पितरों के प्रति कृतज्ञता का पर्व
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पितरों के प्रति कृतज्ञता का पर्व

पितृपक्ष मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अंग है, जो हमें अपने पितरों के प्रति जिम्मेदारियों का बोध कराता है। इसके माध्यम से हम अपने पूर्वजों को विभिन्न वस्तुओं का तर्पण कर तृप्त करते हैं

by WEB DESK
Sep 25, 2024, 08:10 am IST
in भारत, संस्कृति
श्राद्ध में तर्पण का विशेष महत्व है

श्राद्ध में तर्पण का विशेष महत्व है

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हिन्दू शास्त्रों में मनुष्य के तीन ऋण बताए गए हैं- देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। श्राद्ध द्वारा पितृऋण से निवृत्ति होती है। जिन माता-पिता ने हमारे सुख-सौभाग्य की वृद्धि के लिए, अनेक प्रकार के प्रयत्न किए और कष्ट सहे, उनके ऋण से मुक्त न होने पर हमारा जन्म ग्रहण करना निरर्थक हो जाता है। अत: पितृ-पक्ष के दिनों में श्रद्धा और भक्तिपूर्वक तर्पण (पितरों को जल देना) करना चाहिए। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अपने पूर्वजों की मृत्यु तिथि को (मृत्यु किसी भी मास या पक्ष में हुई हो) जल, तिल, चावल, यव (जौ) से पिण्ड बनाकर और कुश रखकर श्राद्ध करना चाहिए।

भूषणलाल पाराशर
अध्यक्ष, श्री सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा, दिल्ली

साधन के अभाव में सांकल्पिक विधि से उनका श्राद्ध करना, गोग्रास निकालना तथा ब्राह्मणों को भोजन कराने से पितृ प्रसन्न होते हैं और उनकी प्रसन्नता ही पितृऋण से मुक्त कराती है। जिस व्यक्ति की मृत्यु की तिथि का ज्ञान न हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या को करना चाहिए। मृतक का अंतिम संस्कार करने वाले दिन श्राद्ध नहीं किया जाता, परंतु श्राद्ध की तिथि वही होगी जिस तिथि को मृत्यु हुई हो। विष, जल, अग्नि, शस्त्रादि से मरने वालों का श्राद्ध चतुर्दशी के दिन होता है चाहे उनकी मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो। चतुर्दशी वाले दिन सामान्य मृत्यु होने पर मृतक का श्राद्ध अमावस्या के श्राद्ध वाले दिन करना चाहिए।

सौभाग्यवती स्त्री (पति के जीवित रहते यदि पत्नी का देहांत हो जाए) का श्राद्ध केवल नवमी तिथि को ही होता है, मृत्यु तिथि पर नहीं। छोटे बच्चों का, जो कम आयु में मृत्यु को प्राप्त होते हैं, का श्राद्ध नहीं करना चाहिए। बोध गया में श्राद्ध करने के बाद पितृ-पक्ष में श्राद्ध करना आवश्यक नहीं है। श्राद्ध करते समय भोजन में प्याज, लहसुन और तामसी वस्तुओं का उपयोग नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध वाले दिन सुबह उठकर पूजा करें। इसके बाद तर्पण जलादि लेकर भगवान सूर्य को अर्पण करें। तत्पश्चात पितरों के लिए बनाए गए भोजन के चार ग्रास निकालें और उसमें से एक हिस्सा गाय, एक कुत्ते, एक कौए और एक अतिथि के लिए रख दें। गाय, कुत्ते और कौए को भोजन देने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराएं। भोजन कराने के बाद ब्राह्मण को वस्त्र और दक्षिणा भी दें।

तर्पण मंत्र

स्वर्गीय पिता को जल देने के लिए अपने गोत्र का नाम उच्चारें, गोत्रे अस्मतपिता (पिता का नाम) वसुरूपत् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जलं वा तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:। इसके बाद गंगा जल या अन्य जल में दूध, तिल और जौ मिलाकर 3 बार पिता को जलांजलि दें।

दादाजी-दादीजी को इस मंत्र के साथ दें जल- अपने गोत्र का नाम लेकर बोलें, गोत्रे अस्मत्पितामह (दादाजी-दादीजी का नाम) लेकर बोलें, वसुरूपत् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जलं वा तस्यै स्वधा नम:, तस्यै स्वधा नम:, तस्यै स्वधा नम:। इस मंत्र से पितामह को भी तीन बार जल दें, वहीं पितामही को तस्यै स्वधा नम: बोलें।

माता को जल देने के नियम, मंत्र दोनों अलग होते हैं, क्योंकि शास्त्रों के अनुसार मां का ऋण सबसे बड़ा माना गया है। माता को जल देने के लिए अपने (गोत्र का नाम लें) गोत्रे अस्मन्माता (माता का नाम) देवी वसुरूपास्त् तृप्यतमिदं तिलोदकम गंगा जल वा तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:, तस्मै स्वधा नम:। इस मंत्र को पढ़कर जलांजलि पूर्व दिशा में, उत्तर दिशा में और दक्षिण दिशा में दें।

पिंडदान- चावल, जौ, तिल और गाय के दूध से बने पिंड (गोल आकार के खाद्य पदार्थ) को पितरों की आत्मा के निमित्त अर्पित किया जाता है। पिंडदान की प्रक्रिया अत्यंत विधिपूर्वक की जाती है और इसे परिवार के सबसे बड़े पुत्र द्वारा संपन्न किया जाता है। अन्य परिवारीजन भी इसमें भाग ले सकते हैं, लेकिन बड़े पुत्र का विशेष महत्व है।

तर्पण- तर्पण का अर्थ होता है जल अर्पित करना। यह जल अर्पण पितरों की आत्मा की तृप्ति के लिए किया जाता है। तर्पण के दौरान, हाथ जोड़कर जल को तिल, कुशा और जौ के साथ मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा पितरों को संतोष प्राप्त होता है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद प्रदान करते हैं।

श्राद्ध भोज- श्राद्ध के दिन ब्राह्मणों और गरीबों को भोजन कराने की परंपरा है। यह भोजन पितरों के निमित्त अर्पित किया जाता है और इसका उद्देश्य पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति है। यह माना जाता है कि इस भोजन को पितर स्वयं ग्रहण करते हैं, जिससे उनकी आत्मा संतुष्ट होती है।

प्राचीन मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में यमराज हर साल सभी आत्माओं को मुक्त कर देते हैं जिससे वे अपने लोगों द्वारा किए गए तर्पण को ग्रहण कर सकें। पितृ अपने कुल की हमेशा रक्षा करते हैं। ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध को 3 पीढ़ियों तक निभाया जाना चाहिए। इस परंपरा को पंचबली भी कहा जाता है-गोबलि, श्वानबलि, काकबलि, देवादिबलि और पिपीलिकादिबलि।

गोबलि (पत्ते पर)- पश्चिम दिशा की ओर पत्ते पर गाय के लिए खाना निकालते हैं। इसमें भोजन का पहला ग्रास गाय को दिया जाता है, क्योंकि गरुड़ पुराण में गाय को वैतरणी नदी से पार लगाने वाली कहा गया है। गाय में ही सभी देवता निवास करते हैं। गाय को भोजन देने से सभी देवता तृप्त होते हैं। इसलिए श्राद्ध का भोजन गाय को भी देना चाहिए।

श्वानबलि (पत्ते पर)- पंचबली का एक भाग कुत्तों को खिलाया जाता है। कुत्ते को यमराज का पशु माना गया है। श्राद्ध का एक अंश इसको देने से यमराज प्रसन्न होते हैं।

काकबलि (पृथ्वी पर)- पंचबली के एक भाग को कौओं के लिए छत पर रखा जाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार कौआ यम का प्रतीक होता है, जो दिशाओं का फलित (शुभ-अशुभ संकेत बताने वाला) बताता है। इसलिए श्राद्ध का एक अंश इसे भी दिया जाता है। कौओं को पितरों का स्वरूप भी माना जाता है। श्राद्ध का भोजन कौओं को खिलाने से पितृ देवता प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध करने वाले को आशीर्वाद देते हैं।

देवादिबलि (पत्ते पर)- देवताओं को भोजन देने के लिए देवादिबलि की जाती है। इसमें पंचबली का एक भाग अग्नि को दिया जाता है जिससे यह देवताओं तक पहुंचता है। पूर्व दिशा की ओर मुंह रखकर गाय के गोबर से बने उपलों को जलाकर उसमें घी के साथ भोजन के 5 निवाले अग्नि में डाले जाते हैं। इस तरह देवादिबलि करते हुए देवताओं को भोजन करवाया जाता है। ऐसा करने से पितर तृप्त होते हैं।

पिपीलिकादिबलि (पत्ते पर)- इसी प्रकार पंचबली का एक हिस्सा चींटियों के लिए उनके बिल के पास रखा जाता है। इस तरह चीटियां और अन्य कीट भोजन के एक हिस्से को खाकर तृप्त होते हैं। इस तरह गाय, कुत्ते, कौअ‍े, चीटियों और देवताओं के तृप्त होने के बाद ब्राह्मण को भोजन दिया जाता है। इन सबके तृप्त होने के बाद ब्राह्मण द्वारा किए गए भोजन से पितर तृप्त होते हैं।

यदि पितरों की कामना पूर्ति होती है तो वे भी अपने आशीर्वाद से हमें सुख-शांति प्रदान करते हैं, प्रगतिशील बनाते हैं। इसके विपरीत जब पितरों की कामना पूर्ति नहीं होती तो वे क्रोध में शाप देकर अपने वंशजों की सुख-शांति को नष्ट कर देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के जीवन में अभाव ही अभाव रहता है। वे कभी सुख चैन का जीवन-व्यतीत नहीं कर सकते।

परंतु अब इस कर्म को व्यर्थ और पाखंड समझा जाने लगा है। इसी कारण हमारे जीवन में विविध समस्याएं, संकट, अभाव उत्पन्न होते हैं। इनमें कुछ समस्याएं, संकट और अभाव ऐसे होते हैं, जिनका कुछ भी कारण हमें समझ में नहीं आता। इस बात को अब आधुनिक व्यक्ति चाहे न मानें, परंतु यह एक सत्य है कि समाज में आज भी पितरों के दोष देखने को मिलते हैं। इसलिए अपने पूर्वजों का तर्पण अवश्य करें।

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