पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के आर.जी. कर अस्पताल में 9 अगस्त की देर रात यौन पाशवकिता के बाद प्रशिक्षु महिला चिकित्सक की हत्या हुई थी। एक गरीब पिता की उस मेहनती बेटी की क्षत-विक्षत पार्थिव देह अस्पताल के सेमीनार हॉल में मिली थी। उस दिन के बाद से कोलकाता ही नहीं, देश के लगभग सभी भागों से एक ही स्वर गूंज रहा है-न्याय! उस चिकित्सक बेटी और उसके आहत माता-पिता को न्याय मिले! आज एक महीने बाद भी, न्याय का प्रश्न जस का तस खड़ा है! निर्ममता ओढ़े राज्य की ‘ममता’ सरकार रोज नए शब्दजाल बुनकर न सिर्फ पीड़ित परिवार के जख्मों पर नमक छिड़क रही है बल्कि देश के आमजन को यह संदेश दे रही है कि उसके लिए ऐसे ‘कांड’ आएदिन की बात हैं, जिस प्रकार पहले के गंभीर अपराधों को अंजाम देने वाले अपराधी उस राज्य में बेखौफ घूम रहे हैं, वैसे ही इस ‘कांड’ के अपराधी भी निर्भय रह सकते हैं।
आंख मूंदे बैठीं ममता
क्या इस मामले में भी न्याय की मांग कहीं दबा दी जाएगी? इसे लेकर कई प्रश्न हैं। आखिर एक महिला मुख्यमंत्री के रहते महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों को अनदेखा करने की प्रवृत्ति क्यों? भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य डॉ. कायनात काजी हैरानी व्यक्त करते हुए कहती हैं कि जो राज्य कभी संस्कृति का केन्द्र था, आज उस राज्य में महिलाएं रोज हिंसा की शिकार हो रही हैं! आएदिन बलात्कार हो रहे हैं, महिलाएं स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रही हैं। इस दृष्टि से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नितांत असफल साबित हुई हैं।
पश्चिम बंगाल में पार्क स्ट्रीट प्रकरण से लेकर संदेशखाली तक ऐसी घटनाओं की अंतहीन सूची है। संदेशखाली में भी पहले महिलाओं की आर्त नाद को नकारा जाता रहा था, बाद में शोर मचने और न्यायालय की दखल से आरोपी को हिरासत में लिया गया। पत्रकार कात्यायनी 2013 और 2019 की दो घटनाओं का उल्लेख करती हैं।
वे कहती हैं, ‘2013 में कोलकाता में एक महिला पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। 2019 में बंगाल के एक गांव में एक महिला के साथ बलात्कार करके उसे जला दिया गया था। प. बंगाल सरकार का रवैया, दोनों घटनाओं पर निंदनीय रहा है। ममता सरकार का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों की सुरक्षा और अधिकारों की रक्षा करे, लेकिन इसमें वह विफल रही है।’
सोशल मीडिया पर सक्रिय रिया ने कहा कि एक बार लोग तब ऐसी हैवानियत के विरुद्ध सड़कों पर उतरे थे जब दिल्ली में एक महिला मुख्यमंत्री थीं और इस बार प. बंगाल के चिकित्सक सड़क पर हैं, वहां भी मुख्यमंत्री एक महिला हैं। मानसिक विकृति पर प्रश्न उठाते हुए वह पूछती हैं कि आखिर भारतीय समाज में पनप चुकी इस विकृति के कारक क्या हैं? क्या अभिभावक, जिन्होंने बाल्यकाल से किशोरवय तक अपने बच्चों के गलत कामों को ढकते रहने का प्रयास किया?
रचनाकार कंचन पंकज सक्सेना बेटियों के माता—पिता के दर्द के संदर्भ में कहती हैं कि माता-पिता अपनी बेटियों को भी बेटों के समकक्ष ही पढ़ा-लिखा कर आर्थिक रूप से सबल बनाना चाहते हैं। इसके लिए बेटियों को जिम्मेदारियां संभालने के लिए घर से बाहर निकलना ही पड़ता है। ऐसे में बेटियों को सुरक्षा प्रदान करना राज्य सरकार, प्रशासन और कार्यस्थल के पदाधिकारियों का कर्तव्य बनता है। ममता स्वयं एक महिला होकर भी दूसरी महिला और उसके माता-पिता का दर्द नहीं समझ सकीं, इसे क्या ही कहा जाये?
घोर असंवेदनशीलता
सवाल महिला मुख्यमंत्री की उस असंवेदनशीलता पर भी है, जो पीड़िता के अभिभावकों को संवेदना और न्याय के स्थान पर धन स्वीकारने कोे कह रही हैं। इस विषय में डॉ. कायनात कहती हैं कि सरकार पैसे से मोल-तोल कर रही है। क्या कोई भी राशि बेटी के साथ हुए उस अन्याय की क्षतिपूर्ति कर सकती है?
उपन्यासकार अर्चना चतुर्वेदी लिखती हैं कि सारे सेकुलर बुद्धिजीवी, या कहें वे वामी जो हर छोटी-मोटी बात पर विरोध करते हुए सोशल मीडिया पर खूब लिखते हैं, वे इस मामले पर पहले चुप्पी साधे रहे, लेकिन अब मामले के विरोध में उठने वाली आवाजों को मुद्दे से भटकाने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं। ‘फेमिनिज्म’ का झण्डा उठाने वाली ‘दीदियां’ भी शायद कोमा में हैं, यही घटना किसी भाजपा शासित राज्य में होती तो वे सब रुदाली बनीं आसमान सिर पर उठाए होतीं।
रचनाकार सुप्रिया पुरोहित मुख्यमंत्री की ‘विरोध-प्रदर्शन छोड़कर उत्सवों की ओर लौटने’ की अपील के संदर्भ में कहती हैं, ‘हैरानी है कि यह बात उस महिला ने कही है जो ऐसे प्रदेश की मुख्यमंत्री है, जो मां दुर्गा के शक्ति रूप को पूजता है। उस प्रदेश में एक बेटी के साथ अन्याय होता है। हैरानी की बात यह भी है कि सत्ताधारी दल स्वयं के विरोध में रैली निकालता है।’
आज एक बार फिर रीढ़विहीन कम्युनिस्ट ‘बौद्धिक’ वर्ग अपने लिजलिजेपन का परिचय दे रहा है। कम्युनिस्ट रचनाकारों का गुट बंगाल में हो रही हर घटना को लेकर सरकार पर नहीं बल्कि समाज पर प्रश्न उठाता है। पुणे की व्यंग्यकार समीक्षा तैलंग लिखती हैं कि लेखक वर्ग भी इस विषय पर भी विचारधाराओं में बंटा हुआ दिखा। बंगाल में महिला मुख्यमंत्री के राज के महिला के साथ ऐसा अन्याय होता है, लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखिकाएं ऐसी सत्ता के विरोध में कुछ भी लिख नहीं पाईं! अजमेर कांड के ‘तेरा रेप-मेरा रेप’ जैसी बातें इस घटना में भी दिखाई दे रही हैं, जहां एक वर्ग चुप्पी ही नहीं साधे है बल्कि आजादी के नारे लगाकर इस पूरे आंदोलन को पथ से भटकाने के लिए आगे आया है।
आजादी गैंग की शरारत
यह ‘आजादी गैंग’ क्या है, क्या करता है? दरअसल यह आजादी गैंग ढपली बजाकर हर चीज से ‘आजादी’ चाहता है। इसे कम्युनिस्ट विचारों का ऐसा गिरोह कहा जा सकता है जिसे हर चीज, हर व्यवस्था को तोड़कर अराजकता चाहिए। यही ‘आजादी’ मांगने वाले लोग कोलकाता भी आ गए। अचानक से 5-6 सितंबर 2024 को आंदोलनस्थल पर कुछ लोग आए और नारे लगाने लगे–‘मनुवाद से आजादी, इस कमलवाद (स्पष्ट नहीं था) से आजादी, इस पुरुषतंत्र से आजादी’, आदि आदि! इसी के एक वीडियो में एक महिला नारा लगा रही है-‘गे होने की आजादी, लेस्बियन होने की आजादी’। यह कैसी आजादी है? वह नारे लगा रही है-‘बच्चा मांगे आजादी, हर लड़का मांगे आजादी, हर लड़की मांगे आजादी, शादी करने की आजादी, शादी न करने की आजादी, बच्चे पैदा करने की आजादी, न पैदा करने की आजादी!’ बलात्कार और हत्या की शिकार महिला डॉक्टर के लिए न्याय के आंदोलन में यह कैसी आजादी की मांग?
क्या यह मामले को हल्का करने का षड्यंत्र नहीं या ममता सरकार को उसी तरह बचाने का खेल, जैसा 2021 में बंगाल के विधानसभा चुनावों के समय खेला गया था? तब ‘नो वोट फॉर बीजेपी’ के नाम से एक बेहद सुनियोजित अभियान चलाया गया था। ऐसे समय में जब बंगाल में ममता बनर्जी के शासन से जनता त्रस्त थी और तृणमूल कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों के कार्यकर्ताओं की आएदिन हत्याएं हो रही थीं। उस समय लगा था कि भाजपा तृणमूल कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे सकती है। लेकिन उस अभियान के माध्यम से ममता बनर्जी के खिलाफ बढ़ रहे जन-असंतोष को भटकाने का कार्य हुआ था। क्या यही खेल वह ब्रिगेड इस आंदोलन में भी तो नहीं खेल रही? आक्रोश को दूसरी दिशा तो नहीं दे रही?
कहां हैं शोषितों के ‘हमदर्द’ लेखक?
डॉ. कायनात आगे कहती हैं, ‘आज जब चिकित्साकर्मी और आमजन इस जघन्य हत्या के संदर्भ में ममता सरकार के विरुद्ध खड़े हैं, तब ‘आजादी ब्रिगेड’ इसे दूसरा रंग देने की कोशिश में है। इस ब्रिगेड को राजनीतिक लाभ लेना आता है!’ समीक्षा तैलंग कहती हैं, ‘जब लेखक नेताओं और पार्टियों के लिए लिखने लगें, उनके हिसाब से किसी आंदोलन से जुड़ते हों, तो वह विरोध शोषित के खिलाफ ही होता है।’
कात्यायनी ने कहा कि इस घटना ने उन्हें और उनके जैसी तमाम महिलाओं को झकझोर कर रख दिया है। बेटियों को बचाना है तो हमें एकजुट होकर समाज की सोच में बदलाव लाना होगा। वे दिनकर के शब्द दोहराती हैं-‘याचना नहीं अब रण होगा, संघर्ष बड़ा भीषण होगा।’
रावण से युद्ध के दौरान प्रभु श्रीराम के भक्त होने का स्वांग रचकर संग्राम को भटकाने के लिए आए कालनेमि हैं आज के ‘आजादी गैंग’। आज आवश्यक है कि कोलकाता के इस आंदोलन में न्याय की मांग कर रहे चिकित्सकों व आमजन अपने मध्य घुस आए ऐसे कालनेमियों को पहचान कर उन्ह जल्दी से जल्दी हो दूर हटा दें, उन्हें समाज को भटकाने में सफल न होने दें।
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