आज भाद्रपद की कुशग्रहणी अमावस्या है। इस दिन पूरे वर्ष भगवान की पूजा और श्राद्घ आदि कर्मों के लिए कुश का संग्रह किया जाता है। इसलिए धर्मशास्त्रों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या के नाम से भी संबोधित किया गया है। हिंदू पंचांग के अनुसार इस साल भाद्रपद मास की अमावस्या की शुरुआत 2 सितंबर की सुबह से 4.40 बजे से प्रारंभ होकर 3 सितंबर 2024 की सुबह 6 बजे तक रहेगी। इस अमावस्या तिथि का हिन्दू शास्त्रों अत्यधिक महत्व वर्णित है। शास्त्रों में कहा गया है-
‘पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।।
अर्थात भगवान की पूजा एवं दानादि कर्म के समय हाथ में कुश जरूर होना चाहिए अन्यथा पूजा और कर्मों का समुचित फल नहीं मिलता। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार कुशग्रहणी अमावस्या के दिन प्रातः सूर्योदय के समय पूर्व या उत्तरमुख की ओर बैठकर ‘ओम हुं फट्’ मंत्र बोलते हुए भूमि से कुश उखाड़ने का विधान शास्त्रों में बताया गया है। आचार्य श्री के अनुसार कुश निकालने के लिए भाद्रपद मास की अमावस्या पर सूर्योदय के समय पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठकर निम्न मंत्र पढ़कर दाहिने हाथ से एक बार में कुश को उखाड़ा जाना चाहिए-
विरंचिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।
नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव।।
महामंडलेश्वर आचार्य अवधेश्वरानंद जी महराज बताते हैं कि ऐसी मान्यता है कि इस दिन कुश नामक घास को उखाड़ने से यह वर्ष भर कार्य करती है तथा पूजा पाठ कर्म कांड सभी शुभ कार्यों में आचमन में या जाप आदि करने के लिए कुशा इसी अमावस्या के दिन उखाड़ कर लायी जाती है। हिन्दू धर्म में कुश के बिना किसी भी पूजा को सफल नहीं माना जाता है। किसी भी पूजन के अवसर पर पुरोहित यजमान को अनामिका उंगली में कुश की बनी पवित्री पहनाते हैं।
इसलिए इसे कुशग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। यदि भाद्रपद माह में सोमवती अमावस्या पड़े तो इस कुशा का उपयोग 12 सालों तक किया जा सकता है। इसी कारण इस दिन वर्ष भर पूजा, अनुष्ठान या श्राद्ध कराने के लिए श्रद्धालु नदी, मैदानों आदि जगहों से कुशा नामक घास उखाड़ कर घर लाते हैं। धार्मिक कार्यों में इस्तेमाल की जाने वाली यह घास यदि इस दिन एकत्रित की जाए तो वह वर्ष भर तक पुण्य फलदायी होती है। अत्यंत पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है। वेदों और पुराण ग्रंथों में कुश घास को कुशा, मूंज, दर्भ या डाभ भी कहा गया है। कुश का वानस्पतिक नाम ‘डेस्मोस्टेकिया बाईपिन्नेटा’ है। कुशा को अंग्रेजी में सैक्रिफिशियल ग्रास कहते हैं।
भगवान वाराह के बालों से हुई थी कुश की उत्पत्ति
मत्स्य पुराण में वर्णित प्रसंग के अनुसार एक समय हिरण्यकश्यप के बड़े भाई हिरण्याक्ष धरती का अपहरण कर पृथ्वी को पताललोक ले गया। वह इतना शक्तिशाली था कि उसका कोई विरोध तक न कर सका। तब धरती को मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु ने वाराह अवतार लिया तथा हिरण्याक्ष का वध कर धरती को मुक्त कराया। तथा पृथ्वी को पुनः अपनी स्थापना किया। पृथ्वी की पूर्व अवस्था में स्थापना करने के बाद भगवान वाराह ने अपने पानी से भीगे शरीर को बहुत तेजी से झटका जिससे उनके शरीर के कुछ रोयें टूटकर धरती पर जा गिरे जिससे कुश की उत्पत्ति हुई। शास्त्रीय मान्यता के अनुसार कुश की जड़ में भगवान ब्रह्मा, मध्य भाग में भगवान विष्णु तथा शीर्ष भाग में भगवान शिव विराजते हैं।
कुश का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व
अथर्ववेद, मत्स्य पुराण और महाभारत में कुश का भारी महत्व बताया गया है। शास्त्रीय मान्यता है कि भाद्रपद अमावस्या पर हाथों में कुश लेकर तर्पण करने से कई पीढ़ियों के पितर देव तृप्त हो जाते हैं। इसलिए इस दिन पूजा-पाठ, जप-तप के साथ स्नान-दान का बहुत ज्यादा महत्व माना गया है। रुद्र अवतार माने जाने वाले हनुमान जी कुश का बना हुआ जनेऊ धारण करते हैं। इसीलिए उनकी स्तुति में कहा जाता है- कांधे मूंज जनेऊ साजे। शास्त्रज्ञ कहते हैं कि कुश ऊर्जा का कुचालक होता है; इसलिए हिन्दू धर्म के पूजन अनुष्ठानों में आमतौर पर कुश से बना आसान बिछाया जाता है या कुश से बनी हुई पवित्री को अनामिका अंगुली में धारण किया जाता है। चूंकि जप और ध्यान के दौरान हमारे शरीर में ऊर्जा पैदा होती है। कुश के आसन पर बैठकर पूजा-पाठ और ध्यान किया जाए तो शरीर में संचित उर्जा जमीन में नहीं जा पाती। इसके अलावा धार्मिक कार्यों में कुश की अंगूठी इसलिए पहनते हैं ताकि आध्यात्मिक शक्तिपुंज दूसरी उंगलियों में न जाए। अनामिका के नीचे सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश मिलता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है।
पूजा-पाठ के दौरान यदि भूल से हाथ जमीन पर लग जाए, तो बीच में कुशा आ जाएगी और ऊर्जा की रक्षा होगी। इसलिए कुशा की अंगूठी बनाकर हाथ में पहनी जाती है। यही नहीं, वेदों में कुशा को तत्काल फल देने वाली, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाली औषधि बताया गया है।
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