गौरवशाली भारतीय संस्कृति में गुरू-शिष्य परम्परा का एक बेहद पवित्र और अहम स्थान है। किसी भी अबोध बालक के जीवन में पहला गुरू माता-पिता को ही माना गया है, जो उसे इस खूबसूरत दुनिया में लाने का माध्यम बनते हैं और उंगली पकड़कर चलना सिखाते हैं। माता-पिता के बाद स्थान आता है शिक्षक रूपी गुरू का, जो जीवन जीने का सही सलीका सिखाते हैं और जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों का हंसते-हंसते मुकाबला करने के लिए हमें तैयार करते हैं।
जब भी गुरू और शिष्य के रिश्ते की बात होती है तो सबसे पहले महाभारत काल का एकलव्य प्रकरण स्मरण हो आता है, जब द्रोणाचार्य द्वारा एकलव्य को अपना शिष्य बनाने से इन्कार करने पर एकलव्य ने अपने मन में द्रोणाचार्य को अपना गुरू मानकर उनकी मूर्ति स्थापित कर तीरंदाजी का अभ्यास शुरू किया और उसमें पारंगत हो गए तथा एक दिन जब द्रोणाचार्य वहां से निकले और उन्होंने गुरू दक्षिणा के रूप में एकलव्य से उनका अंगूठा मांग लिया तो एकलव्य ने तुरंत अपना अंगूठा काटकर गुरू दक्षिणा के रूप में उन्हें भेंट कर दिया।
विश्वभर में लगभग सभी महापुरूषों ने शिक्षकों को राष्ट्र निर्माता की संज्ञा दी है। गुरू रूपी इन्हीं शिक्षकों को सम्मान देने के लिए प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जाता है। यह एकमात्र ऐसा दिन है, जब छात्र अपने शिक्षकों अर्थात् गुरुओं को उपहार देते हैं। पहले जहां गुरूकुल परम्परा हुआ करती थी और उस समय जीवन की व्यावहारिक शिक्षाएं इन्हीं गुरूकुल में गुरु दिया करते थे, आज नए जमाने में गुरूओं का वही अहम कार्य शिक्षक पूरा कर रहे हैं, जो छात्रों के सच्चे मार्गदर्शक बनकर उन्हें स्कूल से लेकर कॉलेज तक वह शिक्षा देते हैं, जो उन्हें जीवन में बुलंदियों तक पहुंचाने में सहायक बनती है।
आज भले ही शिक्षा प्राप्त करने या ज्ञानोपार्जन के लिए अनेक तकनीकी साधन सुलभ हैं किन्तु एक अच्छे शिक्षक की कमी कोई पूरी नहीं कर सकता। जिस प्रकार एक अच्छा शिल्पकार किसी भी पत्थर को तराशकर उसे खूबसूरत रूप दे सकता है और एक कुम्हार गीली मिट्टी को सही आकार प्रदान कर सही आकार के खूबसूरत बर्तन बनाता है, समाज में वही भूमिका एक शिक्षक अदा करता है, इसीलिए शिक्षक को समाज के असली शिल्पकार का भी दर्जा दिया जाता है। इतिहास ऐसे शिक्षकों के उदाहरणों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपनी शिक्षा से अनेक लोगों के जीवन की दिशा ही बदल दी।
भारत में शिक्षक दिवस प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस के अवसर पर शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के उद्देश्य से मनाया जाता है। 13 मई 1962 को राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति बने और उसी वर्ष उनके कुछ छात्र उनका जन्मदिन मनाने के उद्देश्य से उनके पास गए तो उन्होंने उन छात्रों को परामर्श दिया कि उनके जन्मदिन को अध्यापन के प्रति उनके समर्पण के लिए ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाए और इस प्रकार 5 सितम्बर 1962 से ही देश में यह दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
5 सितम्बर 1888 को एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में जन्मे डा. राधाकृष्णन ने अपने जीवनकाल के 40 वर्ष एक आदर्श शिक्षक के रूप में समर्पित कर दिए। मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज से शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने मैसूर यूनिवर्सिटी, कलकत्ता यूनिवर्सिटी तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया और लंदन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में भी दर्शन शास्त्र पढ़ाया। 1931 में किंग जॉर्ज पंचम ने उन्हें नाइटहुड की उपाधि प्रदान की किन्तु उन्होंने देश की आजादी के बाद अपने नाम के साथ ‘सर’ लगाना बंद कर दिया। राधाकृष्णन 1947 से 1949 तक संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य रहे और 1954 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। 1962 में ब्रिटिश अकादमी का सदस्य बनने पर उन्हें गोल्डन स्पर, इंग्लैंड के ‘ऑर्डर ऑफ मैरिट’ तथा 1975 में मरणोपरांत अमेरिकी सरकार द्वारा ‘टेम्पलटन पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। डा. राधाकृष्णन एक महान् दार्शनिक और आदर्श शिक्षक होने के साथ-साथ राजनीति में भी प्रवीण थे।
डा. राधाकृष्णन दर्शन शास्त्र जैसे गंभीर विषय को भी अपनी अद्भुत शैली से बेहद सरल और रोचक बना देते थे। जिस विषय का वे अध्यापन करते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। डा. राधाकृष्णन अपने व्याख्यानों के साथ-साथ विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से छात्रों को उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में समाहित करने के लिए प्रेरित कर उनका बेहतर मार्गदर्शन भी करते थे। उनका कहना था कि हमें अपने शिक्षकों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि शिक्षक के बिना इस दुनिया में हम सभी अधूरे हैं। शिक्षक ही हैं, जो देश के भविष्य के वास्तविक आकृतिकार हैं और हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं। राधाकृष्णन का कहना था कि हमें मानवता को उन नैतिक जड़ों तक वापस ले जाना चाहिए, जहां से अनुशासन और स्वतंत्रता दोनों का उद्गम हो। उनका कथन स्पष्ट था कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होगा और शिक्षा को एक मिशन के रूप में नहीं अपनाएगा, तब तक अच्छी और उद्देश्यपूर्ण शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती।
दरअसल आज हम हर बच्चे को महंगी उत्कृष्ट आधुनिक शिक्षा के जरिये टॉपर बनाकर बड़ा डॉक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी बनाने का सपना संजोये रहते हैं और भूलते जा रहे हैं कि उसे जीवन की बुलंदियों पर पहुंचाने के साथ-साथ एक अच्छा इंसान बनाना भी बेहद जरूरी है और इसके लिए हर बच्चे को नैतिक, भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शिक्षा दिए जाने की भी आवश्यकता है ताकि बच्चे अपने विवेक से बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने और समाज को सही दिशा देने में सक्षम बनें। समाज में शिक्षकों की महत्ता के सम्बन्ध में महर्षि अरविंद ने कहा था कि शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं, जो संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में निर्मित करते हैं। डॉ. राधाकृष्णन का मानना था कि यदि सही तरीके से शिक्षा प्रदान की जाए तो समाज की अनेक बुराईयों का समूल नाश किया जा सकता है। एक सभ्य, सुसंस्कारित, सुन्दर एवं शांतिपूर्ण समाज के निर्माण के लिए शिक्षक दिवस के अवसर पर डा. राधाकृष्णन के आदर्शों, उनकी शिक्षाओं तथा जीवन मूल्यों को जीवन में आत्मसात करने की आवश्यकता है।
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