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श्राद्ध पक्ष में भी अब ढूंढे नहीं मिलते कौवे? आखिर क्यों शहरों-गांवों से गायब हो रहे हैं कौवे?

Published by
योगेश कुमार गोयल

विश्व की कई संस्कृतियों में कौओं को अपशकुन अथवा किसी आने वाली त्रासदी का संकेत माना जाता है। ऑस्ट्रेलियाई पौराणिक कथाओं में कौवे को एक चालबाज पक्षी और मृत्यु का स्रोत बताया गया है, वहीं, आयरिश पौराणिक कथाओं में कौवे को युद्ध और मृत्यु की देवी मॉरिगन के साथी माना गया है। ग्रीस में शादी के दिन कौओं को दिखना तलाक का संकेत होता है। हालांकि भारत के अलावा कई अन्य देशों की प्राचीन सभ्यताओं में कौवे को विशेष महत्व दिया गया है। मूल अमेरिकी संस्कृति में कौवे ज्ञान और कानून के प्रतीक माने जाते हैं। भारतीय समाज में कौओं को लेकर कई प्रकार के मिथ प्रचलित हैं और विभिन्न अवसरों पर कौओं के दिखने को लेकर कई तरह के शुभ-अशुभ विचार भी हैं। माना जाता है कि कौव्वा यदि किसी के कंधे पर आकर बैठ जाए तो यह बहुत बड़ा अपशकुन है क्योंकि कहा जाता है कि इससे उस व्यक्ति की जल्द ही मौत हो जाएगी। वहीं, कौआ यदि घर की छत, मुंडेर या खपरैल पर बैठकर सुबह कांव-कांव करता है तो उसे शुभ माना जाता है। मान्यता है कि कौवे का बोलना घर में मेहमान आने का संकेत होता है। यह भी कहा जाता है कि कौवा यदि किसी कुंवारी लड़की के ऊपर से उड़कर निकले तो जल्द ही उसकी शादी होने वाली है। इसी प्रकार यदि किसी विवाहित महिला के ऊपर से उड़कर निकले तो उसकी गोद भरने वाली है। कौवे की चोंच में फूल पत्ती दिखना मनोरथ की प्राप्ति का संकेत है।

हालांकि कौवे का कांव-कांव करना अच्छा नहीं माना जाता। कौओं को अन्य पक्षियों की तुलना में गंदा समझा जाता है, साथ ही कर्कश आवाज और सर्वाहारी होने के कारण भी लोगों को कौवे पसंद नहीं आते लेकिन हिंदू धर्म में कौवे को संदेशवाहक माना जाता है, जिसमें तारकीय स्मृति होती है और जो दैवज्ञ के रूप में काम करते हैं। भारत में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कौवों को ‘देवपुत्र’ भी माना गया है, जिन्हें भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है। सनातन संस्कृति में पितृ पक्ष में तो कौओं का विशेष महत्व माना गया है और इस दौरान कौओं की अहमियत बहुत बढ़ जाती है। दरअसल कौओं को पितर का रूप माना गया है और इस संबंध में मान्यता है कि हमारे पितर कौवे का रूप धारण कर नियत तिथि पर श्राद्ध ग्रहण करने के लिए दोपहर के समय हमारे घर आते हैं लेकिन यदि उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वे रूष्ट हो जाते हैं। हिंदू शास्त्रों में कौवे को यमराज का प्रतीक माना गया है। ऐसा माना गया है कि कौवे को निवाला दिए बिना पितर संतुष्ट नहीं होते, इसीलिए पितृ पक्ष में कौवे को खाना खिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। मान्यता है कि पितृपक्ष में यदि कौआ आकर घर के आंगन में बैठ जाए तो यह अत्यंत शुभ संकेत होता है और यदि कौआ दिया हुआ भोजन खा ले तो इसे अत्यंत शुभ माना जाता है क्योंकि इसका अर्थ है कि पितर आपसे बेहद प्रसन्न हैं और आपको ढ़ेर सारा आशीर्वाद देकर गए हैं।

गरुड़ पुराण में कौवे को यमराज का संदेश वाहक बताया गया है। कौवे को एकमात्र ऐसा पक्षी माना गया है, जो वायु तत्व हैं और पितृ लोक के दूत के रूप में कार्य करते हैं। मान्यता है कि पितर कौवे के माध्यम से ही पितृ पक्ष के दौरान हमारे पास आते हैं, भोजन करते हैं और आशीर्वाद देते हैं। पितृपक्ष के दौरान कौवे को भोजन खिलाना अपने पितरों को भोजन खिलाने के बराबर होता है। कौवे और पीपल के पेड़ को हिंदू धर्म में पूर्वजों का प्रतीक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि श्राद्ध के दौरान इन्हें जो कुछ भी अर्पण किया जाता है, वह पूर्वजों तक पहुंचता है और इससे पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। यही कारण है कि पितृ पक्ष के 15 दिनों के दौरान कौओं को मेहमान माना जाता है। ऐसी मान्यता भी है कि पितृ पक्ष के दौरान भोजन देते समय यदि कौआ मुंह मोड़ ले तो यह इस बात का संकेत है कि आपके पितर आपसे नाराज हैं। कौवे को ऐसा संचार वाहक और यम का प्रतीक माना जाता है. जो हमारे संदेश को पितरों तक पहुंचाते हैं। श्राद्ध पक्ष में कौवे को खाना खिलाने से पितरों को तृप्ति मिलती है। गरुड़ पुराण के अनुसार, पितृपक्ष में यदि कौआ श्राद्ध का भोजन ग्रहण कर ले तो पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और यम भी खुश होते हैं। प्राचीन शास्त्रों के अनुसार यम ने कौवे को वरदान दिया था कि तुम्हें दिया गया भोजन पूर्वजों की आत्मा को शांति देगा और माना जाता है कि पितृपक्ष के दौरान कौवे को भोजन खिलाने की प्रथा तभी से चली आ रही है। हालांकि, अब परिस्थितियां बहुत बदल चुकी हैं और श्राद्ध पक्ष के दौरान खासकर शहरों में लोग कौओं का इंतजार ही करते रह जाते हैं किन्तु उनके दर्शन ही नहीं होते। दरअसल शहरों से कौवे पूरी तरह गायब हो चुके हैं।

एक समय था, जब खासकर श्राद्ध पक्ष में भोग मिलने पर कौवे दिनभर गांव-शहर में घरों की छतों पर या मुंडेर पर आकर बैठ जाते थे और कांव-कांव करते रहते थे लेकिन अब खासकर शहरी क्षेत्रों में न तो कौवे दिखाई देते हैं और न ही उनकी आवाज सुनाई देती है। एक ओर जहां भारतीय संस्कृति में कौओं को पितृपक्ष में बहुत सम्मान दिया जाता है, उन्हें भोजन खिलाया जाता है, वहीं यह गहन चिंता का विषय है कि पिछले कुछ वर्षों से कौवे शहर और गांवों से गायब होते जा रहे हैं। कौवे ग्रामीण अंचलों में तो फिर भी कहीं-कहीं दिख जाते हैं लेकिन शहरी वातावरण में अब बड़ी मुश्किल से नजर आते हैं। इस संबंध में प्राणी विज्ञान विशेषज्ञों का मानना है कि बढ़ती मानव आबादी के साथ बढ़ते कंक्रीट के जंगल और उसी के साथ निरंतर कम होती हरियाली कौओं के प्राकृतिक आवास छिनने के लिए जिम्मेदार हैं। इसके अलावा खेतों में कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग, मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडियोधर्मी किरणें और बढ़ता प्रदूषण भी कौओं के पलायन का बड़ा कारण है। विशेषज्ञों के अनुसार, गांव हों या शहर, हरियाली तेजी से गायब होती जा रही है, पुराने और बड़े-बड़े पेड़ काटे जा रहे हैं।

कौवे मृत कीड़े-मकौड़े खाकर अपना पेट भरते हैं लेकिन शहरीकरण होने से कीड़े-मकौड़ों का भी जमीन पर रहना मुश्किल हो गया है। फसलों में कीटनाशकों का प्रयोग किए जाने के कारण मरने वाले कीड़े-मकौड़े को खाने से कौवों के अंडों पर बुरा असर पड़ता है, जिसका सीधा प्रभाव उनके चूजों पर होता है। कौवे प्रायः ऊंचे पेड़ों पर ही अपने घोंसले बनना पसंद करते हैं लेकिन उनके प्राकृतिक आवास नष्ट होते जा रहे हैं, मोबाइल टावर के रेडिएशन और प्रदूषण के कारण उनकी प्रजनन क्षमता कम हो रही है, इसलिए वे ऐसी जगहों से दूर होते जा रहे हैं। कौवों की संख्या में कमी के ये कुछ अहम कारण हैं। ऐसे में जो कौवे बचे हैं, वे भी ऐसी जगह की तलाश में रहते हैं, जहां उन्हें न केवल भोजन मिले बल्कि आवास भी सुरक्षित हो और उनके जीवन को भी कोई खतरा न हो। बहुत से लोगों का मानना है कि कौवे मक्का, बाजरा इत्यादि फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि कौवे कृषि मित्र भी हैं क्योंकि वे खेतों में पाए जाने वाले तमाम छोटे-मोटे कीड़े-मकौड़ों, मेंढ़कों इत्यादि का सफाया कर फसलों को सुरक्षित बनाते हैं और इस प्रकार फसलों की पैदावार बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कौवे और गिद्ध मरे हुए जानवरों को खाकर वातावरण को स्वच्छ रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन कौओं के गायब होने से यह भी एक संकट बन रहा है क्योंकि कौओं के नहीं रहने के कारण मरे हुए जानवरों के शव पड़े-पड़े सड़ते रहते हैं, जिससे न केवल वातावरण दूषित होता है बल्कि संक्रामक बीमारियों का खतरा भी बढ़ता है।

जीव वैज्ञानिकों के अनुसार, कौवे भारत में मनुष्यों के साथ रहने के लिए कुत्तों से भी ज्यादा अनुकूलित होने के बावजूद हाल के दशकों में उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। दरअसल भारत में पहले जहां अधिकांश बस्तियां ऊंचे-ऊंचे वृ़क्षों से घिरी होती थी और घरों के आसपास भी ऊंचे पेड़ होते थे, जहां कौवे अपना घोंसला बनाकर रहते थे, वहीं शहरीकरण के चलते ऊंचे पेड़ों का सफाया होता जा रहा है, जिससे कौवों के समक्ष प्राकृतिक आवास का गंभीर संकट खड़ा हो गया है। एक अन्य कारण यह भी है कि पहले देश में भोजन करते समय लोग प्रायः गाय और कुत्ते के अलावा कौवे के लिए भी निवाला निकाला करते थे लेकिन अब लोगों के व्यवहार में बड़ा बदलाव आया है और अधिकांश लोग कौव्वे के लिए निवाला निकालने के बजाय कबूतरों को दाना डालने में रुचि दिखाते हैं, जिसके चलते खासकर शहरों में कबूतर बढ़ते जा रहे हैं और कौव्वे खत्म हो रहे हैं। ऐसे में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि जो कौवे हमें पितृपक्ष के दौरान उन्हें ग्रास खिलाने के लिए अचानक याद आ जाते है, पूरे साल हम उनकी सुध क्यों नहीं लेते, वर्षभर हम उनके बारे में क्यों नहीं सोचते, क्यों नहीं उनकी घटती आबादी की चिंता करते?

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