तूज़ुक ए जहाँगीरी अर्थात जहाँगीर नामा में अकबर का बेटा जहाँगीर लिखता है कि उसने अपने बेटे खुर्रम से कहा कि वह बेगम साहिबा मरियमुज्जमानी और हरम को उस तक लाए। जब हरम और मरियमुज्जमानी लाहौर की सीमा में पहुंचे तो जहांगीर खुद नाव पर बैठकर गया। सजदा करने और तैमूर और चंगेज़ खान द्वारा बताए गए रिवाजों के अनुसार उसने अपनी अम्मी का स्वागत किया।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह मरियमुज्जमानी कौन थी, जिसे जहाँगीर ने चंगेज खान, तैमूर और बाबर के बनाए गए कानूनों के हिसाब से सलाम किया? क्योंकि हिन्दी फिल्मों में तो लगातार यही बताया जाता रहा है कि सलीम की माँ तो जोधाबाई थी। अगर अकबर की बीवी जोधाबाई थी तो फिर मरियमुज्जमानी?
अकबर की बीवी जोधा थी या नहीं, इस पर भी बहसें हैं और लगातार कई इतिहासकार इसे खारिज करते आए हैं कि अकबर की बीवी जोधा थीं। फिर भी मुगलेआजम में शहजादा सलीम की हिन्दू परवरिश दिखाते हुए अय्याश दिखाया गया है। वह अपनी आत्मकथा में लिखता है कि वह अपनी अम्मी का इस्तकबाल चंगेज़ खान, तैमूर और बाबर के बनाए गए नियमों के हिसाब से करता है, मगर फिल्मों का एजेंडा आरंभ से ही तथ्यों को तोड़मरोड़ कर पेश करना रहा था।
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आज जब अनुभव सिन्हा आईसी 814 में कुछ ही दशकों पूर्व घटी घटना को लेकर तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, तो यह पता लगाना आवश्यक हो जाता है कि क्या तथ्यों के साथ रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर किया जा रहा खेल आज का है या फिर यह खेल पुराना है? तथ्य तो तथ्य हैं, तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं हो सकता है। तथ्यों को एजेंडा की चाशनी में भिगोकर प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यह पाप है, यह अपराध है। परंतु ऐसा लगता है कि बॉलीवुड के साथ ऐसा नहीं है। बॉलीवुड को ऐसा लगता है कि जैसे वह तथ्यों से परे है, वह तथ्यों को अपने अनुसार प्रयोग कर सकता है।
बॉलीवुड पर रहा है इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट प्रभाव
बॉलीवुड पर आरंभ से ही इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट प्रभाव रहा है। अरबी-फारसी की महत्ता वाली उर्दू का वर्चस्व रहा है। संस्कृत निष्ठ हिन्दी को कॉमेडी के रूप में ही दिखाया जाता रहा। मंदिरों को नीचा दिखाया गया। फिल्मों के माध्यम से प्रांतीय एकता पर प्रहार किया गया। फिल्म पड़ोसन में शिखाधारी संगीत शिक्षक का उपहास करना, मदर इंडिया में लाला को बेईमान दिखाना, “काफिर” शब्द का महिमामंडन किया जाना, जैसे कई विषय हैं, जिनसे यह एक बार नहीं बार-बार स्पष्ट होता है कि बॉलीवुड का एजेंडा कुछ और ही रहा था।
वर्ष 1947 में भारत विभाजन के उपरांत पूरे भारत में विभाजन को लेकर गुस्सा था, क्रोध था और एक प्रश्न भी था कि आखिर विभाजन क्यों हुआ? मुस्लिम लीग और पाकिस्तान के प्रति भी गुस्सा था, क्योंकि वहाँ से आने वाली लाशों से भरी रेलगाड़ियां लोगों के दिमाग में ताजा थीं। परंतु यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि बॉलीवुड ने विभाजन के परिणामस्वरूप मारे गए हिंदुओं को केंद्र में रखकर कोई फिल्म बनाई हो, ऐसा नहीं लगता। हाँ, कथित कट्टरपंथ को कोसते हुए फिल्में बनाई हैं, उनमें हिन्दू कट्टरपंथ को जमकर कोसा गया है।
क्या उस समय से लेकर अभी तक मुस्लिम लीग के पापों को ढकने का प्रयास बॉलीवुड के एक वर्ग द्वारा निरंतर किया जा रहा है?
यह भी देखना होगा कि आखिर आरंभिक फिल्मों में किस विचारधारा के कलाकारों का बोलबाला था। फिल्मों में पहले इप्टा अर्थात इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोशिएसन से जुड़े हुए सदस्यों का बोलबाला था। यह एक क्रांतिकारी संगठन है, जिसका लक्ष्य कम्युनिस्ट जहर को कला के माध्यम से फैलाना था। इसके कुछ महत्वपूर्ण सदस्यों में से मुख्य सदस्य थे पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, दमयंती साहनी, चेतन आनंद, हबीब तनवीर, शंभु मित्रा, तृप्ति मित्रा, जोहरा सहगल, दीना पाठक जैसे कलाकार, सज्जाद ज़हीर, अली सरदार ज़ाफ़री, डॉ. रशीद जहां, इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे उर्दू के लेखक, सलिल चौधरी, हेमांग विश्वास, अबनी दासगुप्ता जैसे शानदार संगीतकार, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, मखदूम मोहिउद्दीन, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र, प्रेम धवन जैसे गीतकार, भीष्म साहनी, ए.के. हंगल आदि।
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उत्पल दत्त, इन नामों से यह समझा जा सकता है कि आरंभ से ही एक विशेष विचारधारा का वर्चस्व बॉलीवुड पर रहा, जिसका उद्देश्य कला के माध्यम से कथित क्रांतिकारी एजेंडा फैलाना था, फिर इसके लिए तथ्यों के साथ कुछ भी हेराफेरी क्यों न करनी पड़े? जैसे कि मुगले आजम में एक बार भी यह उल्लेख नहीं किया गया कि अकबर की हिन्दू बीवी का नाम दरअसल मरियमुज्जमानी हो गया था।
मुस्लिमों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर का विकास करती हिन्दी फिल्में
आज यदि अनुभव सिन्हा अपनी फिल्म के माध्यम से यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि मुस्लिमों का आतंकवाद से कोई लेनादेना नहीं है, तो वह बॉलीवुड की उसी परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं, जिस परंपरा में हिंदुओं की हत्या करने वाला अकबर, महान प्रेमी अकबर के रूप में दिखाया जाता है। ऐसा नहीं है कि अनुभव सिन्हा ही तथ्यों को अपने हिसाब से एजेंडे के अनुसार, तोड़ मरोड़ रहे हैं। ऐसा कार्य तो लगभग हर सुपरस्टार ने किया है। पहले जहां यह महीन एजेंडा होता था, वहीं अब यह हिन्दू विरोध खुलकर सामने आ गया है।
रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर मूल तथ्यों को उलटना यह नया खेल अब शुरू हुआ है। एक फिल्म आई थी “चक दे इंडिया”! भावुक करने वाली फिल्म थी। कबीर खान के साथ हुए अत्याचार से लोग दुखी थे और साथ ही इस बात से भी दुखी थे कि “कबीर खान” को अपने ही देश में भेदभाव का सामना करना पड़ा था। मगर यह फिल्म मीर रंजन नेगी के जीवन पर आधारित थी। हालांकि, नेगी पर भी यह आरोप लगे थे कि उन्होंने पाकिस्तान से रिश्वत ले ली है आदि-आदि, परंतु वे उनके धर्म के आधार पर नहीं थे, वे इस आधार पर थे कि आखिर भारतीय टीम मैच कैसे हार गई? परंतु चक दे इंडिया में इस किरदार को मुस्लिम बनाकर यह दिखाने का प्रयास किया गया कि भारत में मुस्लिमों पर कितने अत्याचार होते हैं।
ऐसे ही अनुभव सिन्हा की ही एक और फिल्म आई थी, जिसमें तथ्यों को पूरी तरह से जातिगत वैमनस्य फैलाने के लिए तोड़ मरोड़ दिया गया था। यह फिल्म थी “आर्टिकल 15।“ यह फिल्म उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो लड़कियों के साथ हुए बलात्कार और हत्या पर आधारित फिल्म थी। बदायूं में जब यह घटना हुई थी, उस समय अखिलेश यादव की सरकार थी और आरोपियों के नाम थे “पप्पू यादव, अवधेश यादव, उर्वेश यादव, छत्रपाल यादव और सर्वेश यादव।“ और यह भी आरोप लगे थे कि तत्कालीन राजनीतिक दबाव के चलते आरोपियों का बचाव किया गया था। परंतु अनुभव सिन्हा ने यह इस घटना पर आधारित फिल्म बनाई तो उसमें दोषियों को “ब्राह्मण” दिखा दिया गया।
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ऐसा क्यों किया गया या किया जाता है?
यदि किसी घटना पर आधारित फिल्म बनाई जा रही है, तो सामाजिक वैमनस्य बढ़ाने के लिए या फिर मुस्लिमों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर पैदा करने के लिए तथ्यों को झूठ की चाशनी में क्यों लपेटा जाता है? ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं। ऐसा ही एक और उदाहरण है वर्ष 2021 में आई फिल्म शेरनी का। यह फिल्म “अवनि” नामक आदमखोर बाघिन का शिकार करने को लेकर थी। इस फिल्म की असली जीवन की नायिका हैं के. एम. अभर्ण। जो ऐसी अधिकारी हैं जो बिंदी आदि लगाना पसंद करती हैं। और “अवनि” को मारने के लिए असगर अली खान की सहायता ली जाती है और जिसने तमाम नियम कायदों को ताक पर रखते हुए गोली मार दी थी।
असगर अली के खिलाफ मुकदमा लड़ा था संगीता डोगरा नामक वन्यजीव कार्यकर्ता ने। अत: अधिकारी हिन्दू थीं, शिकारी मुस्लिम था और शिकारी के खिलाफ मुकदमा लड़ने वाली संगीता डोगरा। परंतु जब फिल्म बनाई गई “शेरनी” तो उसमें के एम अभर्ण का नाम विद्या विसेन्ट कर दिया गया, जिसे गहनों से घृणा है। जो एक अजीब कुंठा में रहती है। और नियम कायदे ताक पर रखकर “अवनि” को मारने वाले शिकारी असगर अली का नाम कर दिया गया रंजन राजहंस, जो कलावा भी पहनता है और पूजा करता है। चूंकि असगर अली का परिवार शिकार को लेकर कुख्यात था, इसलिए मेनका गांधी “अवनि” का शिकार करने के लिए उसे बुलाने के पक्ष में नहीं थीं। परंतु उनकी बात नहीं मानी गई थी और असगर अली खान को ही बुलाया गया।
मगर मुद्दा यहाँ पर यह है कि कैसे असगर अली खान, जिससे घृणा हो जाए उसे कलावा पहनने वाले रंजन राजहंस में बदल दिया गया और बिंदी लगाने वाली मजबूत अधिकारी के एम अभर्ण को बिंदी और भारत की सांस्कृतिक पहचान से घृणा करने वाली विद्या विसेन्ट से बदल दिया गया, जो शेरनी को मारने/पकड़ने के लिए कार्यालय में हो रहे हवन को देखकर उपहासपूर्ण हंसी हंस रही है। इतना ही नहीं “अवनि” की मौत के बाद विद्या विसेन्ट और नूरानी जी को अवनि का मुकदमा लड़ते हुए दिखाया गया है, जबकि मुकदमा लड़ा था संगीता डोगरा ने। तथ्य वही रहे, मगर किरदार बदल दिए गए।
मिशन मंगल में मुस्लिम परिवार को घर न मिलने का एजेंडा डाला गया। महिला वैज्ञानिकों के निजी जीवन के विषय में अजीब बातें दिखाई गईं, जैसे मुख्य वैज्ञानिक का किरदार निभा रही विद्या बालन के बेटे का इस्लाम की ओर झुकाव होना और इसमें ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया जैसे हिन्दू परिवारों की महिलाओं को उनके परिवार आगे नहीं बढ़ते देखना चाहते हैं। किरदारों की धार्मिक पहचान ही वह खेल है, जो बॉलीवुड खेलता हुआ आया है। वह इस खेल में माहिर है, क्योंकि जड़ों में तो वही नारे हैं जिनमें कहा गया है कि “छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी।“ जिनमें हिन्दू अतीत के प्रति एक घृणा का भाव है, जिसे हमेशा ही खलनायक के रूप में दिखाई देना चाहिए।
तभी जिस हिन्दू आतंकवाद का कोई भी नामोनिशान नहीं है, उसे फराह खान अपनी फिल्म, “मैं हूँ न”, जिसमें शाहरुख खान और जाइद खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी, में काल्पनिक रूप से जीवित करती हैं। इसमें वे दिखाती हैं कि कैसे एक हिन्दू अधिकारी आतंकवादी बनता है। इसे लेकर फराह खान ने कहा भी है कि वे नहीं चाहती थीं कि उनकी फिल्म में कोई मुस्लिम आतंकवादी हो। इसमें “हिन्दू आतंकवादी” राघवन का साथी खान था, और जिसे एहसास होता है कि उसे पूरी ज़िंदगी गलत दिशा में चलने के लिए प्रेरित किया गया था और इसलिए उसने देश की बजाय आतंकवाद चुना।
ये जो फराह खान की चाह थी कि वे नहीं चाहती थीं कि उनकी फिल्म का विलेन मुस्लिम आतंकवादी हो, ही वह चाह है जो के आसिफ के मरियमुज्जमानी को छिपाने से लेकर नसीरुद्दीन शाह के उस वक्तव्य की पुष्टि करती है जिसमें वे कहते हैं कि जब आईसी 814 को हाइजैक किया गया था, तो उन्हें यह लगा था कि इससे इस्लामोफोबिया की एक नई लहर पैदा हो जाएगी। खुद को नास्तिक या कम्युनिस्ट कहने वाले लोग इस्लाम के प्रति इतने समर्पित क्यों हैं कि वे उसे अच्छा दिखाने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं। जैसे फराह खान ने लिया, जैसे अनुभव सिन्हा ने लिया या फिर जैसे शाहरुख खान ने लिया। जैसा आमिर खान ने भारत के सपूत मंगल पाण्डेय के साथ किया था। हर कोई जानता है कि 1857 की क्रांति में मंगल पाण्डेय ने कैसे अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था। मगर फिर भी उनके जीवन पर आधारित यह फिल्म विशुद्ध व्यावसायिक फिल्म थी। इस फिल्म में उनका विवाह दिखाया था और उन्हें वैश्या के पास जाते हुए दिखाया गया था। इसे लेकर मंगल पाण्डेय के वंशजों रघुनाथ पांडे और ओंकार पांडे ने न्यायालय में याचिका भी दायर की थी।
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अभी हाल ही में वर्ष 2022 में रायपुर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजनों का सम्मेलन हुआ था, उसमें रघुनाथ पाण्डेय ने यह कहा था कि जब उन्होंने आमिर खान और रानी मुखर्जी पर केस किया था तो जज ने भी 3 घंटे फिल्म देखने के बाद यह फैसला दिया था कि फिल्म को दिखाए जाने के दौरान यह बताया जाना आवश्यक होगा कि यह फिल्म ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं है।
ऐसे तमाम उदाहरण हैं। किसी काल्पनिक कहानी में एजेंडा चलाना अलग बात है और किसी ऐतिहासिक घटना में किरदारों के नाम धार्मिक रूप से बदल देना एकदम अलग बात है, इसे समझना होगा। चूंकि फिल्में डिजिटल रेकॉर्ड्स होती हैं, इसलिए नाम, घटनाएं और घटना क्रम बहुत मायने रखता है। पाकिस्तान के प्रति हमेशा ही सॉफ्ट कॉर्नर रखने वाले कबीर खान तो इस सीमा तक पाकिस्तान प्रेमी हैं कि उन्होनें वर्ष 1983 में भारतीय क्रिकेट टीम की ऐतिहासिक जीत में भी पाकिस्तान प्रेम का तड़का लगा दिया था। इसी के साथ उन्होंने इतिहास के साथ भी छेड़छाड़ कर दी थी। वर्ष 1983 में उन्होंने यह दिखा दिया था कि पाकिस्तान की सेना ने सीमा पर गोलीबारी बंद कर दी थी, जिससे भारतीय सेना विश्व कप फाइनल देख सके।
परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था और शायद उस समय इस प्रकार की गोलाबारी आरंभ भी नहीं हुई थी। यदि और शोध किया जाएगा तो और भी उदाहरण मिलेंगे कि कैसे मुस्लिम खल चरित्रों को नायक बनाकर बार-बार पेश किया गया और कैसे हिन्दू चरित्रों को खलनायक बनाकर ऐतिहासिक रूप से चरित्रों और घटनाओं के साथ छल करने का प्रयास किया गया। अनुभव सिन्हा जब वर्ष 2024 में वर्ष 1999 में आईसी 814 के हाइजैक की जाने वाली घटना पर फिल्म बनाते हुए मुस्लिम खल पात्रों के नाम बदल देते हैं या कोड वर्ड्स को ही मुख्य नाम के रूप में प्रयोग करते हुए इस्लामी एजेंडा छिपा लेते हैं, तो यह समझ लिया जाना चाहिए कि वे कुछ भी नया नहीं कर रहे हैं। वे हिन्दू विरोधी या कहें भारत विरोधी उसी मानसिकता का परिचय दे रहे हैं, जिसका परिचय बॉलीवुड के कुछ लोग काफी समय से देते हुए आ रहे हैं।
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