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भारतीय स्वतंत्रता समर में क्रांति की देवी : वीरांगना दुर्गा भाभी

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डॉ आनंद सिंह राणा

क्या हर बार की तरह 7 अक्टूबर की तारीख बिना उन्हें याद किए गुजर जाएगी ? वीरांगना परम आदरणीय, दुर्गा भाभी तथाकथित सुनहरे इतिहास के पन्नों में लुप्तप्राय एक सुनहरा व्यक्तित्व है। यूँ तो भारतीय इतिहास के पन्नों में, भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम दर्ज किए गए, लेकिन ऐसे बहुत से महान सेनानी भी हैं जिन्होंने ना केवल अपना पूरा जीवन इस संघर्ष के नाम किया, वरन् इस संघर्ष को सफल बनाने में भी अद्वितीय योगदान दिया है। लेकिन दुर्भाग्यवश! इन्हें ना तो हमारे इतिहास के पन्नों पर उचित स्थान दिया गया और ना ही इनके बलिदान को वो सम्मान मिल सका, जिनके ये अधिकारी थे और वे महत्वपूर्ण व्यक्तिव धीरे-धीरे हमारे सुनहरे इतिहास की चमक से पीछे विस्मृति के गर्भ में समाते से जा रहे हैं। ऐंसी ही विभूतियों में से एक हैं-‘वीरांगना दुर्गा भाभी’।

‘दुर्गा भाभी’ का वास्तविक नाम था-दुर्गावती देवी। उनका जन्म 7 अक्टूबर 1907 में शहजादपुर ग्राम में पण्डित बांके बिहारी के यहां हुआ था। दुर्गावती का विवाह भगवती चरण वोहरा के साथ हुआ। दुर्गावती के पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाज़िर थे और उनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊँचे पद पर तैनात थे। वोहरा क्रन्तिकारी संगठन एच. एस. आर. ए. के प्रचार सचिव थे। दिल्ली के क़ुतुब रोड में स्थित घर में, वोहरा, विमल प्रसाद जैन के साथ बम बनाने का काम करते थे, जिसमें दुर्गा भी उन लोगों की सहायता करतीं। प्रारंभिक दिनों में दुर्गा भाभी सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने और बम के सामान को लाने पहुँचाने का भी काम करती थीं। 16 नवम्बर, 1926 में लाहौर में नौजवान भारत सभा द्वारा भाषण का आयोजन किया गया, जहां दुर्गावती नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्य के तौर पर सामने आयीं। वह अद्भुत योजना-निर्मात्री थीं, जिनकी योजना कभी-भी असफल नहीं होती थी। अभी भगवती चरण कलकत्ता में ही थे कि 17 दिसंबर, 1928 को लाला लाजपत राय पर जेम्स एंडरसन स्काट के आदेश से लाठी चलाने वाले अंग्रेज पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स का वध कर दिया गया। ब्रिटिश सरकार ने लाहौर पर तरह-तरह की पाबंदियां थोप दीं। दुर्गा भाभी अपने तीन वर्षीय अबोध पुत्र के साथ घर पर अकेली थीं कि देर रात किसी ने उनके घर की कुंडी धीरे से खटखटाई। दरवाजा खोला तो भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु सामने खडे़ थे। उन्हें समझते देर न लगी कि सांडर्स का वध इन्हीं का काम है।

उन्होंने इन लोगों को अपने घर में पनाह दी, पर इतना पर्याप्त न था। उन्हें मालूम था कि जब घर-घर तलाशी ली जा रही हो, तब आज नहीं तो कल पुलिस वहां भी आ धमकने वाली है। भगत सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने का मतलब होता क्रांति की उफनती धारा का थम जाना। अनिश्चितता के उन्हीं लम्हों में वीरांगना दुर्गावती वोहरा ने एक अत्यंत साहसिक निर्णय लिया। वह भगत सिंह की पत्नी का स्वांग धर उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकाल ले गईं। भगत सिंह अगर उस दौरान जिंदा बच सके तो उसके पीछे दुर्गावती का दृढ़ निश्चय और असीम साहस था। उनके पतिदेव जो धन गाढ़े समय के लिए उन्हें सौंप गए थे, वह भी क्रांतिकारियों की राह सुगम करने में खर्च हो गया। उन दिनों पांच हजार की रकम बहुत बड़ी राशि मानी जाती थी।

भगवती चरण वोहरा और दुर्गा भाभी का रिश्ता अनूठे विश्वास और साहचर्य का था। इसीलिए उनकी भूमिका सिर्फ क्रांतिकारियों की सहयोगी भर की नहीं थी। दुर्गावती वोहरा को भारत की अग्नि भी कहा जाता है। यह दुर्गा भाभी ही थीं जिन्होंने अपने पति के बम कारखाने पर छापा पड़ने के बाद, क्रांतिकारियों के लिए पत्र मंजूषा का काम किया। जुलाई 1929 में, उन्होंने भगत सिंह की तस्वीर के साथ लाहौर में एक जुलूस का नेतृत्व किया और उनकी रिहाई की मांग की। इसके कुछ सप्ताह बाद, 63 दिनों तक भूख हड़ताल करनेवाले जातिंद्र नाथ दास की जेल में ही बलिदान हो गए थे। ये दुर्गा देवी ही थीं, जिन्होंने लाहौर में उनका अंतिम संस्कार करवाया।

भगवती चरण ने उन्हें बंदूक चलाना सिखाया था। 8 अक्तूबर, 1930 को उन्होंने दक्षिण बंबई के लैमिंग्टन रोड पर स्थित पुलिस स्टेशन के आगे एक ब्रिटिश पुलिस सार्जेंट और उसकी पत्नी पर गोली चला दी थी। यह कदम उन्होंने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को एक दिन पहले सुनाई गई फांसी की सजा के प्रतिकार में उठाया था। ब्रिटिश सरकार के लिए यह बडे़ आश्चर्य की बात थी कि कोई महिला इतनी साहसी कैसे हो सकती है? फलस्वरूप सारा अमला उनके पीछे लग गया और वह अंतत: सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर ली गईं। हालांकि, उस गोलीकांड में उनकी भूमिका पर कुछ सवाल उठाए गए, मगर इससे उनकी गाथा पर फर्क क्या पड़ता है? वह ब्रिटिश सरकार की आंखों में कितना खटकती थीं, इसका खुलासा तत्कालीन इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस एसटी होलिन्स की पुस्तक नो टेन कमांडेंट्स से भी होता है। इस बीच दो साल पहले भगवती चरण वोहरा रावी नदी के तट पर बम बनाते समय हुए विस्फोट में बलिदान हुए थे। दुर्गा भाभी को उनके आखिरी दर्शन तक नसीब नहीं हुए थे, पर अपने स्वर्गीय पति की प्रेरणा को उन्होंने मरते समय तक संजोए रखा। क्रांतिकारी उन्हें भाभी भी इसीलिए कहते कि वह उनके अग्रज भगवती चरण वोहरा की सहधर्मचारिणी थीं। इस सबके बाद दुर्गावती एकदम अकेली पड़ गईं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पंजाब के पूर्व राज्यपाल लार्ड हैली को मारने की साजिश रच डाली, जो क्रांतिकारियों का बड़ा दुश्मन था। 1 अक्टूबर,1931 को बंबई के लेमिंग्टन रोड पर दुर्गावती ने साथियों के साथ मिलकर हैली की गाड़ी को बम से उड़ा दिया, जिसके बाद पूरी ब्रिटिश पुलिस दुर्गावती की तलाश में जुट गई। लेकिन वे दुर्गावती को खोज नहीं पाए, 8 अक्टूबर को उन्होंने दक्षिण बॉम्बे में पुनः लैमिंगटन रोड पर खड़े हुए एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी पर हमला किया। यह पहली बार था जब किसी महिला को ‘इस तरह से क्रन्तिकारी गतिविधियों में शामिल’ पाया गया था। इसके लिए, उन्हें सितंबर 1932 में गिरफ्तार कर लिया गया और तीन साल की जेल हुई।

भारत की स्वतंत्रता में उनका केवल यही योगदान नहीं था। सन् 1939 में, उन्होंने मद्रास में मारिया मोंटेसरी (इटली के प्रसिद्ध शिक्षक) से प्रशिक्षण प्राप्त किया। एक साल बाद, उन्होंने लखनऊ में उत्तर भारत का पहला मोंटेसरी स्कूल खोला। इस स्कूल को उन्होंने पिछड़े वर्ग के पांच छात्रों के साथ शुरू किया था। स्वतंत्रता के बाद के वर्षों तक दुर्गा देवी लखनऊ में गुमनामी की ज़िन्दगी जीती रहीं। 15 अक्टूबर, 1999 को 92 साल की उम्र में वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं ।

सदा यही होता आया है कि हमारा इतिहास उन महिलाओं के बलिदान और उनकी बहादुरी को सदैव भूल सा जाता है जिन्होंने तत्कालीन सत्ताधारियों की चाटुकारिता कभी नहीं की। अनेक ऐसी वीरांगनाएं सदैव छिपी ही रह जाती हैं। दुर्गा देवी वोहरा भी उन्हीं वीरांगनाओं में से एक हैं। देश की स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने वाली ऐसी वीरांगनाओं को कोटि कोटि प्रणाम है। दुर्गावती की मृत्यु हुए यूँ तो कई साल बीत चुके है,लेकिन आज भी उनकी वीरता की कहानी हर हिन्दुस्तानी के ध्यान को आकृष्ट कर,उन्हें गौरवान्वित करती है। दुर्गावती मिसाल हैं, नारी के सशक्त रूप की और सच्चे देश भक्त की। जिनके लिए क्रांति का तात्पर्य केवल सत्ता का तख्ता पलट करना मात्र नहीं था,उनके लिए वास्तविक क्रांति का तात्पर्य था,स्वाधीनता के बाद एक सशक्त देश की नींव डालना, एक शिक्षित समाज का निर्माण करना और यही वजह थी कि दुर्गावती ने शुरु से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने का नेक काम शुरु किया,जिसे उन्होंने जीवन पर्यन्त कायम रखा। दुर्गावती की यही कार्य-प्रणाली और दूरदृष्टि उनके व्यक्तित्व को महान और अविस्मरणीय बनाती है।

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