इस्राएल का फिलिस्तीन, ईरान और लेबनान से वर्तमान टकराव प्रभुसत्ताओं की रस्साकशी से कहीं अधिक जटिल मुद्दा है, क्योंकि हमास, हिजबुल्लाह जैसे आतंकी संगठन सीधे इस्राएल के अस्तित्व को ही चुनौती दे रहे हैं। लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्राएल के दायरे को लेकर बहस होती रही है। खासतौर पर, कट्टरपंथ और अल्पसंख्यक समुदायों के अस्तित्व के संदर्भ में यह विवाद अधिक प्रासंगिक हो जाता है। इस्राएल के नैतिक दावे के कई पक्ष ऐसे हैं, जिन्हें इसके आलोचक भी अस्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि इस्राएल का संघर्ष केवल भौगोलिक सीमाओं या सैन्य विवादों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक गहरे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पांथिक संदर्भ से जुड़ा हुआ है।
पहली बात, इस्राएल के अस्तित्व का एक मजबूत आधार है-यहूदियों का इस भूमि से 3000 वर्ष से अधिक समय से ऐतिहासिक और आस्थागत संबंध। यरुशलम और इस्राएल की भूमि यहूदी सभ्यता का केंद्र रही है। बाइबिल में उल्लिखित घटनाओं से लेकर आज तक यह भूमि यहूदियों की पांथिक और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा रही है। जैसा कि इतिहासकार मार्टिन गिल्बर्ट लिखते हैं, ‘‘यरुशलम यहूदियों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि वेटिकन ईसाइयों के लिए।’’ इसलिए यह संबंध आलोचकों के लिए भी अस्वीकार करना मुश्किल है।
दूसरी बात, इस्राएल और फिलिस्तीन के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 1947 में दो राज्यों की योजना का प्रस्ताव रखा था, जिसमें यहूदियों और अरबों के लिए अलग-अलग राज्य बनाने की बात कही गई थी। इस्राएल ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया, जबकि अरब देशों ने इसे अस्वीकार कर दिया और इसके जवाब में युद्ध छेड़ दिया। इस्राएल का यह कदम उसके नैतिक दावे को और मजबूत करता है, क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रक्रिया का हिस्सा था। इससे इस्राएल को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली। आर्थर गोल्डश्मिट ने अपनी पुस्तक A Concise History of the Middle East’ में इस घटना को ‘एक निर्णायक मोड़’ के रूप में प्रस्तुत किया है।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि विभाजन योजना पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के मतदान के बाद इस्राएल का गठन हुआ और इसके तुरंत बाद ही इसे अस्तित्व के लिए भारी संघर्ष का सामना करना पड़ा, क्योंकि यहूदी राज्य के खिलाफ अरबों ने युद्ध छेड़ दिया था। अरब देशों ने उस पर आक्रमण किया, जिसका उद्देश्य नवगठित यहूदी राज्य को नष्ट करना था। हालांकि इस्राएल ने न केवल अपनी रक्षा की, बल्कि अपनी स्थिति को भी मजबूत किया।
बेन-गुरियन की आत्मकथा में इस संघर्ष को अस्तित्व की लड़ाई के रूप में वर्णित किया गया है। यह युद्ध यहूदी राज्य के अस्तित्व की अनिवार्यता और उसकी आत्मरक्षा के अधिकार को रेखांकित करता है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। इस्राएल की लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों, जैसे कि अरब, ड्रूज और ईसाई सुरक्षित और स्वतंत्र रूप से रहते हैं। मध्य-पूर्व के कई देशों में मजहबी और जातीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव और हिंसा होती है, जबकि इस्राएल में इन्हें समान नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। एमोस ओज जैसे इस्राएली लेखकों ने भी अपनी पुस्तकों में इस बात पर जोर दिया है कि इस्राएल में अल्पसंख्यकों के अधिकार संरक्षित हैं। यह इस्राएल की लोकतांत्रिक और न्यायिक प्रणाली की प्रभावशीलता को दर्शाता है।
दूसरे शब्दों में, इस्राएल का संघर्ष विशेष रूप से, हमास और हिजबुल्लाह जैसे इस्लामी आतंकी संगठनों से आत्मरक्षा के अधिकार पर आधारित है। अंतरराष्ट्रीय कानूनों और संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के तहत किसी भी राज्य को अपने नागरिकों की रक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। एलन डेर्शोविट्ज ने अपनी पुस्तक The Case for Israel में इस्राएल के नैतिक अधिकार की व्याख्या की है और इस्राएल के विरुद्ध32 आलोचनाओं को गलत साबित करने के लिए तथ्य और सबूत प्रस्तुत किए हैं। वे कहते हैं कि यह अधिकार न केवल कानूनी है, बल्कि नैतिक भी है, क्योंकि इस्राएल का उद्देश्य अपने नागरिकों की रक्षा करना है। इस्राएल की स्वतंत्र न्यायपालिका, प्रेस और मानवाधिकार संगठनों की सक्रियता उसे अन्य मध्य-पूर्वी देशों से अलग करती है। इस्राएल के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आहरोन बाराक ने भी अपने फैसलों में बार-बार यह सिद्धांत स्थापित किया कि इस्राएल के सभी नागरिकों को, चाहे वे किसी भी जाति या पंथ के हों, समान अधिकार प्राप्त हैं।
हालांकि, शांति स्थापित करने के लिए भी इस्राएल ने कई गंभीर प्रयास किए हैं। 1979 में मिस्र के साथ कैम्प डेविड समझौता और 1994 में जॉर्डन के साथ शांति समझौते इसके उदाहरण हैं। इसके अलावा, इस्राएल ने कई बार फिलिस्तीन के साथ शांति वार्ता की भी पहल की है। अलग बात है कि कई कट्टरपंथी ताकतें इन प्रयासों को असफल करने में लगी रहती हैं। फिर भी, शांति के लिए इस्राएल का निरंतर प्रयास उसे नैतिकता के उच्च मानक पर स्थापित करता है। यह रेखांकित करने वाली बात है कि इस्राएल ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और कृषि के क्षेत्र में विश्वस्तरीय योगदान दिया है। यह राष्ट्र अपनी सीमाओं से परे मानवता की भलाई के लिए निरंतर प्रयासरत है।
डैन सेनोर और सॉल सिंगर की पुस्तक Start-up Nation इस्राएल की नवोन्मेष की भावना और वैश्विक योगदान का विश्लेषण करती है, जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे उसकी यह भूमिका उसके अस्तित्व की लड़ाई को न्यायसंगत बनाती है। यह नहीं भूलना चाहिए कि यहूदियों को सदियों पूर्व यूरोप और अरब देशों से निकाला गया, उनका उत्पीड़न किया गया और उनका नरसंहार हुआ। इस्राएल उनके लिए एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां वे सुरक्षित महसूस कर सकते हैं। ‘द गोल्डन बर्ग’ रिपोर्ट यह बताती है कि कैसे यहूदि यों के लिए इस्राएल एकमात्र सुरक्षित ठिकाना है। इस ऐतिहासिक संदर्भ में इस्राएल का अस्तित्व यहूदियों के लिए जीवन और मृत्यु का सवाल है।
हमास, हिजबुल्लाह और अन्य कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों का लक्ष्य इस्राएल का विनाश करना है। इस्राएल इनसे केवल अपनी-अपनी सीमाओं की सुरक्षा ही नहीं कर रहा है, बल्कि वह कट्टरपंथ और आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक संघर्ष में अग्रणी भूमिका भी निभा रहा है। बर्नार्ड लुईस जैसे विद्वानों का मानना है कि इस्राएल का अस्तित्व आतंकवाद के खिलाफ विश्व संघर्ष में एक महत्वपूर्ण मोर्चा है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। इसलिए इस्राएल-हमास विवाद को मजहबी खांचे में रखने की बजाए वैश्विक शांति के लिए और कट्टरता व आतंकवाद के विरुद्ध दृढ़ संकल्प की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। इस लड़ाई में कसौटियां निष्पक्ष होनी चाहिए, तभी यह दुनिया संघर्ष से तपकर, संघर्ष और वैमनस्य मुक्त होने की दिशा में कदम बढ़ा सकेगी।
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