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पहचानिए उस निकृष्ट सोच को

आज चर्बी के लड्डू पर है मौन। तब ब्रिटिश शासन का शोषण अपने चरम पर था। बेरोजगारी, भुखमरी,अकाल।

by Rajpal Singh Rawat
Oct 4, 2024, 07:17 am IST
in भारत, मत अभिमत, आंध्र प्रदेश
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चर्बी के कारतूस से शुरू हुई 1857 क्रांति, आज चर्बी के लड्डू पर है मौन। तब ब्रिटिश शासन का शोषण अपने चरम पर था। बेरोजगारी, भुखमरी,अकाल। कुल मिलाकर चारों और विनाश ही विनाश था, पर कोई गंभीर प्रतिक्रिया दिखाई नहीं दे रही थी। ऐसे समय चर्बी वाले कारतूसों ने शोषण की अति को उजागर किया। इसका उद्देश्य धर्म,समाज, संस्कृति को नष्ट करना था। ऐसे अवसर पर वीरों ने क्रांति का आह्वान किया।

मंगल पांडे ने 1857 की क्रांति का बिगुल बजा दिया और चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग से इनकार कर दिया। देखते ही देखते क्रांति का दावानल लगभग संपूर्ण भारत में फैल गया, जिसे हम 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं। अक्रांता यहां आए, नरसंहार किया, हमारी आस्था के प्रतीकों को नष्ट किया, जबरन कन्वर्जन किया, विश्व इतिहास में सर्वाधिक त्रासदी भारत ने झेली।

आजादी के बाद हमारे बचे हुए मंदिरों पर सरकार का अधिकार, उनकी जमीन पर लोगों का अधिकार। हमारे धन से देश की आधारभूत संरचना का निर्माण, जिसे देखकर हमें प्रसन्नता होती है और राष्ट्र गौरव महसूस होता है। लेकिन मंदिरों का धन हिंदुओं का होकर भी हिंदुओं को नहीं मिलता। ये कैसा लोकतंत्र है, जहां बहुमत की सुनी नहीं जाती। खैर, इस शोषण को भी अनेक वर्ष सहन किया। आज वही 1857 की क्रांति की घटाएं फिर से छाने लगी हैं।

आज धर्म एवं हमारी आस्था के केंद्रों के साथ जानबूझकर षड्यंत्र किया जा रहा है। कभी महिला प्रवेश को लेकर शनि शिंगणापुर मंदिर में, सबरीमाला में। मूर्ति-पूजा का मजाक उड़ाकर, राम मंदिर के निर्माण के मुहूर्त, प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर भारतीय समुदाय को भ्रम में डालने का षड्यंत्र किया गया। फिल्मों में धर्मस्थलों का अपमान हुआ, ऐसे अनेक उदाहरण हैं।लेकिन अब तिरुपति बालाजी में लड्डू में चर्बी मिलाने को लेकर आई खबर ने यह प्रदर्शित कर दिया है कि सनातन विरोधी हमारा समूल नाश करना चाहते हैं, लेकिन दुखद यह है कि क्या अब हमारे पास मंगल पांडे, बिरसा मुंडा, लक्ष्मीबाई, भीमा नायक आदि नहीं हैं? शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने वाला कोई नहीं?

आपके आराध्यों को अपमानित करने की श्रृंखला जारी है, पर वही हमारी शांतिवादी नीति भी जारी। क्या हमारे भीतर का भारतीय मर चुका है? क्या केवल हम अपने धर्म का दिखावा करते हैं? अभी तो एक मंदिर की खबर है। शायद यही स्थिति अन्य मंदिरों की न हो। यह कैसी सोच है, जो समतावादी, सहिष्णु, वसुधैव कुटुंबकम् के सिद्धांत को समूल नष्ट करना चाहती है?

हम किस मुगालते में जी रहे हैं? धन गया,तन गया, अब धर्म भी जा रहा है। आप अपने लोगों के साथ खड़े नहीं हो पाए, चाहे वह कश्मीर हो, अफगानिस्तान एवं वर्तमान में बांग्लादेश आदि। आप तो अपने आपको धार्मिक कहते हैं। धर्म प्रहार सहन कर लेंगे? क्या आदत हो चुकी है? अरे कम से कम अब तो उठ खड़े होइए विवेकानंद के मानसपुत्रों, आने वाली पीढ़ियों को क्या जवाब देंगे? श्राद्ध भी नहीं हो सकेगा आपका, सब स्थल, दूषित हो चुके होंगे।

आप उस निकृष्ट सोच को पहचानिए, समझिए, मनन कीजिए। कहां है हमारी दिशा और दशा? चिंतन करें। अब जाग्रत, सचेत और एकजुट होकर कार्य करने की आवश्यकता है। सरकारों से प्रश्न करने की आवश्यकता है। हमारी लड़ाई खुद से, खुद को आत्मबल, ज्ञान से परिपूर्ण होकर संगठित होने की है। अपने आने वाले भविष्य को वास्तविक इतिहास का ज्ञान प्रदान करने, सांस्कृतिक जुड़ाव एवं पारिवारिक रीति-रिवाज एवं त्योहारों से जोड़ने की आवश्यकता है।

Topics: वसुधैव कुटुंबकम्सनातन विरोधीपाञ्चजन्य विशेषसमतावादीसहिष्णुवर्तमान में बांग्लादेशअफगानिस्तानधर्मसंस्कृतिसमाज
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