गणेश चतुर्थी का पावन पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। भक्तों को पूरे साल इस पर्व का बेसब्री से इंतजार रहता है और वे महीनों पहले ही इसकी तैयारी में जुट जाते हैं। भगवान गणेश के स्वागत के लिए घर से लेकर मंदिर और पंडालों तक में विशेष सजावट की जाती है। प्रतिवर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से गणेश उत्सव की शुरुआत होती है, जो 10 दिनों तक चलता है और अनंत चतुर्दशी के दिन इसका समापन होता है। इस वर्ष गणेश चतुर्थी पर्व 7 सितम्बर को है और गणपति विसर्जन 17 सितम्बर को किया जाएगा। गणेश उत्सव के दौरान भक्तगण बप्पा की मूर्ति स्थापित करते हैं और पूरे 10 दिनों तक विधि-विधान के साथ गणपति जी की पूजा-अर्चना करते हैं।
वैसे हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ कार्य आरंभ करने से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है। शादी-विवाह का अवसर हो या गृह प्रवेश, किसी त्योहार की पूजा हो या माता की चौकी अथवा मुंडन संस्कार, ऐसे हर अच्छे और शुभ कार्य से पहले गणेश जी की पूजा करने का प्रावधान है। दरअसल इसके पीछे मान्यता है कि भगवान गणेश हर प्रकार के विघ्न-बाधाओं को हर लेते हैं। भगवान गणेश को विघ्नहर्ता तथा ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी कहा जाता है और मान्यता है कि इनके स्मरण, ध्यान, जप, आराधना से कामनाओं की पूर्ति होने के साथ-साथ हर प्रकार के विघ्नों का भी विनाश होता है। हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सभी देवी-देवताओं से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है और कोई भी अच्छा काम गणेश का नाम लेकर या गणपति वंदना करके ही शुरू किया जाता है। दरअसल, ऐसा माना जाता है कि गणेश पूजा सबसे पहले इसलिए की जाती है ताकि पूजा, प्रार्थना, अनुष्ठान और किसी भी अन्य काम में कोई बाधा न आए। किसी भी कार्य के शुभारंभ से पहले बेहतर योजना, दूरदर्शी निर्णय तथा कुशल नेतृत्व की आवश्यकता होती है यानी किसी भी बड़े काम को शुरू करने से पहले बुद्धि का उपयोग आवश्यक है और गणेश को बुद्धि, समृद्धि एवं सौभाग्य का देवता माना गया है। उनकी पूजा करने से कोई भी कार्य बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण होता है।
भगवान गणेश प्रथम पूजनीय क्यों है, इस संबंध में हालांकि विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में अलग-अलग कारणों का वर्णन मिलता है लेकिन प्रत्येक ग्रंथ में उन्हें प्रथम पूजनीय देव ही कहा गया है। विभिन्न ग्रंथों के अलग-अलग व्यवहारिक पक्ष देखें तो भी गणेश ही पहले देवता हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चूंकि गणेश जी की पूजा के बिना मांगलिक कार्यों में किसी भी दिशा से किसी भी देवी-देवता का आगमन नहीं होता, इसीलिए प्रत्येक मांगलिक कार्य और पूजा से पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है। गणेश जी के प्रथम पूज्य होने के संबंध में शिव महापुराण में बताया गया है कि भगवान शिव ने ही गणेश को प्रथम पूजा का वरदान दिया था। शिव महापुराण में इस बारे में एक कथा का वर्णन किया गया है। कथानुसार एक बार भगवान शिव और गणेश के बीच युद्ध हुआ और उस युद्ध के दौरान गणेश जी का सिर धड़ से अलग हो गया। जब देवी पार्वती ने शिव को बताया कि गणेश उन्हीं का पुत्र है तो पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने गणेश जी के शरीर पर हाथी का सिर जोड़ दिया। धड़ पर हाथी का सिर जोड़े जाने पर देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि मेरे पुत्र की इस रूप में सृष्टि में भला कौन पूजा करेगा, तब भगवान शिव ने गणेश को वरदान दिया कि सभी देवी-देवताओं की पूजा तथा प्रत्येक मांगलिक कार्य से पहले गणेश की पूजा की जाएगी और इसके बिना प्रत्येक पूजा अथवा कोई भी कार्य अधूरा माना जाएगा।
गणेश जी की पूजा के संबंध में लिंग पुराण में कहा गया है कि चूंकि गणेश हर प्रकार के विघ्नों का नाश करते हैं, इसीलिए सबसे पहले उन्हीं की पूजा होती है। लिंग पुराण के अनुसार राक्षसों के दुष्टकर्मों में विघ्न पैदा करने के लिए देवताओं ने एक बार भगवान शिव से वर मांगा। देवताओं की विनती स्वीकार करते हुए भगवान शिव ने इसके लिए वरदान देते हुए उन्हें संतुष्ट कर दिया। समय आने पर गणेश जी प्रकट हुए और तब देवताओं ने उनकी पूजा की। उसके बाद भगवान शिव ने गणेश को दैत्यों के दुष्टकर्मों में विघ्न पैदा करने का आदेश दिया। इसलिए प्रत्येक मांगलिक कार्य और पूजा-पाठ में नकारात्मक शक्तियों की रुकावटों से बचने के लिए विघ्नहर्ता भगवान गणेश जी की पूजा की जाती है। महर्षि पाणिनि के अनुसार दिशाओं के स्वामी यानी अष्टवसुओं के समूह को गण कहा जाता है, जिनके स्वामी गणेश हैं, इसीलिए उन्हें गणपति कहा गया है। गणेश के प्रथम पूजनीय होने के बारे में महर्षि पाणिनि ने उल्लेख किया है कि चूंकि गणेश सभी गणों के स्वामी हैं, इसीलिए वे प्रथम पूज्य हैं।
गणेश जी प्रथम पूजा को लेकर एक और पौराणिक कथा भी बेहद प्रचलित है। देवताओं के बीच एक बार इस बात को लेकर विवाद काफी बढ़ गया कि पृथ्वी पर सबसे पहले किसकी पूजा की जाएगी। सभी देवतागण स्वयं को एक-दूसरे से श्रेष्ठ बताने लगे। विवाद ज्यादा बढ़ने की स्थिति में देवर्षि नारद ने सभी देवताओं को भगवान शिव की शरण में जाने का परामर्श दिया। नारद मुनि की सलाह मानते हुए सभी देवता भगवान शिव के पास पहुंचे और इसका समाधान करने की विनती की। शिव ने गंभीर रूप धारण कर चुके इस विवाद को सुलझाने के लिए एक प्रतियोगिता का आयोजन करने का निर्णय लिया। उन्होंने सभी देवताओं से अपने-अपने वाहन पर बैठकर सम्पूर्ण ब्रह्मांड का चक्कर लगाने को कहा और बताया कि जो भी ब्रह्मांड की परिक्रमा करके सबसे पहले उनके पास पहुंचेगा, पृथ्वी पर उसकी ही पूजा सबसे पहले की जाएगी।
भगवान शिव की आज्ञा मिलते ही समस्त देवगण अपने-अपने वाहन पर सवार होकर ब्रह्मांड का चक्कर लगाने निकल पड़े लेकिन गणेश जी अपने वाहन मूषक पर सवार नहीं हुए बल्कि वह सभी देवताओं के जाने के बाद ब्रह्मांड का चक्कर लगाने के बजाय अपने माता-पिता के चारों ओर ही परिक्रमा करने लगे। उन्होंने माता-पिता के चारों और कुल सात बार परिक्रमा की और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। जब सभी देवता ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर भगवान शिव के समक्ष वापस लौटे तो उन्होंने गणेशजी को वहीं खड़ा पाया। अब बारी थी भगवान शिव द्वारा प्रतियोगिता के विजेता को घोषित करने की। शिव ने जब गणेशजी को प्रतियोगिता का विजेता घोषित किया तो सभी देवताओं को घोर आश्चर्य हुआ कि वे सभी तो पूरे ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर आए हैं जबकि गणेश यहीं पर खड़े हैं, फिर भला शिव ने उन्हें विजेता घोषित क्यों किया? सभी देवताओं की जिज्ञासा का समाधान करते हुए तब भगवान शिव ने बताया कि पूरे ब्रह्मांड में माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है और गणेश ने चूंकि अपने माता-पिता की परिक्रमा की है, इसलिए वे ही सभी देवताओं में सबसे पहले पूजनीय हैं। भगवान शिव के तर्क से सहमत होते हुए सभी देवताओं ने उनके इस निर्णय को स्वीकार किया। मान्यता है कि तभी से पृथ्वी पर गणेश जी की पूजा सबसे पहले होने लगी।
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