ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई के लिए यह अच्छा था कि तेहरान में दी गई उनकी तकरीर ईरान की राजनीतिक सीमाओं तक रहती, किन्तु देश के अलावा समझदारी और संवेदनशीलता की सीमारेखा को लांघती उनकी बातों ने सभ्य देशों और नागरिक समाज को सोचने पर मजबूर कर दिया है।
खामेनेई ने तेहरान में मौलवियों की एक सभा को संबोधित करते हुए गाजा, म्यांमार और भारत में मुसलमानों की पीड़ा के बारे में बात की थी। खामेनेई ने कहा कि हम खुद को मुसलमान नहीं मान सकते, अगर हम म्यांमार, गाजा, भारत या किसी अन्य स्थान पर किसी मुसलमान द्वारा झेली जा रही पीड़ा से अनजान हैं।
किसी मुद्दे पर आपका कोई भी विचार हो सकता है, परंतु नेता के तौर पर ‘पद’ और ‘कद’ को देखते हुए इस प्रकार की गैर-जिम्मेदार टिप्पणी आपकी राजनीतिक समझ के खोखलेपन और मानव अधिकार के विषयों पर एकपक्षीय सोच को उजागर करती है, जो कि एकपक्षीय होने के कारण और कुछ नहीं, बल्कि भिन्न प्रकार का कट्टरवाद ही है।
म्यांमार और गाजा के मुद्दे क्या हैं? क्या इन प्रश्नों का मानवता की दृष्टि की बजाय केवल मुस्लिम चिंताओं को देखते हुए समाधान किया जा सकता है? क्या ऐसा करना उन 1200 से ज्यादा निरपराधों के प्रति क्रूरता नहीं है, जिनकी जान गत वर्ष हमास के हत्यारों के अचानक किए गए हमलों में चली गई! किसी आतंकी कृत्य को मानवाधिकार का लबादा ओढ़ाने का अपराध भला कोई नागरिक समाज कैसे कर सकता है?
…और भारत, …भारत के बारे में इस प्रकार का बयान बताता है कि खामेनेई को वास्तव में भारत, भारत में मानवाधिकारों की स्थिति और भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति के बारे में सिरे से कुछ पता ही नहीं है। वे हवा में बनाई गई राजनीतिक कपोल कल्पनाओं को तूल देने का काम कर रहे हैं। वैसे भी, खामेनेई को भारत की आलोचना करने से पहले ईरान के नरसंहार रिकॉर्ड पर विचार करना चाहिए था, जो कि पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है।
खामेनेई अक्सर खुद को परेशान, मजलूम मुसलमानों की आवाज के रूप में पेश करते हैं। परन्तु क्या वास्तव में ऐसा है! नहीं! क्योंकि परेशानी को सिर्फ एक मुसलमान के चश्मे से देखना, उसमें भी सिर्फ शिया तबके की नुमाइंदगी ऐसी संकीर्णता की भूल-भुलैया है, जिसमें फंसकर उस वर्ग का नेता चाहे जितना बड़ा दिखने का प्रयास करे, रहता उस वर्ग के घेरे और भूल-भुलैया के भीतर ही है। फिर खामेनेई इस प्रकार की उकसाऊ बातें करके किसे धोखा देना चाहते हैं? खुद को, शिया मुसलमानों को या फिर ईरान के सभी लोगों को?
यदि ईरान के रिकॉर्ड पर नजर डालें, तो आस्था और लिंग-आधारित उत्पीड़न और दमन का एक लंबा इतिहास सामने आता है, जो ईरान के सत्ता तंत्र की अपनी नैतिकता और अनाप-शनाप अधिकार पर प्रश्न उठाता है।
दूसरी ओर, भारत है जो अपनी आंतरिक बहुलता के विविध रंगों के साथ, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जो मानवीय मुद्दों पर मुखरता के साथ पंथनिरपेक्षता को बनाए रखने वाली मजबूत संस्थाओं के साथ खड़ा है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि खामेनेई के नेतृत्व में ईरान में आस्था उत्पीड़न का लंबा इतिहास रहा है, खासकर बहाई समुदाय, ईसाई और सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ। नोबेल पुरस्कार विजेता शिरीन एबादी ने अपनी पुस्तक ‘ईरान अवेकनिंग’ में लिखा है कि इस्लामिक गणराज्य के तहत बहाई लोगों का व्यवस्थित उत्पीड़न एक लगातार चलने वाला धीमा नरसंहार है, जिसका उद्देश्य देश से उनकी मौजूदगी को पूरी तरह मिटाना है। 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से, बहाई लोगों को फांसी, कारावास और शिक्षा और रोजगार जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया गया है।’’
भारत में रहकर भारत का विरोध करने वाले वामपंथी भी 1988 के जेल नरसंहार को नहीं भूल सकते। राजनीतिक असंतुष्टों को बर्बर तरीके से समाप्त करने वाला यह प्रकरण ऐसा था, जब हजारों राजनीतिक कैदियों मुख्य रूप से वामपंथी और मुजाहिदीन-ए-खल्क (टएङ) के सदस्यों को गुप्त रूप से मार दिया गया। यह ऐसा दहला देने वाला कृत्य था, जिसे विभिन्न वैश्विक नेताओं और मानवाधिकार संगठनों ने मानवता के विरुद्ध अपराध ठहराया था।
ईरान की मानवीय नरसंहार की कहानियां आस्था-उपासनाओं पर चोट और राजनीतिक विरोधियों के खात्मे तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि जातीय अल्पसंख्यकों तक फैली हुई हैं। कुर्द और अहवाजी अरब आबादी, साथ ही बलूचों को ईरान के कठोर और व्यवस्थित दमन का सामना करना पड़ा है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने ऐसे कई उदाहरणों का तथ्यात्मक दस्तावेजीकरण किया है, जहां ईरानी शासन ने इन समुदायों को दबाने के लिए मनमाने ढंग से गिरफ्तारियां की हैं, उन्हें यातनाएं देने के साथ फांसी तक दी है।
खामेनेई जिस प्रकार शियाओं की बात करते हुए सुन्नियों की बात भूल जाते हैं, मुसलमानों की बात करते हुए बाकी इनसानों की बात भूल जाते हैं और इनसानों की बात करते हुए महिलाओं को भूल जाते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि बाकी दुनिया ईरान की अदंरूनी परिस्थितियों को लेकर कतई भुलक्कड़ नहीं है। ईरान में महिलाओं के लिए भी स्थिति उतनी ही भयावह है, जहां शासन कठोर पितृसत्तात्मक कानून लागू करता है। जैसा कि अजर नफीसी ने अपने संस्मरण ‘रीडिंग लोलिता इन तेहरान’ में बताया है, ईरान में महिलाएं एक अमानवीय व्यवस्था का सामना करती हैं, जहां उनकी कीमत उनके पहनावे और व्यवहार पर कठोर कानूनों के पालन से निर्धारित होती है।
खामेनेई की भारत की आलोचना, खासकर कश्मीर मुद्दे और अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार को लेकर झूठी टिप्पणियां, एक कट्टर, एकपक्षीय और राजनीति से प्रेरित रुख को दर्शाती हैं।
अपनी विविधता को संजोने वाली संस्कृति के साथ भारत और उसका दृष्टिकोण ईरान की कट्टर फतवेशाही के बिल्कुल विपरीत है। भारत का लोकतांत्रिक ढांचा इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए तंत्र प्रदान करता है। भारत का जीवंत नागरिक समाज, स्वतंत्र प्रेस और स्वतंत्र न्यायपालिका, अधिनायकवाद के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में तत्पर और दृढ़ता से खड़े दिखते हैं।
ईरान में यह सब स्पष्ट रूप से अनुपस्थित है। ईरान में कुछ समय पहले महिलाओं के अधिकारों के लिए सजग नागरिकों के आक्रोशित समूह ने मौलानाओं की पगड़ी उछालने का एक अभियान (अम्मामे) शुरू किया था। आज विश्व के सजग नागरिकों के बीच ईरान के सर्वोच्च नेता ने भारत के मामलों पर नाहक टिप्पणी कर मानो अपनी पगड़ी खुद उछाल दी है।
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