राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल लिखित दलीलों में मदरसों में मिलने वाली इस्लामी शिक्षा का विरोध किया है। इसका कहना है कि मदरसों में बच्चों को औपचारिक, क्वालिटी एजुकेशन नहीं दी जा रही। शिक्षा के लिए ज़रूरी माहौल और सुविधाएं देने में असमर्थ मदरसे, बच्चों को उनकी अच्छी शिक्षा के अधिकार से वंचित रख रहे हैं। इन बच्चों को मिड डे मील, यूनिफॉर्म और स्कूल में पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों जैसी सुविधाएं नहीं मिल पाती। यहां जोर मजहबी शिक्षा पर ही होता है, मुख्य धारा की शिक्षा में उनकी भागीदारी काफी कम ही है।
आयोग ने कोर्ट को लिखित में बताया है कि मदरसों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की नियुक्ति मदरसों के अपने मैनेजमेंट द्वारा की जाती है। ऐसे में कुछ मामलों में तो उनके पास शिक्षक बनने के लिए ज़रूरी योग्यता भी नहीं होती, पर उन्हें नियुक्ति मिल जाती है। वहीं, नियुक्ति के वक़्त शिक्षकों की योग्यता कुरान और धार्मिक ग्रंथों की समझ से परखी जाती है। शिक्षा के अधिकार क़ानून में शिक्षकों की योग्यता, उनकी ड्यूटी, छात्रों-शिक्षकों के अनुपात का भी जिक्र है, लेकिन इस क़ानून का मदरसे में अमल न होने के चलते बच्चे नाकाबिल शिक्षकों के जरिए पढ़ने को मजबूर हैं।
मदरसों में दी जा रही शिक्षा कर रही संविधान के आर्टिकल 28(3) का उल्लंघन
इन मदरसों में इस्लाम के अलावा बाकी धर्मों के बच्चे भी पढ़ रहे हैं। ऐसे में गैर-मुस्लिम बच्चों को भी इस्लाम की परम्पराओं की शिक्षा दी जा रही है, जो कि आर्टिकल 28(3) का उल्लंघन है। बाल संरक्षण आयोग ने मदरसा बोर्ड के सिलेबस को देखा है, उसमें कई आपत्तिजनक बातें भी शामिल हैं। मदरसा बोर्ड उन किताबों को पढ़ा रहे हैं जो सिर्फ इस्लाम के श्रेष्ठ होने की बात करते हैं। दूसरी ओर दारुल उलूम देवबंद की तरफ से जारी बयान न केवल गैर-मुसलमानों पर आत्मघाती हमले को सही ठहरा रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं। इसी तरह दारुल उलूम का फतवा गजवा ए हिंद की बात करता है। दारुल उलूम इस्लामी शिक्षा का केंद्र होने के कारण इस तरह के फतवे जारी कर रहा है जिससे बच्चों में अपने ही देश के खिलाफ नफरत की भावना से भर रहा है।
दरअसल, एनसीपीसीआर की यह दलीलें यूपी के मदरसा एक्ट को असंवैधानिक घोषित करने के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिका को लेकर दी गई हैं। एक मदरसे के मैनेजर अंजुम कादरी और बाकी लोगों की ओर से दायर इस याचिका में हाईकोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए इसे मनमाना बताया गया है। मार्च में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले पर अंतरिम रोक लगा दी थी जिसके चलते मदरसा एक्ट के तहत मदरसों में पढ़ाई अभी हो रही है। अब आगे सुप्रीम कोर्ट को मदरसा एक्ट की संवैधानिकता पर सुनवाई करनी है।
नहीं हो सकती गुरुकुल शिक्षा से मदरसा की तुलना
अब बात यह है कि क्या सिर्फ मदरसों में दी जा रही मजहबी शिक्षा से जुड़ा मसला है? उदाहरण के तौर पर किसी आश्रम या गुरुकुल में दी जा रही वैदिक शिक्षा के समान ही मदरसों में उनके मजहब की शिक्षा हिन्दू बच्चों की तरह मुस्लिम बच्चों को दी जा रही है ? तब कहना होगा कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। क्योंकि भारत के किसी भी आश्रम या गुरुकुल में किसी अन्य पंथ, रिलीजन के विरोध में कोई बात बच्चों को नहीं सिखाई जाती है। जो सिखाया भी जाता है तो वह है सर्वे भवन्तु सुखिन: का भाव । इसके उलट मदरसे की शिक्षा पर प्रश्न क्यों खड़े हुए हैं? तो एनसीपीसीआर की चिंता यह है कि जब बच्चों के मन में बचपन में ही मजहबी आधार पर विभेद का भाव भर दिया जाएगा तो वे बड़े होकर गैर मुसलमानों को किस नजरिए से देखेंगे और उनके साथ कैसा व्यवहार करेंगे! स्वभाविक है अच्छा व्यवहार तो नहीं करेंगे।
उदारहण के तौर पर देश भर में गैर मुसलमानों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता जिसमें कि हिन्दू धार्मिक यात्राओं को निशाना बनाकर उन पर पत्थर फेंकना, जुम्मे की नमाज के बाद एकत्र हुए मुसलमानों द्वारा देश में कई बार दूसरे पंथ के लोगों पर पत्थर बरसाना, पुलिस थाने को निशाना बनाए जाने की घटनाएं देखी जा सकती हैं। कुछ समय पूर्व एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने बिहार के मदरसों में चल रही एक पुस्तक ‘तालीमुल इस्लाम’ एवं इसी प्रकार की अन्य मजहबी पुस्तकों का जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि ये सभी पुस्तकें बच्चों के मन में गैर मुसलमानों के प्रति नफरती भाव भरती हैं, इसलिए इन्हें तत्काल प्रभाव से पढ़ाया जाना बंद होना चाहिए । बिहार ही नहीं, देश के प्रत्येक मदरसे में फिर वह मान्यता प्राप्त हो, सरकार से अनुदान लेनेवाला या गैर मान्यता प्राप्त हो, इन तीनों ही प्रकार के मदरसों में आज ये नफरती पुस्तकें पढ़ाई जा रही हैं।
यहां बात अकेले ‘तालीमुल इस्लाम’ की ही करें तो तालीमुल-इस्लाम हिस्सा (भाग) 1 के पृष्ठ 3 पर लिखा है “खुदा एक है” इबादत के लायक वही है… “गवाही देता हूं मैं कि अल्लाह तआला के सिवा कोई इबादत के लायक नहीं ” विचार करें, क्या छोटे और अबोध बच्चों को ये सिखाया जाना चाहिए कि ईश्वर की प्रार्थना के लायक सिर्फ खुदा या अल्लाह है? यहां यह स्पष्टीकरण नहीं है कि अल्लाह या खुदा का अर्थ यह माना जाए कि कोई अदृश्य शक्ति, जिसे अलग-अलग मत, पंथ, रिलीजन, धर्म में अलग नामों से पुकारा जाता है, यहां बिल्कुल स्पष्ट और साफ तौर पर लिखा गया है कि ‘‘इबादत के लायक वही है’’ सोचिए; भारत के मदरसों में विद्यार्थियों को दी जा रही ये दृष्टि क्या सामाजिक नफरत और विभेद पैदा नहीं करती है? जबकि भारत में ईश्वर भक्ति की अनेक भाव धाराएं हैं, जो ईश्वर को या अदृश्य पराशक्ति को अनेक रूपों में स्वीकार करती हैं। जबकि यहां बच्चों को सिखाया जा रहा है कि अन्य कोई प्रार्थना करने के लायक ही नहीं है। जब आप बालकों को सिर्फ एक तक सीमित कर दोगे, तब वह अन्य के प्रति कैसे अच्छा भाव या श्रद्धाभाव रखेगा?
पुस्तक के पृष्ठ पांच-छह पर प्रश्न पूछे जा रहे हैं;
सवाल : जो लोग अल्लाह को नहीं मानते उन्हें क्या कहते हैं?
जवाब : उन्हें काफिर कहते हैं!
सवाल : जो लोग खुदा तआला के सिवा और चीज़ों की पूजा करते हैं या दो-तीन खुदा मानते हैं उन्हें क्या कहते हैं?
जवाब: ऐसे लोगों को काफिर और मुश्रिक कहते हैं।
सवाल : मुश्शिक बखशे जाएंगे या नहीं?
जवाब : मुश्रिकों को बख्शा नहीं जायेगा।
वह हमेशा तक्लीफ और अज़ाब (दुख) में रहेंगे।
गैर मुसलमानों के प्रति इस तरह बढ़ाई जा रही नफरती सोच
फिर इस इस्लाम की इस प्रैक्टिस पुस्तक में इस बात पर जोर दिया जाता दिखता है कि जो ‘अल्लाह’ को नहीं मानते, उन्हें काफिर कहते हैं। हालांकि ‘काफिर’ शब्द को लेकर एक बड़ा विवाद है । कुछ इस्लामवादी इसके कई अर्थ बताते हैं, किंतु एक अर्थ जिसे यह पुस्तक आगे बहुत ही स्पष्ट कर देती है। वह यही है कि जो मुसलमान नहीं, जो कुरान नहीं पढ़ता, जो कुरान और हदीस में लिखे हुए पर भरोसा नहीं करता, वह कोई भी हो, इस्लाम की नजरों में ऐसा व्यक्ति ‘काफिर’ है और ये काफिर जो इस पुस्तक के अनुसार (मुश्रिक) मूर्तिपूजक है, वह बख्शा नहीं जाएगा। उसे हमेशा दुख और तक्लीफ रहेगी। क्या बच्चे इसे बार-बार पढ़ने के बाद समझदार होने के बाद अपने अन्कॉन्सिस मॉइंड से इस बात को नकार पाएंगे? विचार करें, हम अपने आस-पास भविष्य का कौन सा समाज गढ़ रहे हैं!
वे सभी काफिर हैं जो पैगंबर मुहम्मद को नहीं मानते
इसके पृष्ठ सात पर कहा गया; जो आदमी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को खुदा का रसूल न माने वह भी काफिर है। वस्तुत: यहां स्थिति साफ है कि सिर्फ अल्लाह को मानने से काम नहीं चलेगा, आपको हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी मानना अनिवार्य है। यदि आपका विश्वास प्रोफिट मोहम्मद पर नहीं, तो भी आप काफिर हैं। यानी कि दुनिया में जितने भी मत, पंथ, रिलीजन, धर्म को माननेवाले हैं, जिनका विश्वास अपने-अपने संत समाज और श्रेष्ठ आचरण करनेवाले महान लोगों में हैं, उन सभी के प्रति यह पुस्तक स्पष्ट घोषणा कर रही है कि वे सभी इस्लाम की नजर में ‘काफिर’ हैं।
बच्चे पढ़ रहे, ईश्वर की सच्ची किताब सिर्फ कुरान अन्य कोई नहीं
आगे तालीमुल-इस्लाम के तीसरे भाग ‘तौहीद’ (एकेश्वरवाद) है जो यह ईमान अल्लाह को छोड़ कर किसी अन्य की पूजा करने से रोकता है के पृष्ठ क्रमांक 76 में पूछा जाता है – क्या कुरआन मजीद में तौहीद की तालीम दी गयी है? जवाब : हां ! कुरआन मजीद में तौहीद की तालीम पूरी और आला दर्जे पर दी गयी है। बल्कि आज दुनिया में सिर्फ कुरआन मजीद ही ऐसी किताब है जो ख़ालिस तौहीद की तालीम देती है। अगर्चे पहली आसमानी किताबों में भी तौहीद की तालीम थी, लेकिन इन तमाम किताबों में लोगों ने अदल-बदल कर डाली और तौहीद के खिलाफ बातें दाखिल कर दीं और खुदा की भेजी हुई आसमानी तालीम को बदल दिया। इसकी इस्लाह के लिए और सच्ची तौहीद दुनिया में फैलाने के लिए अल्लाह तआला ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा और अपनी ख़ास किताब कुरआन मजीद नाज़िल फरमाई और उसमें साफ़-साफ़ सच्ची और ख़ालिस तौहीद की तालीम दी।
इस दिए गए उत्तर से यह समझाया जा रहा है कि सिर्फ कुरान ही सच्ची किताब है। उसी में सही ‘तौहीद की तालीम’ यानी एकेश्वरवाद की सच्ची शिक्षा व ज्ञान दिया गया है इसके अलावा अन्य जो भी किताबें हैं वे सभी असत्य, भ्रामक एवं झूठी हैं। यह लिखकर दुनिया की जितनी भी मत, पंथ, रिलीजन, धर्म को माननेवालों की पुस्तकें हैं, उन सभी को एक सिरे से खारिज कर दिया गया है। बच्चों के मन में यह लिखकर और इसके आधार पर उन्हें समझाकर यही बताया जा रहा है कि सिर्फ कुरान सही पुस्तक है, अन्य दुनिया के सभी ग्रंथ बेकार हैं ।
तालीमुल-इस्लाम हिस्सा के इस तीसरे हिस्से में एक अध्याय ‘ख़ुदा तआला की किताबें’ के नाम से है। इसमें पूछा जा रहा है कि तौरेत, ज़बूर और इंजील का आस्मानी किताबें होना कैसे मालूम हुआ? जवाब : इन तीनों किताबों का आस्मानी किताबें होना कुरआन मजीद से साबित होता है। फिर बड़ी ही होशियारी से यहां इस पुस्तक में यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि आज इस्लाम के अलावा अन्य जो इन दो पंथों को माननेवाले और उनकी पवित्र कताबें हैं, वह इसलिए पवित्र हैं, क्योंकि इसे कुरआन मजीद के ज़रिये से इन तीनों किताबों का आस्मानी किताबें होना मालूम हुआ।
किताब में सवाल किया जा रहा है – अगर कोई आदमी तौरेत, ज़बूर, इन्जील को ख़ुदा तआला की किताबें न माने तो वह कैसा है ? उत्तर आया, ऐसा आदमी काफिर है। क्योंकि इन किताबों का ख़ुदा की किताबें होना कुरआन मजीद से साबित हुआ है तो जो आदमी इनको ख़ुदा की किताबें नहीं मानता वह कुरआन मजीद की बताई हुई बात को नहीं मानता है। और जो कुरआन मजीद की बताई हुई बात को न माने वह काफिर है। फिर इसी में आगे लिखा गया है कि इन तीनों पुस्तकों में बहुत कुछ अपने मूल से बदल दिया गया है, इसलिए इन्हें माननेवाले सही नहीं, सिर्फ जो कुरआन पर मानते हैं, वही सच्चे हैं।
मदरसों में इस तरह से हिन्दुओं के प्रति भरी जा रही है नफरत
पुस्तक के हिस्सा चार में एक प्रश्न हिन्दुओं से जुड़ा है। यहां सवाल आया- ‘‘क्या यह कह सकते हैं कि हिन्दुओं के पेशवा जैसे कृष्णजी और रामचन्द्रजी वगैरा खुदा के पैगम्बर थे ?’’ फिर जवाब दिया गया- ‘‘नहीं कह सकते, क्योंकि पैगम्बरी एक खास उहदा था जो खुदा की तरफ से उसके बरगुज़ीदा और ख़ास बन्दों को अता फरमाया जाता था। तो जब तक शरीअत से यह बात मालूम न हो कि यह ख़ास उहदा खुदा तआला ने फलाँ शख्स को अता फरमाया था उस वक्त तक हम भी नहीं कह सकते कि वह खुदा का नबी था। अगर हमने बिना शरीअत की दलील के सिर्फ अपनी राय से किसी शख्स को पैग़म्बर समझ लिया और फिल-वाका यह पैग़म्बर नहीं था तो ख़ुदा तआला के हुजूर में हम रो इस गलत अकीदे का मवाखिज़ा होगा। यूं समझो कि अगर तुम सिर्फ अपने ख़्याल से किसी शख्स को समझ लो कि वह बादशाह का नाइब यानी गवर्नर जनरल है और वह अस्ल में गवर्नर जनरल न हो तो तुम हकूमत के नज़दीक मुजरिम होंगे कि एक ऐसे शख्स को जिसे बादशाह ने गवर्नर जनरल नहीं बनाया है, तुमने गवर्नर जनरल मानकर बादशाह की तरफ एक गलत बात की निस्बत की। बस गुज़िशता लोगों में से हम ख़ास तौर पर उन्हीं बुजुर्गों को पैग़म्बर कह सकते हैं जिनका पैगम्बर होना शरीअत से साबित हो, और कुरआन मजीद या हदीस शरीफ़ में उनको पैग़म्बर बताया’’
यहां इस लिखे से साफ हो जाता है कि यह पुस्तक हिन्दुओं की आस्था के आधार भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के अस्तित्व को पूरी तरह से नकारती है। प्रश्न यह है कि यहां इस्लामिक प्रैक्टिस की इस पुस्तक में हिन्दू देवताओं और उनके आराध्य का जिक्र करने की जरूरत क्यों पड़ी और फिर यह क्यों कहा जा रहा है कि जो जो कुरान या हदीस में लिखा है वही सही है अन्य कुछ और नहीं ! पुस्तक में जब ईमान लाने का जिक्र किया जाता है तो उसमें भी साफ कहा गया है कि ख़ुदा ताअला और उसकी सारी सिफ्तों, फरिश्तों, आस्मानी किताबों, पैग़म्बरों पर ईमान लाया जाए शेष पर नहीं। यानी कि यहां भी हिन्दू धर्म को माननेवालों को नकारा जा रहा है, उनके विश्वास के प्रति अविश्वास पैदा करने के लिए बच्चों से कहा जा रहा है।
अन्य तरीके से बहुत स्पष्ट किया गया ये हैं काफिर
पुस्तक में कुफ्र और शिर्क का बयान अध्याय में समझाया गया है कि जिन चीज़ों पर ईमान लाना ज़रूरी है उनमें से किसी एक बात को भी न मानना कुफ्र है। जैसे कोई आदमी खुदा तआला को न माने या खुदा तआला की सिफ़तों का इन्कार करे, या दो-तीन खुदा माने या फरिश्तों का इन्कार करे या खुदा तआला की किताबों में से किसी किताब का इनकार करे, या किसी पैग़म्बर को न माने या तकदीर से इनकार करे या कयामत के दिन को न माने या खुदा तआला के बुनियादी हुक्मों में से किसी हुक्म का इनकार करे या रसूलुल्लाह सल्ल० की दी हुई किसी खबर को झूठा समझे तो इन सब सूरतों में काफिर हो जायेगा। और शिर्क उसे कहते हैं कि खुदा तआला की जात या सिफात में किसी दूसरे को शरीक करे।
आगे इस पुस्तक में सवाल है कि खुदा तआला की जात में शिर्क करने के क्या माने हैं? जवाब आया- जात में शिर्क करने के माने ये हैं कि दो-तीन खुदा मानने लगे जैसे ईसाई, कि तीन खुदा मानने की वजह से मुशरिक हैं, और आग को पूजने वाले कि दो खुदा मानने की वजह से मुशरिक हुए, और जैसे बुत परस्त (हिन्दू, बौद्ध, जैन एवं अन्य) भी कि बहुत से खुदा मानकर मुशरिक होते हैं। वहीं, शिर्क फिल इबादत यानी ख़ुदा तआला की तरह किसी दूसरे को इबादत का मुस्तहक समझना, जैसे किसी कब्र या पीर को सज्दा करना या किसी के लिए रूकू करना (यानी जिस तरह नमाज़ में रूकू करते हैं) या किसी पीर, पैग़म्बर, वली या इमाम के नाम का रोज़ा रखना या किसी की नज़र और मन्नत माननी या किसी कब्र या मुर्शिक के घर का ख़ाना काबा की तरह तवाफ करना, ये सब शिर्क फिल इबादत है।
पुस्तक में पंडित और सिर पर चोरी रखने का किया गया है जिक्र
‘तालीमुल इस्लाम’ में आगे कहा गया कि इन बातों के अलावा और भी काम शिर्क के हैं या नहीं? जवाब आया- हां ! बहुत से काम ऐसे हैं कि उनमें शिर्क की मिलावट है। उन तमाम कामों से परहेज़ करना ज़रूरी है। वे काम ये हैं- नजूमियों से गैब की खबरें पूछना, पंडित को हाथ दिखाना, किसी से फाल खुलवाना, चेचक या किसी और बीमारी की छूत-छात करना और यह समझना कि एक की बीमारी दूसरे को लग जाती है, ताजिया बनाना, अलम उठाना, कब्र पर चढ़ावा चढ़ाना, नज़र-नियाज़ गुज़ारना, खुदा तआला के सिवा किसी के नाम की कसम खाना, तस्वीरें बनाना या तस्वीरों की ताज़ीम करना, किसी पीर या वली को ज़रूरत पूरी करने वाला, मुश्किल आसान करने वाला कह कर पुकारना, किसी पीर के नाम की सर पर चोटी रखना, या मुहर्रम में इमामों के नाम का फकीर बनना, कब्रों पर मेला लगाना, वगैरह।
इस पूरे वाक्य को जब आप गौर से पढ़ते हैं तो इससे जो सार निकलता है वह यह है कि गैर मुसलमान सभी जो हैं उनके काम शिर्क के हैं। अर्थात् खुदा या अल्लाह के गुनहगार हैं। इसमें भी एक बार पंडित शब्द जो सिर्फ हिन्दुओं से जुड़ा है, उसका जिक्र हैं तो एक जगह सिर पर चोटी रखने का जिक्र हैं, जोकि सिर्फ हिन्दुओं में ही रखी जाती है। यानी कि यहां भी सीधे तौर पर हिन्दुओं के प्रति ये पुस्तक बच्चों के मन में नफरत भरने का काम कर रही है। वहीं, नाच देखना, दाढ़ी मुंडाना, टखनों से नीचा पाजामा, पत्लून या लुंगी पहनना, खेल तमाशों, नाटकों, थियेटरों में जाने को गुनाह करार देती है। पुस्तक अपने तर्कों से यह भी स्थापित करती है कि सिवाय काफिर और मुशरिक के बाकी सारे गुनहगार अपने गुनाहों की सज़ा पाकर जन्नत में जायेंगे। यानी जो इस्लाम को नहीं मानते, उन्हें कभी भी जन्नत नसीब नहीं होगी । वहीं, खुदा तआला के सिवा किसी और की मन्नत माननी हराम है क्योंकि मन्नत भी एक तरह की इबादत है और इबादत का ख़ुदा तआला के सिवा और कोई मुस्तहिक नहीं। अर्थात् आप यदि अल्लाह या खुदा को नहीं मानते तो आपकी प्रार्थना कभी स्वीकार नहीं होगी। इसका अर्थ हुआ कि जो भी गैर मुसलमान हैं, उनकी कभी प्रार्थना ईश्वर नहीं सुनेगा।
दान (जकात) सिर्फ मुसलमानों को ही दिया जा सकता है
पुस्तक यह भी साफ कहती है कि काफिर को ज़कात देना नाजाइज़ है। यानी जो दान इस्लाम में बताया गया है, वह सिर्फ मुसलमान को ही दिया जा सकता है, किसी अन्य जरूरत मंद को नहीं । वस्तुत: इसके अलावा भी बहुत कुछ इस पुस्तक में लिखा हुआ है जोकि बच्चों के मन में अन्य मत, पंथ, रिलीजन, धर्म को माननेवालों के प्रति नफरती सोच एवं भावनाएं भर देता है। यहां कहना होगा कि अकेली ये ही पुस्तक भारत के सभी मदरसों में नहीं पढ़ाई जा रही है, इसके अलावा इस तरह की अनेक पुस्तकों के माध्यम से मदरसों में गैर मुस्लिमों के प्रति नफरत भरने का काम हो रहा है। अब ऐसे में आप यानी कि देश का कोई भी देश भक्त नागरिक स्वत: विचार कर सकता है कि जब बच्चे इस तरह की अशिक्षा (अज्ञान) लेकर मदरसों से बाहर आएंगे तो फिर उनसे कैसे प्रेम, शांति और अपनत्व की उम्मीद की जा सकती है? इस प्रकार के प्रश्न अनेक हैं, अब उत्तर सरकारों, न्यायपालिका और इस्लाम के जानकारों को देना है!
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