ईरान के सबसे बड़े मजहबी नेता अयातुल्ला अली ख़ामेनी ने भारत को लेकर हमला बोला और कहा कि भारत में मुस्लिमों पर अत्याचार हो रहे हैं। सोमवार को पैगंबर की सालगिरह पर उन्होनें भारत में रहने वाले मुस्लिमों की तुलना गाजा में रहने वाले मुस्लिमों से की और कहा कि हम तभी मुस्लिम हो सकते हैं, जब भारत, गाजा और म्यांमार में मुस्लिमों की दुर्दशा पर बात कर सकें। खामेनी ने कितनी सरलता से भारत के मुस्लिमों को गाजा के मुस्लिमों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। मगर यह नहीं बताया कि गाजा के मुस्लिमों और भारत के मुस्लिमों में कहीं से कोई भी समानता नहीं है।
खामेनी को यदि मुस्लिमों की चिंता होती तो वह यमन या सीरिया आदि में भी मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों पर बोलते। ऐसा नहीं है। जिन तीन देशों के मुस्लिमों के बारे में खामेनी ने लिखा है, उनमें एक विशेष बात है। भारत और म्यांमार दो ऐसे देश हैं, जो खामेनी या कट्टरपंथियों की दृष्टि में दारुल-हरब हैं। अर्थात ऐसी जगहें जहां पर शरीयत लागू नहीं है और जहां पर अधिकतर लोग इस्लाम को नहीं मानते हैं। जहां पर बहुसंख्यक इस्लाम के इतर किसी और धर्म को मानते हैं। अर्थात गैर-इस्लामी देश! गाजा हालांकि इस्लामी मुल्क है और हमास के आतंकी इजरायल पर हमला करते रहते हैं और जिसके कारण यहूदी इजरायल हमास के आतंकियों से बदला लेता है।
भारत, म्यांमार और इजरायल तीनों ही ऐसे देश हैं, जो दारुल हरब हैं और तीनों ही स्थानों के गैर-मुस्लिम नागरिक कट्टरपंथी इस्लामिस्ट ताकतों के आतंक का शिकार होते रहे हैं। भारत में कश्मीरी पंडितों का पलायन अभी तक ताजा है और कश्मीरी पंडितों का सिस्टमेटिक जीनोसाइड अभी तक जारी है। भारत में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से हिन्दू अपनी न ही शोभायात्रा निकाल सकते हैं और न ही अपना कोई धार्मिक समारोह मना सकते हैं। भारत में हिंदुओं की शोभायात्रा, बारातों आदि पर मुस्लिम बहुल इलाकों में पत्थरबाजी बहुत आम बात है और यहाँ तक कि हिंदुओं के सरेआम गले काटना भी आम बात है।
कौन भूल सकता है उदयपुर के कन्हैया को या फिर कश्मीर के पंडित टपलू से लेकर गिरिजा टिक्कू को जिंदा ही आरे से काटा जाने को? भारत के सीने पर मजहबी आतंकवादियों के इतने घाव हैं, कि उन्हें यदि उधेड़ा जाएगा तो लगभग हर मस्जिद के नीचे से उन घावों के निशान मिलेंगे।
मगर ईरान के खामेनी इसलिए नहीं समझेंगे क्योंकि पर्शिया अर्थात फारस की पहचान छीनने वाले ईरान के नेता खुद ही लोगों की हत्याओं पर खड़े हैं। 1934 में फारस का नाम ईरान किया गया था। और वर्ष 1979 में ईरान के शाह के खिलाफ हुई क्रांति को इस्लामी ताकतों ने हाई जैक कर लिया था और इसके साथ ही इस्लाम मानने वाली महिलाओं एवं कुर्द जैसे अल्पसंख्यकों के साथ जो अत्याचार हुए, उनकी कोई तुलना ही नहीं है।
ईरान के खामेनी भारत में मुस्लिमों पर बात करने से पहले अपने ही मुल्क में उन हत्याओं पर बात करें, जो केवल राजनीतिक मतभिन्नता के कारण करा दी गई थीं। ईरान ने जब 1979 में ईरान के शाह को गद्दी से उतारा था, तो उसमें केवल इस्लामी ताकतों का हीं नहीं बल्कि कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट आदि ताकतों का भी हाथ था। मगर इसे इस्लामिक क्रांति के नाम से प्रसिद्ध किया गया। जबकि ऐसा नहीं था।
वर्ष 1979 में गद्दी पाने के बाद जब ईरान के इस्लामिक नेता को यह लगने लगा कि उसकी राजनीतिक सत्ता के लिए कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट नेता खतरा बन जाएंगे। तो 1981 में ईरान के इतिहास में एक और सबसे काला दौर आरंभ हुआ और वह था क्रांति के बाद ईरान में पूर्ववर्ती सरकारी अधिकारियों और सेना के अधिकारियों की हत्या एवं साथ ही अपने राजनीतिक विरोधियों की हाथा। जैसा कि हाल ही में जब ईरान के राष्ट्रपति इब्राहीम रईसी की मौत हुई थी तो एक बहुत बड़े वर्ग ने जश्न मनाया था और इब्राहीम रईसी को “तेहरान का कसाई” भी कहा जाता था।
ईरान के सबसे बड़े मजहबी नेता खुमैनी ने एक फतवा जारी किया था और उसके बाद राजनीतिक विरोधियों की हत्याएं शुरू हुईं। सबसे मजे की बात यही है कि जो ईरान भारत से कह रहा है कि मुस्लिमों के साथ अन्याय हो रहा है, उसने अपने ही मुल्क में इस्लामिक क्रांति होने के बाद ऐसे कानून बनाए, जिनका शिकार और कोई नहीं बल्कि मुस्लिम ही हुए।
मुस्लिम महिलाओं पर जो अत्याचार आरंभ हुए, उनकी कोई भी तुलना कहीं नहीं मिलती है। दारुल इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार किए जाएं, तो उनकी सुनवाई कहीं नहीं है। और इसके साथ ही शिया ईरान में सुन्नी कुर्द समुदाय के साथ क्या होता है या क्या किया जाता है, वह भी आँकड़े बताते हैं, मगर चूंकि सुन्नी कुर्द समुदाय के साथ शिया ईरान में भेदभाव से लेकर राजनीतिक कैद, हत्याएं और न जाने क्या क्या होता है, वह सब चूंकि दारुल इस्लाम में होता है, तो ईरान के मजहबी नेता इस पर बात नहीं करेंगे।
कुर्दिश डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ ईरान के अनुसार ईरान और कुर्दिश फ्री लाइफ पार्टी (Kurdistan Free Life Party (PJAK)) संघर्ष में 30,000 से अधिक कुर्दिश नागरिक मारे गए हैं। एमनेस्टी की एक रिपोर्ट के अनुसार सुन्नी कुर्दिश समुदाय के साथ ईरान में नौकरियों में भेदभाव होता है और साथ ही बहुत ही रणनीतिक रूप से निजी क्षेत्रों में gozinesh कानून का पालन किया जाता है। यह कानून वर्ष 1985 में पारित हुआ था जो कई धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों को नागरिक जीवन में पूरी तरह से भाग लेने से प्रतिबंधित करता है।
यहाँ तक कि ईरान मे बहाई समुदाय के साथ भी भेदभाव होता है। ईरान प्राइमर की वर्ष 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार संयुक्त राष्ट्र ने कहा था कि ईरान और मध्य पूर्व के अन्य देशों में बहाई समुदाय के लोग बढ़ती असुरक्षा का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 300,000 बहाई लोग इस्लामिक गणराज्य में रहते हैं। वे सबसे बड़े गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, लेकिन उन्हें लंबे समय से अपने धर्म के आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। उनके साथ नौकरियों में और शिक्षा आदि मे सभी में भेदभाव होता है।
ईरान के नेता खामेनी को पहले फारस से ईरान में परिवर्तन और उसके बाद 1979 के बाद हुई कथित क्रांति के बाद अपने लोगों पर किए गए अत्याचारों पर एक नजर डालनी चाहिए और फिर भारत पर बात करने का साहस करना चाहिए।
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