भारत उत्सव-प्रधान देश है। यहां साल में 365 दिन कोई-न-कोई उत्सव या त्योहार होता है। इस उत्सवधर्मिता के मूल में वह भारतीय-दर्शन है, जो जीवन की हर परिस्थिति में आपको सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण एवं प्रसन्न रहने की सतत् प्रेरणा देता है। कुछ उत्सव सामाजिक-स्तर पर मनाए जाते हैं, वहीं कुछ त्योहार परिवारजन तक ही होते हैं, परंतु वे त्योहार भी समाज के प्रत्येक स्तर पर मनाए जाते हैं। उन्हीं में से एक प्रमुख सामाजिक उत्सव है – गणेशोत्सव। यूं तो गणेशोत्सव भारत भर में मनाया जाता है, मगर देश के पश्चिमी भागों में इसे अधिक उत्साह मनाया जाता है, इनमें भी महाराष्ट्र एवं गोवा में यह अत्यधिक बड़े पैमाने पर मनाया जाता है।
गणेशोत्सव मनाने का शास्त्रीय कारण
गणेशोत्सव भादो मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी से प्रारंभ होता है। इसी दिन भगवान श्रीगणेश का जन्म हुआ था, इसलिए इसे ‘गणेश चतुर्थी’ भी कहा जाता है। यह दस दिनों का उत्सव होता है, जिसका समापन चतुर्दशी को होता है, जिसे ‘अनंत चतुर्दशी’ कहा जाता है। मान्यतानुसार इन 10 दिन तक भगवान श्रीगणेश पृथ्वी पर विचरण करते हैं और भक्तों के विघ्नों को हरते हैं इसलिए उनका एक नाम ‘विघ्नहर्ता’ भी है।
प्रथम पूज्य हैं श्रीगणेश
गणेश का अर्थ होता है – गण+ईश अर्थात् गणों (जन) के देवता। इन्हें गणपति भी कहा जाता है यानी गणों के स्वामी। महर्षि पाणिनि के अनुसार सभी दिशाओं के स्वामी यानी अष्टवसुओं को ‘गण’ कहा जाता है एवं इनके स्वामी श्रीगणेश हैं। सनातन धर्म के अनुयायियों के किसी भी शुभ एवं मांगलिक कार्य जैसे – पूजा, गृह-प्रवेश, विवाह, संस्कार इत्यादि को प्रारंभ करने से पूर्व श्रीगणेश का पूजन एवं आह्वान किया जाता है। कोई भी कार्य श्रीगणेश की पूजा के बिना प्रारंभ नहीं हो सकता।
श्रीगणेश की अद्वितीय शारीरिक रचना
शिव पुराण के अनुसार श्रीगणेश का सिर हाथी का होने के पीछे की कहानी कुछ यूं है कि एक बार माता पार्वती ने अपने शरीर पर हल्दी का उबटन लगाया था और जब उसे उतारा तो उसी से उन्होंने एक मूर्ति बनाकर उसमें प्राण डाल दिए और उसे आदेश दिया कि वे द्वार की रक्षा करें और किसी को भी अंदर आने की अनुमति न दें। द्वार पर जब महादेव का आगमन होता है, तो प्रहरी बाल गणेश माता की आज्ञा के अनुरूप उन्हें अंदर नहीं जाने देते। फलस्वरूप बात युद्ध तक आ जाती है और महादेव क्रुद्ध होकर श्रीगणेश का सिर काट देते हैं। जब यह बात माता पार्वती को पता चलती है, तो वे अत्यंत क्रंदन करती हैं और महादेव को श्रीगणेश की उत्पत्ति की पूरी कहानी सुना कर उन्हें पुनर्जीवित करने की प्रार्थना करती हैं। तब महादेव माता पार्वती को श्रीगणेश में पुन: प्राण फूंकने का आश्वासन देते हैं। मगर सिर तो महादेव द्वारा काट दिया गया था, अत: एक सिर की आवश्यकता होती है। महादेव, गरुड़ को आदेश देते हैं कि जो माता अपने पुत्र की ओर पीठ करके सोई हुई हो, वे उसका धड़ लेकर आएं, मगर बहुत देर भटकने के बाद भी गरुड़ को कोई भी ऐसी मां दिखाई नहीं देती, सिवाय एक हथिनी के, जो कि अपनी प्राकृतिक बनावट के कारण अपने बच्चों की ओर मुख करके सो ही नहीं सकती। अत: इस प्रकार हाथी का धड़ श्रीगणेश को जोड़ दिया जाता है और उनका नामकरण कर दिया जाता है।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने की थी शुरुआत
ऐसा माना जाता है कि मुगल शासनकाल में हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए हिंदू पदपदशाही के अनन्य नायक छत्रपति शिवाजी महाराज ने माता जीजाबाई की आज्ञा से पुणे से गणेशोत्सव का प्रारंभ किया था। धीरे-धीरे गणेशोत्सव को सभी पेशवाओं द्वारा अपना लिया गया और इसने एक महोत्सव का रूप धारण कर लिया।
ब्रिटिश काल में तिलक ने की अगुआई
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अधिकांश हिंदू उत्सवों पर सीमित प्रतिबंध लगा दिए गए थे। ब्रिटिश सरकार जहां 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संघर्ष को महज ‘गदर’ (सैनिक विद्रोह) कहकर प्रचारित कर रही थी, वहीं अंदर ही अंदर उसे यह भय भी था कि कहीं सम्पूर्ण हिंदू समाज 1857 की तरह जाग्रत होकर ब्रिटिशों के विरुद्ध पुन: खड़ा न हो जाए। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक इस चीज को अच्छी तरह जानते थे कि उत्सवों के माध्यम से समाज को संगठित किया जा सकता है और वे उत्सवों के द्वारा धार्मिक लाभ मिलने के अतिरिक्त इसके द्वारा लोगों में राष्ट्रीयता के भाव प्रकट होने की शुभेच्छा के अवसर के रूप में भी देखते थे। ब्रिटिशों द्वारा हिंदू समाज के राजनैतिक एवं सामुदायिक एकत्रीकरण पर अधिक कड़े प्रतिबंध थे, मगर वैसी कड़ाई धार्मिक उत्सवों में प्राय: नहीं थी, अत: तिलक ने इसे राष्ट्रीयता की भावना के संचार के एक अवसर के रूप में देखा। उन्होंने इस उत्सव को सामाजिक स्तर के साथ लोगों से अपने घरों में भी मनाने का आग्रह किया। इसका यथोचित लाभ मिला। सामुदायिक गणेश मंडलों में राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कार्यक्रम होते थे, जिनका आधार प्राय: धार्मिक एवं शास्त्रोक्त घटनाएं होती थीं। लोग अब धार्मिक उत्सव के माध्यम से मुक्त रूप से मिलने-जुलने लगे, जिससे उनमें सामुदायिकता एवं सहकारिता की भावना का उद्भव हुआ। लोगों को नि:संकोच मिलने का अवसर मिलने से ब्रिटिशों से मुक्त होने की योजनाएं बनने लगी और उन्हें भारत से बाहर खदेड़ने के सुस्वप्न देखे जाने लगे।
क्रांतिकारियों ने किया सदुपयोग
अपनी आत्मकथा में स्वातंत्र्य वीर सावरकर ‘पहला बड़ा गणपति उत्सव और मेला’ शीर्षक के अंतर्गत लिखते हैं, ‘सन् 1901 में ‘मित्र मेला’ ने दूसरा गणपति उत्सव बहुत बड़े स्तर पर आयोजित किया। गोविंद कवि ने स्वतंत्रता गीत लिखे और ‘मित्र मेला’ का एक गीत वृंद भी तैयार किया। उस गीत वृंद का तेजस्वी प्रभाव लोगों पर हमेशा रहा। उसे सुनकर श्रोताओं की भुजाएं फड़कने लगतीं। रावण द्वारा भारत की मूर्तिमंत लक्ष्मी का किया गया अपहरण और राम द्वारा उसके 10 सिर काटकर लिए गए प्रतिशोध का वर्णन गोविंद कवि ने ऐसी भाषा में किया था कि पकड़ा तो न जा सके, परंतु तुरंत यह समझ में आ जाए कि सीता लक्ष्मी का अर्थ – ‘स्वातंत्र्य-लक्ष्मी’ है। इन गीतों को सुनते ही हजारों लोगों के मन में देशभक्ति और राष्ट्र-स्वतंत्रता की ज्योति प्रज्वलित हो उठती थी। भुजाओं में आवेश भर जाता। उस गीतवृंद ने अपने गीतों से जो ओजस्वी देश-वीरत्व का संदेश लोगों तक पहुंचाने का कार्य किया, वैसा अर्वाचीन महाराष्ट्र में पहले किसी ने नहीं किया था।’
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा पुन: गणेशोत्सव प्रारंभ किए जाने को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री मा. स. गोलवलकर उपाख्य ‘गुरुजी’ 22 जुलाई 1956 के ‘केसरी’ समाचार पत्र के अपने आलेख में लिखते हैं, ‘हिंदुओं का पुनरुत्थान उनके धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक सब प्रकार के जीवन का सर्वांगीण पुनरुत्थान यह अटल सिद्धांत उन्होंने (तिलक जी ने) व्यक्त किया। इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक गणेश उत्सव व श्री छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्मोत्सव प्रारंभ कर राष्ट्रीय जीवन के प्रवाह को प्राचीन काल से चलते आए श्री शिव छत्रपति की उत्कटता से अभिव्यक्त हुए हिंदू राष्ट्र के गौरव से जोड़ा।’
विश्वप्रसिद्ध हैं लालबाग के राजा
गणेशोत्सव की बात हो और मुंबई के लालबाग के राजा का जिÞक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। ‘लालबाग का राजा’ एक सार्वजानिक गणेश मंडल है, जिसकी स्थापना 1934 में हुई थी। इनकी प्रसिद्धि का आलम यह है कि इस 10 दिनी गणेशोत्सव में स्थापित मूर्ति के दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। इस संस्था का नाम ‘लालबाग चा मंडल’ है, जो गणेशोत्सव के अलावा कई तरह के दान-पुण्य के कार्य भी करती है। इस मंडल के मुंबई में कई विद्यालय, अस्पताल आदि हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं के समय में भी यह मंडल मुक्त हस्त से सेवा कार्य करता रहा है।
टिप्पणियाँ