वर्धा में 1934 में महात्मा गांधी और डा. केशव बलिराम हेडगेवार जी की मुलाकात

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भारत ऐसा दुर्लभ कड़ाह है जिसमें विविध प्रकार के विचार पिघलते हैं और समावेशी रूप से सह-अस्तित्व में रहते हैं

जहां गांधी ने अंग्रेजों से भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के माध्यम के रूप में सत्य और अहिंसा को चुना, वहीं डॉ हेडगेवार ने जनता को हिंदू-सांस्कृतिक और भारतीय पहचान प्रदान करके सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता महसूस की।

वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अपनी मातृभूमि को उपनिवेशवाद की बेड़ियों से मुक्त करने के महान उद्देश्य हेतु भारतीय उपमहाद्वीप की विविध सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक, बौद्धिक, दार्शनिक और आर्थिक पहचानों के एकीकरण का अनन्य अवसर था। स्वतंत्रता आंदोलन निर्विवाद रूप से बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों और संगठनों के लिए भारत की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता के बाद के उपक्रमों के बारे में अपने विचारों और कल्पनाओं को साझा करने का मंच भी था। अपनी-अपनी धारणाओं के बावजूद अहिंसा, सशस्त्र संघर्ष, सांस्कृतिक जागृति, सामाजिक उत्थान आदि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कई महान व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त कुछ तरीके थे।

भारत जैसे बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र में क्षेत्रीय भाषाओं में राष्ट्रवादी भावना और जोश जगाने वाला विपुल साहित्य है जिसकी गूंज ने लाखों भारतीयों को एकजुट कर सड़क पर उतारा था। स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली महान हस्तियों के बीच ऐतिहासिक वार्ताएं हुई थीं जिनसे वे विविधता के बीच एक संयुक्त रूप से जीवित सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारत की अपनी समझ को समृद्ध कर सके थे। ऐसी ही एक वार्ता वर्ष 1934 में मोहनदास करमचंद गांधी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक तथा आद्य सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के बीच हुई थी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या आरएसएस की स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार (1889-1940) ने की थी। दुनिया भर के लाखों स्वयंसेवक उन्हें सम्मानपूर्वक ‘डॉक्टरजी’ कह कर भी संबोधित करते हैं। डॉ. हेडगेवार ने समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए हमेशा तैयार रहने वाले अनुशासित स्वयंसेवियों का समूह बनाने के लिए स्वयंसेवकों के शारीरिक और बौद्धिक प्रशिक्षण पर अधिक जोर दिया था ताकि भारत विश्वगुरु के रूप में स्थापित होने में समर्थ हो सके।

संघ की स्थापना के नौ वर्ष बाद, 25 दिसंबर 1934 को, आरएसएस के वर्धा जिला शिविर में गांधी का आगमन और वहां ‘डॉक्टरजी’ के साथ उनकी बातचीत शायद राष्ट्र के लिए विशाल सामाजिक-राजनीतिक मिशन की कल्पना करने वाले दो राष्ट्रवादी दिग्गजों के बीच हुई एक दुर्लभ, विशिष्ट और रचनात्मक बातचीत है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों से भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जहां सत्य और अहिंसा को अपने माध्यम के रूप में चुना था, वहीं डॉ. हेडगेवार सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और परिवर्तन के लिए जनता को हिंदू-सांस्कृतिक और भारतीय पहचान प्रदान करने की अत्यधिक आवश्यकता महसूस करते थे।

“स्वयंसेवक वह होता है जो राष्ट्र के सर्वांगीण उत्थान के लिए अपना जीवन प्रेमपूर्वक न्यौछावर कर दे। …”  – गांधी से डॉ. हेडगेवार का कथन

 

आरएसएस के वर्धा शिविर में गांधी का पहुंचना

वर्धा में आरएसएस शिविर की तैयारियां और उसका आरंभ देखने के बाद, पास के ही सेवाग्राम आश्रम में रुके गांधीजी उत्सुकतावश वर्धा शिविर पहुंचे। वर्धा शिविर में गांधीजी का मार्गदर्शन अप्पाजी जोशी कर रहे थे। वर्धा शिविर की शुरुआत करने में हर छोटी-छोटी बात के बारे में किए गए नियोजन और इस संबंध में आयोजकों और स्वयंसेवकों के प्रयास देखकर गांधीजी बहुत प्रसन्न हुए। स्वयंसेवकों के साथ बातचीत के बाद गांधीजी को इस बात से और भी आश्चर्य हुआ कि वर्धा शिविर में अस्पृश्यता, जातिगत उपेक्षा या अन्य भेदभावपूर्ण तौर-तरीके बिलकुल नहीं थे।

पूछने पर, एक स्वयंसेवक ने गांधी से कहा: “संघ में ब्राह्मण, मराठा, अस्पृश्य आदि जैसे कोई मतभेद नहीं हैं। वास्तव में हम यह भी नहीं जानते हैं कि हमारे कौन से स्वयंसेवक भाई किस जाति के हैं; न ही हम यह जानने में रुचि रखते हैं। हमारे लिए इतना ही काफी है कि हम सब हिंदू हैं।”

इस पर गांधी ने अप्पाजी की ओर देखते हुए पूछा: “हमारे समाज से अस्पृश्यता की बुराई को दूर करना लगभग असंभव प्रतीत होता है। संघ में यह कैसे संभव हुआ है?”

अप्पाजी जोशी ने उत्तर दिया: “सभी हिंदुओं की अंतर्निहित एकता पर जोर देकर ही ऊंच-नीच, छुआछूत और अस्पृश्यता की भावनाओं को समाप्त किया जा सकता है। ऐसा होने पर ही उनके सच्चे व्यवहार में भाईचारे की भावना झलकेगी, न कि केवल शब्दों में। इस उपलब्धि का श्रेय डॉ. केशवराव हेडगेवार को है।”

उसके बाद संघ की परंपरा के अनुसार प्रार्थना कक्ष में एकत्र हुए स्वयंसेवकों के साथ गांधीजी ने भी भगवा ध्वज को प्रणाम किया। जब अप्पाजी गांधीजी को वर्धा शिविर की अन्य व्यवस्थाएं दिखाने ले गए, तब गांधीजी को एक चित्र दिखा और उन्होंने उस चित्र के बारे में पूछा कि वह किसका चित्र है?”

अप्पाजी ने बताया कि वह डॉ. हेडगेवार का चित्र था।

गांधी ने पूछा, “क्या वही डॉ. केशवराव हेडगेवार जिनका बारे में आपने अस्पृश्यता के बारे में बातचीत करते हुए बताया था? उनका संघ से क्या जुड़ाव है?”

अप्पा जी ने उत्तर दिया कि “वह संघ के प्रमुख हैं। हम उन्हें सरसंघचालक कहते हैं। संघ की सभी गतिविधियां उनके मार्गदर्शन में चलती हैं। उन्होंने ही संघ की शुरुआत की है।”

गांधी ने उत्सुकता से अप्पाजी से पूछा: “क्या डॉ. हेडगेवार से मिलना संभव होगा? संभव हो तो मैं सीधे उन्हीं से संघ के बारे में जानना चाहता हूं।”

उस समय डॉ. हेडगेवार वर्धा शिविर में नहीं थे, इसलिए उन्होंने अगले दिन गांधी से मुलाकात की और उनकी वार्ता हुई। दो दिग्गजों के बीच की यह चर्चा विविध विचारों, दृष्टिकोणों और प्रथाओं की स्वीकृति और उनके सह-अस्तित्व की समृद्ध भारतीय संस्कृति का प्रमाण है।

 

डॉक्टर जी के साथ गांधी जी की मुलाकात

जैसे ही दोनों में चर्चा शुरू हुई, गांधीजी ने डॉ हेडगेवार से वर्धा शिविर में एक दिन पहले के अपने प्रेक्षणों के बारे में पूछने के क्रम में कहा कि “डॉक्टर जी, आपका संगठन सराहनीय है। मैं इस तथ्य से अवगत हूं कि आप कई वर्षों तक कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। ऐसा होने पर, आपने स्वयं कांग्रेस जैसे लोकप्रिय संगठन के तत्वावधान में ऐसे स्वयंसेवी संवर्ग का निर्माण क्यों नहीं किया? आपने एक अलग संगठन क्यों बनाया?”

डॉक्टरजी ने स्पष्ट रूप से उत्तर दिया: “यह सच है कि मैंने कांग्रेस में काम किया है। 1920 के कांग्रेस अधिवेशन के समय जब मेरे मित्र डॉ. परांजपे स्वयंसेवक दल के अध्यक्ष थे, तब मैं दल का सचिव भी था। इसके बाद हम दोनों ने कांग्रेस के अंदर एक ऐसा वॉलंटियर कैडर बनाने की कोशिश की, लेकिन हमारे प्रयास सफल नहीं हुए। इसलिए मैंने यह स्वतंत्र शुरुआत की”।

इस संदेह पर कि डॉक्टरजी को कांग्रेस में संभवतः किन्हीं वित्तीय बाधाओं का सामना करना पड़ा हो सकता है, गांधीजी ने पूछा: “आपका प्रयास विफल क्यों हुआ? क्या ऐसा वित्तीय सहायता के अभाव में हुआ?” इस पर डॉक्टरजी ने उत्तर दिया: नहीं, नहीं! धन की कोई कमी नहीं थी। बेशक पैसा से बड़ी मदद हो सकती है, लेकिन सिर्फ पैसा ही सब कुछ पूरा नहीं कर सकता। हमारे सामने जो समस्या थी, वह पैसे की नहीं बल्कि नजरिए की थी।

गांधी ने संदेह के साथ डॉक्टरजी से पूछा: “क्या आपकी राय है कि कांग्रेस में नेक दिल वाले लोग नहीं थे, या कि वे अब नहीं हैं?”

तब डॉक्टरजी ने उन्हें कांग्रेस के भीतर इस तरह के एक समर्पित कैडर के निर्माण में आने वाली चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा: “कांग्रेस में कई अच्छे लोग हैं। जो मुद्दा है वह कुछ बुनियादी दृष्टिकोण का है। कांग्रेस का गठन मुख्य रूप से एक राजनीतिक लक्ष्य प्राप्त करने की दृष्टि से किया गया है।

इसके कार्यक्रम भी उसी के अनुसार तैयार किए गए हैं और इन कार्यक्रमों की व्यवस्था के लिए स्वयंसेवकों की आवश्यकता होती है। इसीलिए कांग्रेस के नेता स्वयंसेवकों को बैठकों और सम्मेलनों के दौरान कुर्सियों और बेंचों की व्यवस्था देखने वाले अवैतनिक सेवकों के रूप में देखने के आदी हैं। कांग्रेस यह नहीं मानती कि राष्ट्र की समस्याओं को केवल तब प्रभावी ढंग से हल किया जा सकता है जब समर्पित स्वयंसेवकों का ऐसा बड़ा और अनुशासित निकाय हो जो स्वेच्छा से और किसी अन्य से प्रेरणा की प्रतीक्षा किए बिना ही देश की सेवा करने को उत्सुक हों।”

इस वार्ता से पहले के दिन वर्धा शिविर में कई स्वयंसेवकों के साथ बातचीत कर चुके गांधी ने डॉक्टरजी से पूछा: “स्वयंसेवकों के बारे में आपकी अवधारणा वास्तव में क्या है?”

इस पर, डॉक्टरजी ने निःस्वार्थ और समर्पित स्वयंसेवक के विचार को विस्तार से बताते हुए कहा कि “स्वयंसेवक वह होता है जो राष्ट्र के सर्वांगीण उत्थान के लिए अपना जीवन प्रेमपूर्वक न्यौछावर कर दे। ऐसे स्वयंसेवक बनाना और ढालना संघ का उद्देश्य है। संघ में ‘स्वयंसेवक’ और ‘नेता’ में कोई अंतर नहीं है। हम सभी स्वयंसेवक हैं और इसलिए समान हैं। हम सभी को समान रूप से प्रेम और सम्मान करते हैं। हमारे यहां किसी की स्थिति में अंतर के लिए कोई जगह नहीं हैं। वास्तव में, बिना किसी बाहरी मदद, धन या प्रचार के इतने कम समय में संघ के उल्लेखनीय विकास का रहस्य यही है।”

स्वयंसेवक के बारे में इन विचारों को सुनकर गांधीजी ने बातचीत जारी रखते हुए कहा, “मैं वास्तव में बहुत खुश हूं। आपके प्रयासों की सफलता से देश निश्चित रूप से लाभान्वित होगा। मैंने वर्धा जिले में बड़ी संख्या में संघ के अनुयायियों के बारे में सुना है। … आप इतने बड़े संगठन का खर्च कैसे चलाते हैं?”

इस पर, डॉक्टरजी ने संघ की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए निःस्वार्थ योगदान का सर्वश्रेष्ठ तरीका समझाया। डॉक्टरजी ने कहा कि “यह बोझ स्वयंसेवक स्वयं उठाते हैं और प्रत्येक स्वयंसेवक यथाशक्ति गुरुदक्षिणा के रूप में अपना छोटा सा योगदान करता है।”

आरएसएस की परंपरा है जिसमें स्वयंसेवक स्वेच्छा से गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर वर्ष में एक बार अपनी कमाई का एक हिस्सा गुरुदक्षिणा के रूप में देते हैं। गुरुदक्षिणा भारत की प्राचीन सनातन प्रथा है जिसके अनुसार हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख आध्यात्मिक परंपराओं में स्वेच्छा से मानदेय या दान देकर अपने गुरु या शिक्षक को स्वीकार करने की पवित्र व्यवस्था है। उल्लेखनीय है कि आरएसएस में स्वयंसेवक भगवा ध्वज को अपने गुरु का प्रतीक और स्वरूप मानते हैं तथा उसे नमस्कार और प्रार्थना करने के बाद अपनी दक्षिणा प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में खुले आसमान के नीचे सूर्य के सामने फहराते भगवा ध्वज का एक महान इतिहास है और इससे धर्म की शाश्वत वैचारिक शिक्षाएं प्राप्त की जा सकती है।

संघ के मामलों में डॉक्टरजी की गहरी भागीदारी से चकित होकर गांधीजी ने पूछा, “ऐसा लगता है कि आपका पूरा समय इस काम में लग जाता है। ऐसे में आप अपने चिकित्सा पेशे को कैसे चलाते हैं?” जिस पर डॉक्टरजी ने उत्तर दिया कि संगठनात्मक निर्माण के प्रति समर्पण के कारण वह चिकित्सा को पेशे के रूप में नहीं लेते।

हेडगेवार जी के उत्तर से चकित गांधीजी ने पूछा कि, “फिर, आप अपने परिवार की जरूरतें कैसे पूरी करते हैं”।

गांधीजी को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टरजी ने शादी नहीं की थी और इस पर उन्होंने कहा, “अच्छा तो आपने शादी नहीं की है! बहुत अच्छा। अब पता चला कि आपने इतनी कम अवधि में इतनी उल्लेखनीय सफलता कैसे हासिल की है! डॉक्टरजी, कोई संदेह नहीं कि आप जैसा चरित्रवान और निष्ठावान व्यक्ति सफलता पाएगा।”

उत्तरकथ्य

संघ के वर्धा शिविर में महात्मा गांधी की यह ऐतिहासिक यात्रा और संघ के दार्शनिक विकास, राष्ट्र की निःस्वार्थ सेवा और उसके प्रति दृष्टिकोण के बारे में डॉक्टरजी के साथ उनकी विस्तृत वार्ता को व्यापक रूप से कमजोर बना कर उसकी उपेक्षा की गई है और उसे भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श से दूर रखा गया है। विश्वगुरु बनने की यात्रा में आगे बढ़ने के इस काल में जनता को राजनीतिक और सामाजिक बाधाओं से आगे बढ़ कर निर्णय ले पाने में सक्षम बनाने के लिए समाज में रचनात्मक विमर्श और आलोचनात्मक सोच की अधिक आवश्यकता है। इसलिए ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ के माध्यम से भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने का उत्सवों को एक राष्ट्र के रूप में तेजी से आगे बढ़ने की प्रेरणा होना चाहिए ताकि भारत को गौरव के शिखर पर पहुंच सके।

स्रोत: डॉ. हेडगेवार: द इपोक मेकर –
ए बायोग्राफी, 1981; एचवी शेषाद्रि (सं),
साहित्य सिंधु प्रकाशन, बेंगलुरु।आईएसबीएन: 81-86595-34-1

डॉ. सबरीश पी.ए. ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली, से पीएच.डी. की है और ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑव साइंस इन इंडिया’ के लेखक हैं।

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