विजय मनोहर तिवारी ने कहा, ‘‘भारत कोई स्थिर परिचय नहीं है जिसे आप एक पंक्ति या एक ‘पैराग्राफ’ में सीमित कर सकें। ये युगों की लंबी यात्रा का एक सिलसिला है जो सतत है, इसलिए भारत के धर्म को ”सनातन” कहते हैं, वह सनातन है, प्राचीन नहीं है। सनातन का मतलब जो कल था, आज है और आगे भी रहेगा ऐसी जीवंत सत्ता। तो मेरे धर्म में, मेरे देश की प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं है।
काल के प्रभाव में बहुत सारी कुरीतियां बहुत सारे घाटों पर इस पूरे प्रवाह में कचरा और तमाम कुरीतियों और काई जमा हुई। फिर आदि गुरु शंकराचार्य हुए उन्होंने फिर से संस्कृति का उत्थान किया। जो कुरीतियां समय के साथ आई थीं सबको निकाल बाहर किया। चार मठ स्थापित किए गए। वेदों में से कुछ अमृत निकाला, उपनिषदों की कुछ व्याख्या की, वेदांत के दर्शन को हमारे सामने पुनर्स्थापित किया केवल 32 वर्ष की आयु में वह ऐसा करके चले गए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘12वीं शताब्दी में प्रयाग में संत रामानंदाचार्य हुए। और उन्होंने राम की स्मृतियों को इस तरह से जीवंत किया कि जब आप कनक भवन में खड़े होंगे तो लगेगा कि अभी राम और सीता बस उसमें से निकलने वाले हैं। स्वामी विवेकानंद से 2500 साल पहले चीन से लेकर जापान तक भारत के धर्मदूत बने। भारत की सनातन यात्रा में इतने सारे पड़ावों से गुजरा है। इसको किसी एक सिरे पर पकड़ना और उसकी व्याख्या करना असंभव है। चार वेद, 18 पुराण, 108 उपनिषद और उनकी हजारों हजार टीकाएं और टीकाओं पर लिखी गई टीकाएं और कोई यह नहीं की यह तो अंतिम है। ’’
उन्होंने कहा, ‘‘हमारे पूर्वजों ने भारत के परिचय को गढ़ने के लिए अपने सारे दरवाजे, सारी खिड़कियां खोलकर रखे। हमारा समाज नैतिक मूल्यों पर आधारित है। 300 वर्ष पहले के अखंड भारत के विस्तार में लोकमाता अहिल्याबाई की स्मृति एक शासक के रूप में यदि आज भी है तो वह इसलिए कि उनके राज्य में मूल्य आधारित शासन चल रहा था। उनके समय में उनसे भी बड़े साम्राज्य थे जो हमारी स्मृतियों से गायब हैं। वह क्यों हमारी स्मृतियों में चमक रहीं क्योंकि नैतिक मूल्य भारत की देश यात्रा ने इस समाज में प्रतिस्थापित किए, जिनके आधार पर जो जहां है वह कल उससे बेहतर हो। देवी अहिल्याबाई ने ऐसा ही किया, इसलिए हमारी आंखें आज भी भर आती हैं।’’
टिप्पणियाँ