आज के संदर्भों को ध्यान में रखते हुए यह देखना महत्वपूर्ण है कि शासन समाज के प्रति अच्छा कार्य कर रहा है या खराब? इसे कैसे मापा जाए? इसके लिए कुछ सभ्यतागत दृष्टिकोण ध्यान में आते हैं। हम इन्हें मार्गदर्शक सिद्धांत भी कह सकते हैं। जैसे—
1. केंद्रीय सिद्धांत के रूप में धर्म
हमारे यहां कहते हैं—
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षित:।
अर्थात् जब कर्तव्य/मूल्य नष्ट हो जाते हैं, तो धर्म भी नष्ट हो जाता है; धर्म उन लोगों की रक्षा करता है जो इसकी रक्षा करते हैं। (महाभारत, ककक.313.128)
धर्म की अवधारणा भारतीय सभ्यतागत विचार में महत्वपूर्ण स्थान रखती है जिसमें नैतिकता और दायित्व जैसे विभिन्न आयाम शामिल हैं। शासन का पैमाना अक्सर इस बात पर केंद्र्रित होता है कि शासक किस हद तक धर्म का पालन करते हैं और अपनी नैतिक प्रतिबद्धताओं को पूरा करते हैं।
इसकी एक झलक को गांधी जी की रामराज्य की अवधारणा में देखा जा सकता है, जो सत्य, अहिंसा, निष्पक्षता (धर्म) और समानता (समता) जैसे बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित है।
यह शासन का एक ऐसा रूप प्रस्तावित करता है जो समाज के सबसे वंचित और अतिसंवेदनशील वर्ग के कल्याण पर बल देता है, जिससे एक ऐसा माहौल बनता है जिसमें समाज उन्नति की ओर अग्रसर होता है।
विकेंद्रीयकृत शासन: यह पद्धति गारंटी देती है कि शासन का मूल्यांकन उन व्यक्तियों की राय और दृष्टिकोण को ध्यान में रखता है जो नीतियों से सीधे प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिए, तीसरी शती ईसा पूर्व के दौरान, भारत में मौर्य साम्राज्य के शासक अशोक ने ‘धम्म’ नामक एक शासन संरचना की शुरुआत की थी, जो विकेंद्रीकरण पर जोर देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। उनके द्वारा तैयार किए गए शिलालेखों को पूरे साम्राज्य में व्यापक रूप में वितरित किया गया, जो विभिन्न संस्कृतियों के साथ जुड़ने के प्रति उनके समर्पण को दर्शाता है।
2. सामूहिक कल्याण और जीविका की सुनिश्चितता
समं सवेर्षु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति।।
अर्थात्, सच्चा ज्ञानी वही है जो सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है, और सभी नश्वर शरीरों में अमर आत्मा को देखता है। (भगवद्गीता, 13.28)
अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
अर्थात्, यह मेरा है, यह तुम्हारा है, ऐसा तोल—मोल क्षुद्र्र लोग ही करते हैं। उदार चित्त वाले के लिए तो पूरी पृथ्वी ही एक परिवार है। (महोपनिषद, 6.71)
भारतीय दृष्टिकोण से शासन के आकलन में राजनीतिक और प्रशासनिक चिंताओं के साथ ही, सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक कारकों सहित अनेक विशेषताएं शामिल हैं। यहां मुख्य ध्यान जीव मात्र की भलाई पर है, यानी जिसे आमतौर पर ‘सर्व भूत हितम्’ कहा जाता है। शासन का मूल्यांकन समाज के सामूहिक कल्याण पर इसके प्रभावों के आधार पर किया जाता है। ऐसा ही एक उदाहरण है परमार वंश के राजा भोज की ‘युक्ति-कल्पतरु’ नामक एक विधि संहिता का संकलन। इस संहिता ने शासन और न्याय से संबंधित मौलिक अवधारणाओं को स्थापित किया, जिसमें निष्पक्षता और समानता के आदर्शों पर विशेष जोर दिया गया था। उन्होंने संघर्ष को दूर करने और जन कल्याण के उद्देश्य से नियमों का एक संच तैयार किया था।
3. समग्र और सतत विकास
अक्सर शासन के संबंध में भारतीय दृष्टिकोण में सतत विकास के विचार सम्मिलित रहते हैं, जो सनातन धर्म की अवधारणा में गहरे समाए हैं। विचाराधीन व्यापक दृष्टिकोण शासन के स्थायी पारिस्थितिक और सामाजिक परिणामों को ध्यान में रखता है।
शासन का मूल्यांकन करते समय यह देखा जाता है कि वह वर्तमान और भावी, दोनों पीढ़ियों के दीर्घकालिक कल्याण की रक्षा करने में कहां तक सक्षम है। पूर्ण मूल्यांकन में पारिस्थितिक स्थिरता, संसाधन प्रबंधन और प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण का मूल्यांकन भी शामिल होता है।
14वीं से 17वीं शताब्दी तक भारत के दक्षिणी भाग में महत्वपूर्ण विकास और समृद्धि का अनुभव करने वाला विजयनगर साम्राज्य अपनी सराहनीय प्रशासनिक रणनीतियों, कला, संस्कृति और वाणिज्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए जाना जाता है। इन सबसे सतत विकास के सिद्धांतों को बढ़ावा मिला था। राज्य की शहरी नियोजन पहल ने आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और निवासियों के लिए जीवन की समग्र गुणवत्ता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
इस साम्राज्य ने जलाशयों और जलमार्गों का व्यापक बुनियादी ढांचा खड़ा कर जल प्रबंधन में असाधारण दक्षता का परिचय दिया था। हम जानते हैं कि जल संसाधनों का टिकाऊ तरीके से प्रबंधन आधुनिक टिकाऊ विकास का एक अनिवार्य तत्व है। इससे भारत के गांवों में आज जारी स्वदेशी अभियानों को भी प्रेरणा मिल सकती है।
4. नैतिक नेतृत्व: धर्म और ज्ञान
न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।।
अर्थात्, बुद्धिमान लोग अपने कदमों को सत्य और धर्म के मार्ग से भटकने नहीं देते। (भर्तृहरि, नीतिशतकम्, 84)
भारत में परंपरागत तौर पर रहीं सरकारों में नैतिक नेतृत्व के मूल्यांकन में नेताओं और शासकों द्वारा सार्वजनकि तौर पर दिखाया जाने वाला नैतिक व्यवहार महत्वपूर्ण होता है। यह मूल्यांकन न केवल उनकी प्रबंधकीय कुशलता के आधार पर किया जाता है, बल्कि धर्म के सिद्धांतों को बनाए रखने के प्रति उनकी नैतिक ईमानदारी और समर्पण के आधार पर भी किया जाता है। हम जानते हैं कि ‘अर्थशास्त्र’ नैतिक शासन के महत्व पर बल देता है। विषयवस्तु में न केवल शासन के प्रक्रियात्मक पहलू शामिल होते हैं, बल्कि इसमें अधिकार के पदों पर बैठे लोगों के नैतिक दायित्व भी शामिल हैं। नैतिक गुण, जिसे आमतौर पर धर्म का रूप बताया जाता है, तथा व्यावहारिक ज्ञान का मेल अक्सर प्रभावी शासन के प्रयास में एक महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है।
5. इन्द्रियजय: आत्म-नियमन एवं शासन में निपुणता
आध्यात्मिकता और आंतरिक शासन की अवधारणा को समझना भी महत्वपूर्ण होता है। इन्हें भारतीय चिंतन में आत्म-नियमन के अभ्यास के जरिए बाह्य शासन के मूल्यांकन का साधन माना जाता है। नेता और नागरिक, दोनों को शामिल करते हुए जन कल्याण तथा नैतिक बोध को जोड़ते हुए सुशासन की राह में एक मौलिक पहलू है। समकालीन शोध इन आयामों पर भरपूर प्रकाश डालते हैं। विद्वानों का सुझाव है कि मूल्य, जागरूकता और उद्देश्य की भावना जैसे आंतरिक लक्षण निर्णय लेने की क्षमता तथा नेतृत्व शैली पर असर डालते हैं।
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