फेड रिज़र्व ने विश्वास जताया है कि देश अब मंदी के दायरे से निकल चुका है। अब कोशिश है कि 2025 के अंत तक ब्याज दरों को सालाना दो प्रतिशत नीचे अर्थात् 2.75 से 3 प्रतिशत तक लाया जाए। अधिकांश अर्थशास्त्री उम्मीद कर रहे थे कि चौथाई अंक प्रतिशत रेपो रेट में कमी किया जाना सही रहेगा। फेड रिजर्व का तर्क था कि भले ही वित्तीय डेटा ज्यादा प्रतिकूल नहीं थे, लेकिन रोज़गार को किसी भी स्थिति में भारी गिरावट देखने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था।
ललित मोहन बंसल, लॉस एंजेल्स से
अमेरिका के सेंट्रल बैंक ‘फेड रिजर्व’ ने गत दिनों ब्याज दर में आधे प्रतिशत यानी .5 प्रतिशत की कटौती की है। इस कटौती ने जहां राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनल्ड ट्रंप की नींद उड़ा दी है, वहीं डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस ने राहत की सांस ली है। पिछले ढाई साल में इस देश में क़ीमतें लगातार आसमान छू रही थीं, अमेरिका मंदी (7%) के दौर में जा रहा था। इस से जन सामान्य के लिए दैनिक राशन आदि से लेकर मकानों के मार्टगेज़ की ऊंची दरें देना मुश्किल हो रहा था। अभी पिछले दिनों डोनल्ड ट्रंप ने टीवी पर कमला के साथ बहस में देश में मुद्रास्फीति में निरंतर आती तेज़ी पर चिंता जताई थी और दावा किया था कि उन्होंने अपने कार्यकाल में इसे बढ़ने नहीं दिया था। इसके विपरीत डेमोक्रेट कमला हैरिस ने फेड रिजर्व द्वारा इस आधा प्रतिशत की कटौती का स्वागत किया है। फेड रिज़र्व के चेयरमैन ने विश्वास जताया है कि देश अब मंदी के दायरे से निकल चुका है। अब फ़ेड रिज़र्व की कोशिश है कि 2025 के अंत तक ब्याज दरों को सालाना दो प्रतिशत नीचे अर्थात् 2.75 से 3 प्रतिशत तक लाया जाए।
अर्थ विशेषज्ञों द्वारा फेड रिज़र्व के निर्णय का भारतीय बाज़ार पर अनुकूल असर पड़ने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। इसका भारत में प्रौद्योगिकी उद्योग पर तो असर पड़ेगा ही, अमेरिका से आयातित कम्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक साजो—सामान भी सस्ता होगा। ईंधन की दरों में कमी से भारत को विदेशी मुद्रा में अथाह राहत मिलेगी। फेड रिज़र्व के इस निर्णय के बाद, संभव है, रिजर्व बैंक आफ इंडिया या आरबीआई अपने ‘रेपो रेट’ में आधा अथवा चौथाई प्रतिशत अंक की कटौती कर क़ीमतों में कमी लाने के लिए सरकार को एक मौका दे। अगर ऐसा होता है, तो चुनाव में इसका लाभ मौजूदा सरकारों को मिल सकता है। एशियाई स्तर पर चीन क्या निर्णय लेगा, यह अभी कहना कठिन है। लेकिन जापान, कोरिया और हांगकांग में इसका असर देखा जाने लगा है। प्रारंभिक स्तर पर स्टर्लिंग, यूरो और युआन की दरों में किंचित् कमी आई है, जबकि 19 सितम्बर को पेट्रोल ब्रेंट क्रूड और डब्ल्यूटीआई क्रूड आयल की क़ीमतों में कमी से बाज़ार में क़ीमतें कम होने की उम्मीदें लगाई जा सकती हैं। एशिया में हांगकांग मॉनिटरी अथारिटी ने तो रातोंरात रेपो रेट में .50 प्रतिशत अंक की कटौती कर दी है।
चुनाव सिर पर तो शुरू हुई बहस
अमेरिका में चुनाव की दृष्टि से रिपब्लिकन और डेमोक्रेट में रेपो रेट में कटौती से एक राजनीतिक बहस छिड़ गई है। फेड रिज़र्व इस बहस को निरर्थक मानता है। फेड रिज़र्व के चेयरमैन जेराम पावेल ने फेड रिज़र्व के निदेशक मंडल की बैठक में निर्णय के पश्चात्, प्रेस वार्ता में कहा, ”बोर्ड की नज़र में फेड रिज़र्व एक स्वायत्तशासी निकाय है। वह न तो राजनीति से प्रभावित होता है और न ही राजनीति को हावी ही होने देता है। पिछले ढाई वर्ष से क़ीमते बढ़ रही थीं। मंदी की आशंकाएं बढ़ती जा रही थीं। इस पर अंकुश लगाने के लिए लगातार प्रयास किए जा रहे थे। अधिकांश अर्थशास्त्री उम्मीद कर ही रहे थे कि चौथाई अंक प्रतिशत रेपो रेट में कमी किया जाना सही रहेगा। लेकिन क़ीमतों में कमी नहीं आने से कारपोरेट स्तर पर रोज़गार क्षेत्र प्रभावित हो रहा था। फेड रिजर्व का तर्क था कि भले ही वित्तीय डेटा ज्यादा प्रतिकूल नहीं थे, लेकिन रोज़गार को किसी भी स्थिति में भारी गिरावट देखने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता था।”
उन्होंने आगे कहा, ”हम अपनी अर्थव्यवस्था की सेहत और मजबूती बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हैं। इसके लिए प्रशासनिक स्तर आगे आने वाले समय में क्या किया जा सकता है, इसके लिए फेड रिज़र्व ने राजनीतिक स्तर पर भी एक रूपरेखा बना कर प्रेषित की थी। इसके लिए वित्तीय और रोज़गार के डेटा पर विचार किया गया था। कारपोरेट क्षेत्र से रोज़गार सिमट रहा था, जो किसी भी क़ीमत पर सहनीय नहीं था। रोज़गार बाजार की ताक़त बनाए रखने के लिए आधा अंक प्रतिशत की कटौती ज़रूरी समझी गई।” एक सवाल के जवाब में पावेल ने कहा कि उनके फेड रिज़र्व के कार्यकाल में यह चौथा चुनाव है, और वह दावे के साथ कह सकते हैं कि इस बीच फेड रिज़र्व कभी राजनीति अथवा राजनीतिकों से प्रभावित नहीं हुआ। फेड रिज़र्व चुनाव से पहले अथवा बीच में जब कोई निर्णय लेता है, तो वह मौजूदा डेटा के आधार पर ही लेता है। हालांकि इस निर्णय के विरुद्ध फेड गवर्नर मिशेल बोमन ने असहमती व्यक्त की। वह चौथाई प्रतिशत अंक की कटौती की पक्षधर थीं। मिशेल की नियुक्ति डोनल्ड ट्रंप ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में 2018 में की थी।
उल्लेखनीय है कि अमेरिका में चुनाव से पूर्व पिछले पांच दशक में ऐसा शायद ही कोई मौक़ा आया होगा, जब रेपो रेट में कमी नहीं की गई होगी। 1976 और 1984 में चुनाव से मात्र दस सप्ताह से भी कम समय पहले ब्याज दरों में कटौती की गई थी। इस बार बैंक की ब्याज दरें अपनी सभी हदें पार कर चुकी थीं। लोगों को घरों के मॉर्टगेज और कॉलेज छात्रों को बैंक ऋण की बढ़ी हुई दरों के कारण शिक्षण शुल्क चुकाना मुश्किल हो रहा था, कारपोरेट जगत ने छंटनी शुरू कर दी थी। इन दिनों अमेरिका में प्राय: सभी बैंकों में जमा राशि पर ब्याज दर 4.75 से 5% है, जबकी ऋण पर इससे एक—डेढ़ प्रतिशत ज्यादा 6.2 % है। यह बैंक ब्याज दर पिछले दो दशक में उच्चतम स्तर पर थी। इससे रोज़गार क्षेत्र भी प्रभावित हो रहा था।
ट्रंप और कमला के दावे
ट्रंप दावा कर रहे हैं कि उनके कार्यकाल में मुद्रास्फीति पर अंकुश था, बाज़ार में वस्तुओं और सेवाओं के दाम कम और स्थिर रहने से सामान्य वर्ग सुखी था। इस संदर्भ में ट्रंप ने फेड रिज़र्व के ताजा निर्णय को अनुचित बताया है। इसके विपरीत कमला हैरिस ने फेड रिज़र्व के निर्णय को स्वागत योग्य बताया है। उन्होंने कहा है कि इससे आमजन को बढ़ी हुई क़ीमतों से राहत मिलेगी। ट्रंप ने कहा है कि राष्ट्रपति का फेड रिज़र्व पर अंकुश होना चाहिए, जबकि कमला हैरिस ने कहा है कि फेड रिज़र्व की स्वायत्तता क़ायम रखी जानी चाहिए। कांग्रेस में निचले सदन में संसदीय वित्तीय समिति के अध्यक्ष रिपब्लिकन पैट्रिक मेकेनरी ने कहा है कि फेड रिज़र्व को राजनीतिक बयानबाजी की चिंता नहीं करनी चाहिए। उसे वित्तीय डेटा के आधार पर निर्णय लेना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि उसे निर्भीक और स्वतंत्र होकर फ़ैसला करना चाहिए। पैट्रिक मानते हैं कि फेड रिज़र्व के इस निर्णय से जनसाधारण को लगेगा कि आर्थिक हालत वास्तव में ख़राब है।
क्या कहते हैं डेटा
पिछले पांच चुनावों से पूर्व रेपो रेट में बढ़ोतरी हुई है और छह में कटौती। इसी प्रकार पांच राष्ट्रपति फेड रिज़र्व की नीतियों के बल पर दोबारा चुनाव जीते हैं। हां, 2000 में जरूर डेमोक्रेट उपराष्ट्रपति अल गोर और रिपब्लिकन जार्ज बुश चुनाव जीते थे। तब फेड रिज़र्व ने चुनाव से ठीक पहले एक प्रतिशत अंक में बढ़ोतरी की थी। बता दें, कोविड महामारी की चोट झेलते हुए फेड रिज़र्व ने 2020 में ब्याज दर क़रीब शून्य कर दी थी। इसके बाद 2021 में ब्याज दरें बढ़ाईं, पर थोड़े ऐसा समय रहा। इसके बाद ऐसा दौर आया कि ज़्यादातर वैश्विक बैंकों ने मुद्रास्फीति को देखते हुए उसका अनुसरण किया। फिर रूस के यूक्रेन पर हमले से ऊर्जा के दाम बढ़ने लगे और ज़रूरी ‘जिंसों’ के दाम बढ़ गए। यह स्थिति 1970 में भी आई थी, जब फेड रिज़र्व ने धीरे धीरे अपर्याप्त कदम उठाए थे, ताकि मांग पर अंकुश लगे और क़ीमतें स्वत: नियंत्रण में आ जाएं।
और अंत में ऐसा क्या हुआ कि जेराम पावेल को लगा कि रोज़गार बाजार की जैसी स्थिति थी, वह वित्तीय डेटा से भी ज्यादा विचलित करने वाली हो गई थी? जून—जुलाई 2024 में रोजगार बाजार 3.7 प्रतिशत से 4.2 प्रतिशत पर आ गया था। इस पर फेड रिज़र्व की जुलाई में हुई बैठक में साफ़तौर पर एक बड़ी कटौती पर असहमति व्यक्त की गई थी। लेकिन अर्थशास्त्रियों के एक दूसरे समूह का कहना है कि बाजार में रोज़गार की स्थिति ऐसी भी नहीं थी, कि जिसे ख़तरे की घंटी कहा जा सकता था। आर्थिक डेटा पर नज़र दौड़ाएं तो वित्तीय बाजार की स्थिति देखते हुए इतनी बड़ी कटौती की ज़रूरत नहीं थी। ऐसे में चौथाई अंक रेपो रेट में कमी काफ़ी थी।
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