द गहरा था। कैमरा सामने आया तो बोले, ‘‘रोते हुए फोटो मत लो भाई। वे (नक्सली) पता नहीं क्या करेंगे। बेटे के सिर को तो कुल्हाड़ी से काट ही दिया है। मुझे भी पांच किलोमीटर तक सड़क पर घसीटा।’’ इतना कहकर उनकी दोनों आंखों से आंसू झर-झर गिरने लगे।
अंदर तक हिला देने वाली ये बातें महज कहानियां नहीं, सचाई है। यह उन हजारों लोगों का भोगा गया दर्द है, जो नक्सली हिंसा का शिकार हुए और अब भी हो रहे हैं। नक्सलियों ने उन्हें जो पीड़ा दी है, वह पर्वत से भी बड़ी है और इतनी घनी है कि पिघल ही नहीं पा रही। इस दर्द भरे पर्वत को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता, बस महसूस किया जा सकता है।
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